शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

‘जितना मन चाहे, उतना खोद डालो’

जिले में संचालित दर्जनों खदानों में सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों की चौतरफा धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खदान संचालक इतनी मनमानी पर उतर आए हैं कि वे जितना चाह रहे, उतना खोदे जा रहे हैं। कहीं कोई पाबंदी नहीं है और ही, उन्हें सेप्टी माइंस की कार्रवाई का डर है, क्योंकि खदान संचालकों को पता है कि उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जिस विभाग को कार्रवाई करना है, वहां के अफसर गहरी निद्रा में हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बेतहाशा गहराई वाली खदानों पर कब की पाबंदी लग गई होतीं, मगर उन्हें किसी बड़ी घटना का इंतजार है। जाहिर है, जो खदान मापदंड को दरकिनार कर संचालित की जा रही हैं और वहां से उत्खनन कर पत्थर निकाले जा रहे हैं, उससे तो ऐसा ही अंदेशा व्यक्त किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ऐसी खदानों की सूची नहीं बनी है, पिछले साल खनिज विभाग के अधिकारियों ने जिले की अधिकांश खदानों की जांच की थी। इसमें आधे से अधिक खदानें, सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों के विरूद्ध पाई गईं। जांच में खदानों के बेधड़क संचालन में लगाम लगाने का हवाला देते हुए जिला खनिज अधिकारी डा. दिनेश मिश्रा ने सेप्टी माइंस खान सुरक्षा विभाग, रांची को भेज दी। साथ ही विष्फोटक सामग्री का भी प्रयोग किए जाने की बात सामने आने के बाद इसकी भी जानकारी दी गई है। दिलचस्प बात यह है कि रांची में मुख्य कार्यालय होने के कारण कार्रवाई में लेटलतीफी होने की बात कही जा रही है, किन्तु यह तो पूरी तरह से लफ्फाजी ही प्रतीत होती है, क्योंकि जहां हर पर मौत मंडराती हो, यदि वहां लगाम लगाने के बजाय, छूट दे दिया जाए और कार्रवाई करने से हाथ खींचे जाएं, ऐसी स्थिति में कानून-कायदों का मखौल ही उड़ेगा ?
इस मामले में जिला खनिज अधिकारी डा. मिश्रा का कहना है कि उन्होंने पिछले साल अकलतरा क्षेत्र के तरौद, किरारी, अकलतरा की खदानों की जांच की थी। वैसे इसके पहले भी उनके पहले पदस्थ अधिकारियों ने भी जिले की अन्य खदानों की जांच की थी। हालांकि, उसके बाद भी किसी भी खदान पर रोक नहीं लग सकी। खनिज अधिकारी ने बताया कि खदानों की गहराई व विष्फोटक मामले में उन्हें जांच का अधिकार तो है, लेकिन खदान बंद करने का अधिकार नहीं है। इसी के चलते जांच के बाद खदानों की स्थिति का विवरण देते हुए सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा विभाग को पत्र प्रेषित कर अवगत करा दिया गया है। उनका कहना है कि इसके बाद उन्हें स्मरण पत्र भी भेजा गया है, फिर भी उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है। ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है ? उन्होंने बताया कि विष्फोटक के प्रयोग करने व खान की गहराई अधिक होने के मामले में नोटिस जारी किया गया था, इसके बाद खदान संचालकों द्वारा पेनाल्टी की राशि भी जमा कराई जा रही है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि खदानों में कहीं न कहीं, घटनाएं होती रहती हैं, कुछ मामलों को अपने स्तर पर दबा लिया जाता है और कुछ मामले उजागर हो जाते हैं। उसमें भी लीपापोती कर खदान पर होने वाली कार्रवाई पर पलीता लगा दिया जाता है। छह महीने पहले बाराद्वार क्षेत्र के एक डोलामाइट खदान में ट्रैक्टर से दब कर एक ड्राइवर की मौत हो गई थी। यहां तो हद ही हो गई थी, रात में ही पत्थर उत्खनन व परिवहन कार्य हो रहा था। डोलोमाइट का यह खदान इतनी गहरी है, उसके बाद इस खदान पर बंद करने जैसी सख्त कार्रवाई नहीं हो सकी। अकलतरा क्षेत्र में भी जो खदानें संचालित हैं, वहां की गहराई काफी अधिक है। पूरी तरह नियमों को दरकिनार कर कार्य किया जा रहा है, जिसके चलते कभी भी अनहोनी घटना होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। महीने दो महीनों में किसी न किसी पर मौत का बादल मंडराता है, लेकिन इन सब बातों से अफसरों को भला क्या लेना-देना हो सकता है ? खदानों में गहराई अधिक होने से जमीन धसकने की संभावना भी बनी रहती है और ऐसी स्थिति में कोई बड़ा हादसा हो सकता है। जिन खदानों की गहराई, सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा की शर्तों से अधिक हो गई हैं, निश्चित ही इन्हें बंद करने कड़े कदम उठाए जाने चाहिए। अब तो आने वाला समय ही बताएगा कि गहरी निद्रा में सोए अफसरों के कानों में जूं रेंगती है कि नहीं ?


