बुधवार, 29 मई 2013

बातों-बातों में...

‘मनभेद’ न पड़ जाए भारी
विधानसभा चुनाव के नजदीक है, लेकिन नेताओं में ‘मनभेद’ कायम है। नतीजा, सियासी गर्मी का पारा भी बढ़ने लगा है। दो विरोधी पार्टी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप राजनीति में स्वाभाविक नजर आती है, लेकिन अपने ही ‘अपने’ की कब्र खोदने लगे तो फिर ‘पार्टी’ का बंटाधार होना लाजिमी है। ऐसे नजारे, चुनाव के पहले ही नजर आने लगे हैं। एक-दूसरे को निपटाने, अभी से ही सियासी गणित बिठाए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि ये ‘मनभेद’ कितनी भारी पड़ सकती है ? हालांकि, कहने वाले कहते हैं कि ये तब होता है, जब एक-दूसरे से कोई भी ‘खुद’ को छोटा समझना ही नहीं चाहता।

साहब की ‘पड़ोसी’ मेहरबानी...
इतना सब जानते ही हैं कि एक पड़ोसी की कितनी अहमियत होती है। सुख-दुख में वे साथ होते हैं। इस मामले में हमारे साहब, कुछ हटके हैं। उन्हें पड़ोसी से क्या और कितना लाभ मिलता है, ये तो वे ही जानें, किन्तु पड़ोसियों के जरूर बल्ले-बल्ले हैं। जब से साहब ‘वहां’ से आए हैं, तब से पड़ोसियों की आवभगत जमकर हो रही है और उन पर साहब की मेहरबानी भी जगजाहिर हो गई है। यही वजह है कि साहब के ईर्द-गिर्द ‘पड़ोसी’ मंडराते रहते हैं। कभी यही पड़ोसी, ‘यहां’ झांकने तक नहीं आते थे। लगता है, लगाव का कारण कुछ खास है। आखिर यह तो सच है कि जहां ‘गुड़’ होगा, वहां ‘मक्खी’ तो भिनभिनाएंगे ही...।

...आपका ये दिलवालापन
शिक्षा ‘सर्व’ पहुंचाने की जिस साहब पर जिम्मेदारी है, उनका दिलवालापन का क्या कहें...। उनकी समझ में तो शासन की सारी योजनाएं ही बंदरबाट के लिए बनी है। उनके ‘दिलवालेपन’ का शुरूर चढ़े तो वे शासन का ही ‘दिवाला’ निकाल दे। तभी तो चंद रूपये की नहीं, लाखों के बाद, अब वे करोड़ों के ‘खिलाड़ी’ साबित हो रहे हैं। बंदरबाट में निश्चित ही उनकी कोई सानी नहीं है, जितना कर दे, कम है। लगता है कि शासन के पैसे को वे खुद का समझते हैं, न कोई नियम, न कायदे। जहां चाहो, जैसे चाहो, अपने तरीके से खर्च कर डालो। कोई पूछने तो आएगा नहीं, जो आएगा, उन्हें भी ‘दो-चार’ देकर चलता कर दो। साहब के ‘खाओ-खिलाओ’ का पाठ खूब पढ़ा जा रहा है, यह कब तक पढ़ा जाएगा, इसकी भी खूब चर्चा जरूर हो रही है।

उनकी ‘लाइन’ का दर्द
सुरक्षा वाले एक साहब, कहा करते थे, वे कभी ‘लाइन’ में नहीं रहे। उनकी ‘चाहत’ अब पूरी हो गई है। ऐसा लगता है, जैसे अंतिम छोर में होने की वजह से कुछ ज्यादा ही बे-लगाम हो गए थे, जिसके बाद बड़े साहब ने उन पर ‘लाइन’ की लगाम डाल दी। अब उन्हें ‘लाइन’ का दर्द सालने लगा है। जहां थे, वहां के रौब के सामने लाइन का काम उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे बड़े चिंतित हैं। अब करे तो क्या करें, बड़े साहब से मनमुटाव का नतीजा भोगना पड़ता है। खैर, वे ‘लाइन’ को काफी याद किया करते थे, इसलिए कुछ उन्हें ‘लाइन’ का मजा भी ले लेना चाहिए। फिर पता चलेगा कि लाइन में ‘मलाई’ का आनंद है या फिर वहां, जहां रहते आए हैं।

सोमवार, 20 मई 2013

बातों-बातों में...

