गुरुवार, 24 मई 2012

कांग्रेस की गुटबाजी और राहुल का पाठ

अभी हाल ही में कांग्रेस के ‘युवराज’ राहुल गांधी, जब राजधानी रायपुर आए तो छग के कांग्रेसियों में उत्साह भरने की उन्होंने भरसक कोशिश की और वरिष्ठ नेताओं को राहुल, पाठ भी पढ़ा गए कि गुटबाजी से कुछ नहीं होगा। बस, आने वाले कई बरसों तक कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकेगी ? कांग्रेस के नेता अधिकतर आलापते रहते हैं कि कांग्रेस में गुटबाजी नहीं है, मगर समय-समय पर यह खुलकर सामने आती रहती है। कभी नेताओं के बयानों से तो कभी कार्यक्रमों में एक-दूसरे से कन्नी काटते हुए। खैर, युवा बिग्रेड में राहुल गांधी के छत्तीसगढ़ आने से उत्साह भर आया है। इसका कारण भी है, उन्होंने वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह सीधे तथा तीखे शब्दों के साथ ‘संभल’ जाने की बातें कही और युवाओं को आगे आने की बात कहीं, इसके बाद तो कई कांग्रेस के युवा नेताओं ने हुंकार भरना भी शुरू कर दिया है।
छत्तीसगढ़ की सत्ता में कांग्रेस की लुटिया डूबने का बस एक ही कारण नजर आता है, वह है बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी। जितने बड़े नेता, उतने फाड़। जब छग का निर्माण हुआ, उस दौरान पूरी बहुमत के साथ कांग्रेस ने सरकार बनाई, उसके बाद तो जैसे कांग्रेस को गुटबाजी का दीमक ही चट कर गया। कांग्रेस के नेता गुटबाजी की बातों को हमेशा नकारते हैं, मगर राहुल गांधी ने किसी की परवाह किए बगैर ‘चेता’ ही दिया कि अब सुधर जाओ, नहीं तो सत्ता की चाबी नहीं मिलेगी। राहुल गांधी ने इस बात पर भी जोर दिया कि कार्यकर्ता चुनाव जिताते हैं और जब सत्ता हाथ नहीं आती, उसके बाद सबसे ज्यादा निराशा कार्यकर्ताओं को ही होती है।
छग के निर्माण के बाद बीते 11 बरसों में केवल ढाई बरस ही कांग्रेस सत्ता में रही, वह भी बंटवारे के हिस्से के सहारे। छग में पहली बार चुनाव हुआ, उसके बाद कांग्रेस की जमीं खिसक गई। इसमें भी कभी कांग्रेस में रहे नेताओं ने ही ‘कांग्रेस’ की दुर्गति की और सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस चाहती तो गुटबाजी और आपसी खींचतान को भूलकर सत्ता में वापसी कर सकती थी, मगर कांग्रेस की कलह से भाजपा को सत्ता मिल गई। हालात यह रहे कि भाजपा ने उस सत्ता सुख को जमकर भुनाया और इसमें सबसे बड़ा योगदान दिया, कांग्रेसियों ने। एक-दूसरे से लड़कर कांग्रेसियों ने भाजपा की राह आसान कर दिया।
यह बात भी छिपी नहीं है कि छग विधानसभा के बीते दो सत्रों को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस कभी विपक्ष की भूमिका में नजर आई ही नहीं। राज्य की भाजपा सरकार को घेरने में कांग्रेस फिसड्डी ही साबित होती रही। हाल के सत्रों में जो मुद्दे कांग्रेस के हाथ लगे, उनमें से भी अधिकतर कांग्रेस के हाथों में ऐसे ही आ गए। इतना जरूर है कि उसे भुनाने की भरसक कोशिश की गई और सरकार को घेरने में कामयाब भी रही, मगर इतना जरूर है कि कांग्रेस को जिस सशक्त विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए थी, वह नहीं निभा सकी है। यहां भी कांग्रेस की गुटबाजी और आपसी कलह ही उनके दुश्मन साबित हुई। चुनावों में विपक्षी दल के प्रतिद्वंदी भले ही होते हैं, मगर कांग्रेस को पीछे ढकलने के उनके अपने ही काफी होते हैं। यह बात भी उनकी आपसी खींचतान से जगजाहिर होती रहती है।