अचानक कैसे जाग उठा पर्यावरण विभाग ?
वैसे तो जिले में पर्यावरण विभाग का कोई दफ्तर नहीं है। पर्यावरणीय मामले में कार्रवाई की गतिविधि क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर से चलती है। यही कारण है कि जिले में पर्यावरणीय नियमों व शर्तों के उल्लंघन की बातें आम हो चली है और पर्यावरण विभाग के कार्यालय खोले जाने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। यहां विभाग के अफसरों को पर्यावरण संरक्षण व नियमों का कड़ाई से पालन कराने की फुरसत ही नहीं है। इसी के चलते आए दिन जिले में पर्यावरण मापदंडों की खिल्ली उड़ती रहती हैं। जांजगीर-चांपा जिले के कई इलाकों में सैकड़ों क्रशर संचालित हैं, मगर इनकी जांच के लिए विभाग के अधिकारियों ने कभी रूचि नहीं दिखाई। ऐसा नहीं है कि जिले से पर्यावरण नियमों की अनदेखी की शिकायतें नहीं है, लेकिन विभाग के अधिकारी कार्रवाई के मूड बनाए, तब न। एक तो पर्यावरण विभाग के अफसर कुंभकर्णीय निद्रा में सोए रहते हैं, अब जब वह नींद से जागे हैं और जिले के ढाई दर्जन क्रशरों को मापदंडों का पालन नहीं करने की दुहाई देकर बंद करने का फरमान जारी किया गया। इसके बाद उन क्रशरों को कुछ दिनों बाद बहाल कर दी गई। पर्यावरण विभाग के अधिकारियों की इस गुपगुप निर्णय से कई तरह के सवाल उठने स्वाभाविक हैं, क्योंकि जांच में पर्यावरण विभाग ने ही पाया कि क्रशर प्रबंधन नियमों में हिला-हवाला कर रहे थे। ऐसी स्थिति में एकाएक यही क्रशरें भला, कैसे मापदंड में खरे उतर गए ? विभाग के अधिकारी अब यही सफाई दे रहे हैं कि क्रशरों की बिजली काटी नहीं गई और बाद में संचालकों ने, जो मापदंड है, उसे पूरा कर लिया। हालांकि, यह किसी भी तरह से गले नहीं उतरता, क्योंकि जिन क्रशरों में बरसों से पर्यावरण नियमों को कुचलने की बात सामने आती रही हो, जांच में यह साफ तौर पर उजागर हुई हो, उसके बाद भी पर्यावरण विभाग के अधिकारी दरियादिली पर उतर आए, इससे तो उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठना, स्वाभाविक ही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि अधिकारी कहते हैं, वे समय-समय पर जांच करते हैं और कार्रवाई करते हैं, मगर यह बात छिपी नहीं है कि केवल क्रशर संचालकों को नोटिस थमाई जाती है और बाद में मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। ऐसे में विभाग के अधिकारियों की भूमिका को कैसे पाक-साफ बताया जा सकता है ?