घोटालों का मिशन
स्वतंत्रता के समय ‘मिशन’ का मतलब कुछ और था, मगर आज मिशन की परिभाषा ही बदल दी गई है। जिस विभाग को शिक्षा के विकास का मिशन पूरा करने की जिम्मेदारी दी गई है, वह तो घोटालों के मिशन की फेहरिस्त लंबी करता जा रहा है। वैसे कागज रंगने से किसी गरीब का पेट नहीं भरता, लेकिन मिशन वाले अफसरों की जेबें जरूर भरती हैं। इसीलिए कभी ‘व्हाइट’ तो कभी ‘बिजली’ से जेबें गर्म होती हैं। बिजली से सभी को करंट लगता है, परंतु मिशन के साहब हैं कि उन्हें बिजली व व्हाइट से ही खासे लगाव हैं।

लगा लो एड़ी-चोटी...
विधानसभा चुनाव होने में 6 महीने बचे हैं, लेकिन सियासी पारा अभी से चढ़ गया है। कई टूटपूंजिए नेता भी अपनी साख बताकर, टिकट के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। देखने वाली बात होगी, उनका चुनावी बुखार कब तक उतरता है ? निश्चित ही, जब टिकट का दौर खत्म हो जाएगा और किसी एक नाम पर मुहर लग जाएगी। इसके बाद शुरू होगा, हराने-जिताने एड़ी-चोटी का खेल। दम-खम का खेल, जो अभी शुरू हुआ है, वह आगे भी जारी रहेगा। मजे लेने वाले तक खूब मजे ले रहे हैं। खेल कोई और रहा है, खिलाड़ी कोई और है, देखने वाले दर्शक तो मजे लेंगे ही न।

...कब सुधरोगे महोदय
पढ़ाई-लिखाई वाले साहब को ‘शिक्षा’ को अग्रसर करने के बजाय ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ खेलने में बड़ा मजा आता है। पहले भी जब वे तैनात थे तो फर्नीचर का खेल खूब खेला गया। एक बार फिर वही खेल, खेलने की तैयारी पूरी कर ली गई है। लकड़ी, भला किसे सौगात दे सकती है, परंतु ये साहब तो पत्थर से भी पानी निकालने वाले हैं। लिहाजा, लकड़ी से भी पैसे का रस निकालने में भी माहिर हैं। ऐसे में उनका पूरा अनुभव है, जिसका लाभ उठाने की एक बार फिर जुगत भिड़ा दी गई है और इस तरह ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ का खेल दोबारा शुरू हो गया है। यही वजह है कि उन्हीं के कई बंदे कहने लगे हैं, ...कब सुधरोगे महोदय।

नेेता बनाम सपनों के सौदागर
जिले में कुछ नेता, राजनीति कम करते हैं, वे सपनों के सौदागर बनकर ज्यादा घूमते हैं और राजनीति का झोला ओढ़कर ‘सपने’ बेचने का काम करते हैं। कोई बेरोजगार दिखा नहीं कि शुरू हो गए, उन्हें नौकरी का सब्जबाग दिखाने। इस तरह सपनों के सौदागर बनकर लाखों रूपये का जुगाड़ भी हो जाता है। देखा जाए तो सपना देखने से कुछ मिलता नहीं है, लेकिन वे नेता, सपनों की सौदागरी में इतने माहिर हैं कि बेरोजगारों को दिन के सपने भी सच लगते हैं और फिर नौकरी की खातिर सौंप देते हैं, अपनी जीवन भर की कमाई। हालांकि, सपने पूरे होने के पूरे दावे किए जाते हैं, लेकिन गारंटी कुछ नहीं होती। सपनों को बेचने का ताना-बाना बुनने का तमाशा,  अरसे से चल रहा है, क्योंकि नेतागिरी की गाड़ी को ‘ईंधन’ यहीं से मिलता है।