छग में जब विधानसभा चुनाव 2003 में हुए, उस दौरान कांग्रेस सत्ता में थी, मगर कुर्सी एवं वर्चस्व की लड़ाई के चलते कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विद्या चरण शुक्ल ने एनसीपी में शामिल होकर चुनावी रणभेरी में कांग्रेसियों को पसीने से तर-बतर कर दिया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में अहम भूमिका निभाई, क्योंकि जितनी सीटों की कांग्रेस को जरूरत थी, उतनी सीटें तो एनसीपी ने कांग्रेस प्रत्याशियों को हराने में अहम भूमिका अदा की। इनमें से अधिकतर वे नेता थे, जो कांग्रेस का दामन छोड़कर, एनसीपी के हो लिए थे। 90 सीटों में एनसीपी, बड़े जोर-शोर से चुनाव लड़ी और अधिकतर जगहों पर एनसीपी की टिकट पर कांग्रेस के ही बागी नेताओं ने चुनाव लड़े। इसमें महज एनसीपी के खाते में चंद्रपुर विधानसभा सीट ही आई, वह भी एनसीपी के दम पर नहीं, बल्कि प्रत्याशी के व्यक्तिगत दमखम पर। स्थिति यह रही कि कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई और उसके बाद जो पतन का काल चल रहा है, उस पर घी डालने का काम, कहीं न कहीं कांग्रेस के नेता ही कर रहे हैं। इस बात को स्वीकार करते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को सबक दिया है, उससे उन्हें सीखने की जरूरत है, तभी तो वे सत्ता सुख के भागी बन सकते हैं, नहीं तो सत्ता की ओर निहारते रहेंगे और सत्ता, पिछली दो बार की ही तरह खिसकती रहेगी।
राहुल गांधी ने यही बात कही है कि कांग्रेस खुद से हारती है। यह बात भी हमेशा चर्चा में रहती है कि कई तथाकथित कांग्रेसी, जितनी मेहनत अपने ही दल के प्रत्याशी को हराने में करते हैं या फिर कांग्रेसी, एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर गुटबाजी को हवा देने में ऊर्जा लगाते हैं, उसी तरह एकजुटता का पाठ पढ़ लें तो कांग्रेस का भला हो जाएगा। ऐसी ही कुछ बात राहुल गांधी ने कहकर नेताओं को समय रहते ‘चेत’ जाने की बात कही है।
मजेदार बात यही है कि कांग्रेस ने सत्ता का स्वाद, भाजपा को चखा दिया है और वे जान भी गए हैं कि कैसे प्रदेश की जनता को साधना है। भाजपा की सरकार बनने के बाद ऐसा नहीं है कि भाजपा में कलह सामने नहीं आई है, मगर कांग्रेसियों को जिस तरह की टांग खींचने की परिणति के चलते सत्ता से दूर होकर भुगतनी पड़ रही है, उस तरीके के हालात फिलहाल भाजपा में नहीं है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कांग्रेस के हाथों-हाथ दिए मौके को भुनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। उन्हें विश्वास भी है कि भाजपा की हेट्रिक बनेगी और मिशन 2013, एक बार फिर भाजपा फतह करेगी।
जो भी हो, छग में हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों की अपेक्षा इस बार का चुनाव काफी दिलचस्प होगा, क्योंकि कांग्रेसियों को भी अब समझ में आ गया है कि सत्ता से दूरी की क्या कीमत चुकानी पड़ती है। लिहाजा सत्ता की आश में, न चाहते हुए भी कांग्रेस के नेताओं को एक मंच पर खड़ा होना होगा, जैसा कि राहुल गांधी ने पाठ पढ़ाया है।