यहां बताना लाजिमी है कि कुछ महीनों पहले पर्यावरण विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर के अधिकारियों की टीम ने जिले के सैकड़ों क्रशरों की जांच की थी। बताया जाता है कि टास्क फोर्स की बैठक में इसकी शिकायत आने के बाद कलेक्टर के निर्देश पर जांच की गई, मगर नोटिस देने के बाद कार्रवाई नहीं किया जाना और न ही किसी तरह का जुर्माना किए बिना, क्रशर को प्रारंभ रहने की छूट दिया जाना, कहां तक सही है ? जांच करने के बाद अभी जून के अंतिम सप्ताह में पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने कई किस्तों में नोटिस जारी किया। इसकी प्रतिलिपि कलेक्टर के साथ खनिज विभाग को भी भेजी गई। चार से पांच बार अलग-अलग खेप में भेजे गए नोटिस में 31 क्रशरों को बंद करने का आदेश जारी किया गया। आदेश में कहा गया कि क्रशरों की पिछले दिनों जांच की गई, जिसमें ये क्रशर पर्यावरण शर्तों के उल्लंघन करते पाए, इसलिए इसे बंद किया जाए। इसके साथ ही विद्युत मंडल के कार्यपालन अभियंता को भी इस आशय का पत्र लिखा गया कि वे इन क्रशरों की बिजली काटी जाए। इसे पर्यावरण विभाग की कार्रवाई कहंे कि खानापूर्ति का ड्रामा, ऐसा कुछ दिनों तक चलता रहा।
जिन 31 क्रशरों को बंद करने के आदेश जारी किया गया था। इनमें बिरगहनी के सबसे अधिक क्रशर थे, इसके बाद तरौद के रहे। पामगढ़ इलाके के भी क्रशरों पर गाज गिरने वाली थी, मगर मजेदार बात यह है कि इन क्रशरों को यह कहकर बहाल कर दिया गया है कि संचालकों ने सभी शर्ताें व मापदण्डों की पूर्ति कर ली है, किन्तु एक सवाल यहां हर किसी के दिमाग में कौंध सकता है कि जिन क्रशरों को महीनों तक मापदण्डों के खिलाफ बताया जाता रहा हो, वही अचानक बिना गड़बड़झाले का डिब्बा बन जाए ? पर्यावरण विभाग के अधिकारी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि विद्युत मंडल द्वारा क्रशरों की बिजली काटने में देरी किए जाने से क्रशर संचालकों को मौका मिल गया और उन्होंने पूरी व्यवस्था दुरूस्त कर ली। साथ ही जो खामी थी, उसे पूरा कर लिया। ऐसे हालात में यही कहा जा सकता है कि क्रशर संचालकों को छूट दे दी गई है, क्योंकि जिन क्रशरों को मापदंडों पर खरे बताकर बख्श दिया गया है, वहां छापामार कार्रवाई कर जांच की जाए तो दूध का दूध व पानी का पानी हो जाएगा। कहने का मतलब, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने जांच महज खानापूर्ति के लिए की, उसके बाद कार्रवाई का नोटिस भी मसखरा करते थमा दिया गया, क्योंकि यह तो समझ में आता है कि इतने कम समय में पर्यावरण की शर्ताें को पूरा करना मुश्किल ही है ? परंतु कागजों में कोई काम मुश्किल नहीं होता, इस बात को सिद्ध कर दिखाया है, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने।
पर्यावरण विभाग बिलासपुर के क्षेत्रीय अधिकारी डा. सी.बी. पटेल की मानें तो क्रशरों में धूल, पानी का छिड़काव तथा टिन का ढक्कन लगाने संबंधी कमियां पाई गई थी। उसके बाद क्रशर संचालकों ने कार्रवाई के डर से सभी कमियों को दूर कर लिया। सवाल यहां यही है कि आखिर महीनों-बरसों तक पर्यावरण विभाग की टेढ़ी आंखें क्रशरों पर क्यों नहीं पड़ी ? अब जब, टास्क फोर्स की बैठक में दबाव पड़ा तो कार्रवाई के नाम पर कागज, काले कर दिए गए और बाद में लीपापोती भी कर दी गई। ऐसी स्थिति में पर्यावरण की सुरक्षा कैसे होगी ? यह यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ, क्योंकि जिले में पर्यावरण की अनदेखी सामान्य सी बात हो गई है। जहां क्रशर स्थित है, उन इलाकों में गुजरते ही आंखों में कंकड़ घुस जाता है। इस बात से भी जिले के अधिकारी वाकिफ हैं और पर्यावरण के भी अफसर। नेत्र विशेषज्ञ भी इसे आंखों के लिए खतरनाक मानते हैं, मगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बैठे ठेकेदारों को कौन समझाए ? वे तो क्रेशर संचालकों पर दिल खोले बैठे नजर आते हैं।
क्रशर संचालकों द्वारा ‘सुरक्षा’ का भी ख्याल नहीं रखा जाता, इसीलिए कभी पट्टे में फंसकर मजदूर की मौत होती है तो कभी किसी और कारण से। अकलतरा क्षेत्र के क्रशरों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जिसे हर स्तर पर दबाने की कोशिश की जाती है। जब इन घटनाओं का खुलासा हो जाता है, उसके बाद हर हथकंडे आजमा कर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। जाहिर यह, अफसरों की मिलीभगत का परिणाम होता है।

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