शुक्रवार, 17 मई 2013

बसपा में टिकट के लिए माथापच्ची

जांजगीर-चांपा। बसपा में अक्सर देखा गया है कि शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव में जो नाम तय कर लिया, वही पार्टी का उम्मीद्वार होता है। चुनाव के पहले भी किसी तरह की लॉबिंग नजर नहीं आती थी, लेकिन अब कांग्रेस व भाजपा की तरह बसपा में भी टिकट के लिए लॉबिंग शुरू हो गई है। बसपा के वरिष्ठ नेताओं ने तो प्रदेश के सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही है। जिले की बात करें तो 6 सीटों में से 3 के लिए प्रत्याशी के नाम का चयन हो गया है, मगर 3 सीटों पर पार्टी के नेताओं में ही रस्साकस्सी शुरू हो गई है। साथ ही बसपा के स्थानीय नेताओं ने अपनी जीत के दावे के साथ, शीर्ष नेतृत्व को साधना शुरू कर दिया है। इस दौरान जीत के दावे के अलावा राजधानी रायुपर तक चक्कर लगाए जा रहे हैं। इस तरह बसपा में भी टिकट की माथापच्ची शुरू हो गई है। जांजगीर-चांपा विस से पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता व जिला पंचायत के पूर्व सदस्य मेलाराम कर्ष की दावेदारी के बाद, अन्य संभावित उम्मीद्वारों की नींद हराम हो गई है, क्योंकि श्री कर्ष, बसपा के साथ बरसों से जुड़े हुए हैं और जमीनी स्तर के कार्यकर्ता माने जाते हैं। लिहाजा, बसपा की राजनीति में अचानक ही हलचल बढ़ गई है।
इधर जिले की सीटों पर बसपा की खास नजर है, क्योंकि वर्तमान में पार्टी के 2 विधायक काबिज हैं। साथ ही पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा के कई प्रत्याशियों ने विधानसभा चुनाव में दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। यही वजह रही कि पामगढ़ के सीटिंग एमएलए दूजराम बौद्ध के साथ ही जैजैपुर से केशव चंद्रा और सक्ती विधानसभा से सहसराम कर्ष का नाम पहले से ही तय हो गया है। इसके इतर अकलतरा, जांजगीर-चांपा व चंद्रपुर विधानसभा सीटों से नाम फाइनल होना शेष है, जिसके लिए संभावित उम्मीद्वारों ने जोर आजमाइश शुरू कर दी है।
छग में बहुजन समाज पार्टी ने नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए प्रत्याशियों के नाम की पहली सूची जारी किया और निश्चित ही चुनावी तैयारी में आगे रही। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति में राजधानी रायपुर से लेकर कई अन्य शहरों में भी बसपा की बैठकें होने की खबर है। पिछले दिनों पार्टी के वरिष्ठ नेता राजाराम का बयान आया है कि जिन सीटों पर नाम तय नहीं हुआ है, उसमें मई अंत तक फैसला ले लिया जाएगा। यही कारण है कि जिले की, जो 3 सीटों पर नाम तय नहीं हुआ है, उसके लिए दावेदारों के साथ ही, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में माथापच्ची शुरू हो गई है, क्योंकि जीत के दावे सभी दावेदार कर रहे हैं। ऐसे में सशक्त व जीत दर्ज कर बसपा का परचम लहरा सकने वालों पर, वरिष्ठ नेताओं की नजर बनी हुई है।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कुछ सीटों में प्रत्याशी चयन में चूक हुई थी, जिसकी वजह से पार्टी को काफी नुकसान हुआ। हालांकि, वरिष्ठ नेता इस बात से भी संतुष्ट नजर आते हैं कि पामगढ़ व अकलतरा की सीट बसपा की झोली में आई और जैजैपुर, सक्ती तथा चंद्रपुर में पार्टी प्रत्याशियों ने जमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। यहां तक जैजैपुर विस में तो बसपा के प्रत्याशी केशव चंद्रा ने दूसरा स्थान हासिल कर राजनीतिक गणित को ही बदल दिया था एवं सत्ताधारी दल भाजपा के प्रत्याशी निर्मल सिन्हा को तीसरे स्थान पर ढकेल दिया। इस तरह पिछले चुनाव की तरह ही जिले में पूरी मजबूती के साथ बसपा के उतरने के दावे, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा भी किए जा रहे हैं। महीनों पहले जांजगीर के हाईस्कूल मैदान में बसपा का बड़ा सम्मेलन भी आयोजित हुआ था, जहां कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने पार्टी महासचिव राजाराम पहुंचे थे। साथ ही कई वरिष्ठ नेता भी उपस्थित थे। इस दौरान भी पार्टी का डंका विधानसभा चुनाव में बजाने के लिए कार्यकर्ताओं ने जोर-शोर से संकल्प लिया था। ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनाव में कई सीटों पर चुनावी गणित को बिगाड़ने में, बसपा कामयाब हो सकती है। दूसरी ओर पामगढ़ में बसपा काफी मजबूत स्थिति में नजर आ रही है। यदि वहां कांग्रेस व भाजपा ने प्रत्याशी चयन में चूक की तो पामगढ़, एक बार फिर बसपा की झोली में जा सकती है। अन्य सीटों पर भी बसपा कड़ी टक्कर देने की स्थिति में नजर आ रही है। अब देखने वाली बात होगी कि आने वाले दिनों में जिले का राजनीतिक परिदृश्य क्या होता है ? और बसपा को कितना नफा या नुकसान होता है ?