रविवार, 29 जनवरी 2012

नकल, एक और कालिख ?

निश्चित ही छत्तीसगढ़ विकास की दिशा में अग्रसर हो रहा है, लेकिन कई रोड़े भी नजर रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बदलाव के कारण यहां की प्रतिभाएं निखर कर सामने रही हैं। फिर भी शिक्षा नीति में कई बदलाव की जरूरत है। इसमें सबसे बड़ी जरूरत है, छग को नकल के कलंक से मुक्त करना। ऐसा लगता है, जैसे छत्तीसगढ़ का नकल से चोली-दामन का साथ हो गया है, तभी तो एक मामले को भूले भी नहीं रहते, नकल के दूसरे मामले आंखों के सामने जाते हैं। ऐसी स्थिति में नकल की प्रवृत्ति को खत्म करने सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए, तभी प्रदेश की प्रतिभाओं का भला होगा। नहीं तो, प्रतिभाओं के हिस्से कोमुन्नाभाईआकर चट करते रहेंगे और इससे कहीं कहीं छग को ही नुकसान होगा। जाहिर सी बात है, ऐसे हालात में प्रतिभा पलायन भी होगा।
दरअसल, नकल का मामला एक बार फिर इसलिए गरमा गया है, क्योंकि पीडब्ल्यूडी सब इंजीनियर के लिए ली जाने वाली भर्ती परीक्षा में भी नकल के प्रकरण बने हैं और कई नकलची पकड़े गए हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही गई है, मगर इतने भर से काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि नकलचियों पर सख्ती नहीं बरतने का ही परिणाम है कि प्रतिभाओं का दम तोड़ने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। नकल को कहीं न कहीं हम नौकरी पाने तथा किसी परीक्षा में सफल होने के लिए ‘चोर दरवाजा’ ही मान सकते हैं। नकल के कारण प्रदेश की प्रतिभाएं ज्यादा बदनाम होती हैं, क्योंकि जब वे बाहर शिक्षा के लिए जाती हैं तो उन्हें हमेशा कमतर आंका जाता है, जिसका खामियाजा उन्हें अपने कॅरियर निर्माण में भी भुगतना पड़ता है। समय-समय पर सरकार तथा शासन में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं, लेकिन नकल पर रोक लगाने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जाते। लिहाजा, यह कृत्य रह-रहकर पुरानी बोतल से बाहर आते रहते हैं। नकल की दुष्प्रवृत्ति के घातक परिणाम से शिक्षाविद् आगाह भी करते हैं, लेकिन जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, उससे तो लगता है कि नकल की प्रवृत्ति, एक तबके के खून में समा गई है, क्योंकि उन्हें अपनी वैतरणी पार लगाने के लिए कोई दूसरा सहारा नजर नहीं आता। कहीं न कहीं, पीडब्ल्यूडी की परीक्षा में नकल का मामला सामने आने से प्रदेश की परीक्षा तथा शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर कालिख पूत गई है।
ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नकल के मामले पहली बार सामने आए हैं। कुछ बरसों की स्थिति को देखें तो प्रदेश में नकल की प्रवृत्ति ने व्यापक पैमाने पर पैर पसार लिया है। यही राज्य है, जहां बारहवीं व दसवी की बोर्ड परीक्षा की मेरिट सूची में गड़बड़ हो गई। इस प्रकरण से शिक्षा प्रणाणी तथा परीक्षा में बरती गई लापरवाही को लेकर प्रदेश का काफी छिछालेदर हुआ था। उससे पहले पीएससी की परीक्षा भी विवादों में रही है। इन मामलों के मध्य पर नजर डालें तो यही राज्य है, जहां पिछले साल प्री-पीएमटी की परीक्षा तीन बार आयोजित हुई। पीएमटी परीक्षा में फर्जीवाड़े ने सरकार को हिलाकर रख दिया, क्योंकि बिलासपुर जिले के तखतपरु में फर्जीवाड़े का खुलासा होने के बाद कई नामचीन लोगों के नाम आए, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों को परीक्षा पास कराने लाखों रूपये दिए थे। फिलहाल इस मामले में पुलिस जांच कर रही है, कुछ परीक्षार्थी पुलिस के हत्थे चढ़ गए हैं तो कुछ अपने रसूख तथा भूमिगत होने के कारण बचे हुए हैं। कई को कोर्ट से जमानत भी मिल गई है।
कुल-मिलाकर कहना यही है कि प्रदेश की शिक्षा की नींव, नकल के कारण कमजोर हो रही है। इसे मजबूत बनाने के लिए नकल माफिया से प्रदेश को बचाना होगा। शिक्षा के क्षेत्र में सतत् विकास हो रहा है, मगर जिस तरह नकल के सहारे तथा शॉर्टकट आजमाने की करतूत बढ़ती जा रही है। इसे विकास पथ पर अग्रसर प्रदेश के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है। नकल पर लगाम लगाने के लिए सरकार को ध्यान देना होगा। प्रदेश के कई जिले हैं, जहां के प्रतिभावान छात्र इसलिए भी शंका की नजर से देखे जाते हैं कि वे उस जिले से ताल्लुक रखते हैं, जहां नकल की शिकायतें हैं। यहीं पर प्रतिभाओं का मनोबल टूटता है। ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं सरकार और उनकी नीति जिम्मेदार मानी जा सकती है, क्योंकि देश, प्रदेश तथा समाज के हित में रोड़ा बन रही ‘नकल’ पर सरकार कहां रोक लगा पा रही है ? यदि ऐसा नहीं होता तो रह-रहकर नकल के मामले उजागर नहीं होते। सरकार की ढिलाई का ही नतीजा है कि ऐसे कृत्यों को बल मिल रहा है। आशा है कि सरकार, इस दिशा में सख्त निर्णय लेगी और प्रदेश की प्रतिभाओं को आगे लाने प्रयास करेगी, क्योंकि विकास के लिए शिक्षा की अहम भूमिका है, किन्तु ‘नकल’ बड़ा रोड़ा बनती जा रही है।