बसपा मुक्ति मोर्चा का भी पड़ेगा प्रभाव
बहुजन समाज पार्टी से निष्कासित किए जाने के बाद पूर्व प्रदेशाध्यक्ष दाऊराम रत्नाकर ने ‘बहुजन समाज मुक्ति मोर्चा पार्टी’ बनाया है और कार्यकर्ताओं को जोड़ना भी शुरू कर दिया है। बताया जाता है कि बसपा के अधिक कार्यकर्ता ही, उनके साथ आ रहे हैं, क्योंकि पार्टी में कई दशकों तक उनका दखल बना हुआ था। बसपा के अनेक कार्यकर्ता, बसपा मुक्ति मोर्चा के साथ, चुनाव नजदीक आने पर ताल ठोंक सकते हैं, हालांकि अभी सीधे तौर पर श्री रत्नाकर के साथ वे नजर नहीं आ रहे हैं। इतना जरूर है कि बसपा से जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगी, उनकी बसपा मुक्ति मोर्चा के जुड़ने की संभावना अधिक जतायी जा रही है।
जांजगीर में पिछले दिनों प्रेस कांफ्रेस आयोजित कर श्री रत्नाकर ने विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों को उतारने की बात कही थी। उनकी जिले की सीटों पर खासी नजर है, क्योंकि वे यहां से बिलांग करते हैं। बरसों तक बसपा में यहीं से राजनीति करते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि बसपा की तर्ज पर बसपा मुक्ति मोर्चा की भी विचारधारा स्व. कांशीराम से ओत-प्रोत है। ऐसे में ‘एक विचारधारा और दो पार्टी के काम्बिनेशन’ को मतदाता कितना तवज्जो देंगे, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा ?

अकलतरा से कौन होगा बसपा प्रत्याशी ?
अकलतरा विधानसभा से बसपा की टिकट पर सौरभ सिंह चुनाव जीते थे। हालांकि, वे चुनावी जीत के बाद से ही बसपा से कटे-कटे रहे। पार्टी कार्यक्रमों से भी उनका किनारा रहा। चर्चा है कि अकलतरा विधायक श्री सिंह, कांग्रेस में शामिल होंगे। इसके लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सीढ़ी तैयार कर ली है। अब सवाल यह है कि बसपा, अकलतरा विधानसभा सीट से इस बार किसे अपना प्रत्याशी बनाएगी ? ठीक है, क्षेत्र में कई ऐसे कार्यकर्ता होंगे, जो पार्टी के लिए बरसों से काम करते रहे होंगे, मगर चुनाव जीतने में, क्या वे कामयाब होंगे ? ऐसी कई बातें रहेंगी, जिस पर गौर करके ही पार्टी, टिकट देगी। वैसे भी सभी की नजर अभी अकलतरा विधानसभा सीट पर है, क्योंकि बसपा से सौरभ सिंह ने अलविदा करने का पूरी तरह मन बना लिया है, केवल ‘कांग्रेस प्रवेश’ की औपचारिक घोषणा ही बाकी रह गई है। दूसरी ओर बसपा के वरिष्ठ नेता राजाराम ने रायपुर में मीडिया को जारी बयान में अकलतरा विधायक श्री सिंह पर कड़ी टिप्पणी की हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि बसपा की राजनीतिक फिजां भी गरमा गई है।

रविवार, 12 मई 2013

’कांग्रेस’ हित में नहीं, ये नीति ?

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, राज्य निर्माण के पहले जितनी सशक्त थी, अपनी नीतियों की वजह से कुछ बरसों में कमजोर होती गई। यही वजह रही कि कांग्रेस के ‘हाथ’ से सत्ता भी खिसक गई और उसके बाद पिछले 9 बरसों से कांग्रेस व कांग्रेसी, वनवास झेल रहे हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के हालात सुधरे नहीं हैं। इतना जरूर है कि पहले की स्थिति से कांग्रेस मजबूत हुई है, किन्तु चुनाव के पहले, जिस तरह की नीति अपनायी जा रही है, वह कहीं कांग्रेस के लिए ही घातक साबित न हो जाए ? वैसे तो सभी पार्टियों में देखने में आता है कि ऐन चुनाव के पहले रूठों को मनाया जाता है, या फिर जिन्होंने किसी कारण से पार्टी से दूरी बना ली थी, उनके लिए पार्टी में आने के द्वार खोल दिए जाते हैं। सबसे अहम सवाल यही है कि क्या, ऐसे लोगों से पार्टी का भला हो पाता है ? पुराने रेकार्ड को भी खंगाला जाए तो बहुत कम ही ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिसमें कभी विरोध में रहे नेताओं के ‘साथ’ आने से पार्टी को लाभ हुआ हो ? अधिकतर मामलों में पार्टियों को नुकसान ही होता है। पता नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता अपनी किस रणनीति के तहत ऐसे निर्णय लेते हैं, जो पार्टी के कदम को अग्रसर करने के बजाय, रोड़ा साबित होता है।
2000 में जब छत्तीसगढ़, अलग राज्य बना, उस दौरान कांग्रेस को विधायकों की अधिक संख्या की वजह से चुनाव के बगैर ही, सरकार बनाने का मौका मिला। निश्चित ही, इस समय कांग्रेस का वर्चस्व कायम था। सरकार बनने के बाद भी कांग्रेस की साख कमजोर नहीं हुई थी, लेकिन कांग्रेसियों के मध्य ही आपसी कलह के कारण ही, कांग्रेस को सत्ता से दूर होना पड़ा, जो वनवास अब भी जारी है। उस दौरान कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, पार्टी से बगावत करके राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। उनके साथ छग के सैकड़ों बड़े चेहरे भी हो लिए और प्रदेश की सभी 90 सीटों पर चुनाव भी लड़ा गया। आलम यह रहा कि कांग्रेस को चारों-खाने चित्त करने में ‘बागी कांग्रेसियों’ का हाथ रहा। इस तरह भाजपा को सत्ता का स्वाद चखने का मौका मिल गया, जिसे 2003 के बाद, 2008 के चुनाव में भी भुनाया गया। इस दौरान भी कांग्रेसी, एक-दूसरे को हराने में लगे रहे। कहने का मतलब यही है कि कांग्रेस, खुद से हारती है, इसके लिए उसकी नीति ही जिम्मेदार मानी जा सकती है। बाद में विद्याचरण शुक्ल ने भाजपा में शामिल होकर महासमुंद से लोकसभा चुनाव भी लड़ा, उस दौरान भी अनेक ‘कथित कांग्रेसी’ उनके साथ रहे। बावजूद, कांग्रेस में उनकी वापसी हुई और उनके साथ फिर वही कांग्रेसी, वापस आए, जो कभी ‘पंजा’ के खिलाफ वोट डालने के लिए गांव-गांव, घर-घर पहुंचे थे।
कांग्रेस, किन नेता को ‘कल का भूला’ बताकर, पार्टी में शामिल करती है, यह उनके अंदरूनी मामले हो सकते हैं, लेकिन कांग्रेस आलाकमान, पार्टी हित में यदि सोचे तो समझा जा सकता है कि जिन नेताओं ने कांग्रेस को कमजोर किया और पार्टी के खिलाफ जाकर चुनावी बिगुल फूंका, वैसे नेताओं की खिदमतगारी, कांग्रेस के हित में नहीं मानी जा सकती। एक तरह से कहें तो कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई, ऐसे लोगों की वापसी से कांग्रेस का, कितना भला होगा, बड़ा सवाल है ? कई बार कांग्रेस में शामिल होने वालों को ‘कांग्रेसी मूल विचारधारा’ के होने का हवाला दिया जाता है, किन्तु ऐसा तर्क गढ़ने वाले कांग्रेसी नेता, यह बता नहीं पाते कि वैसे ‘बागी’ लोगों की कांग्रेस में वापसी से पार्टी को कितना लाभ होगा ? हमारा मानना है कि जिन्होंने पार्टी को गर्त में ढकेला और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया, ऐसे लोगों के ‘मनुहार’ को लेकर कांग्रेस के हाईकमान को जरूर सोचना चाहिए। निश्चित ही, जब भी किसी बागी नेता की पार्टी में वापसी होती है तो उसमें हाईकमान की सहमति होती है, किन्तु यह भी सही है कि कई बड़े नेता, क्षेत्रीय स्थिति की सही जानकारी न देकर, भ्रम में रखकर तथा वापसी को पार्टी हित में बताकर साथ ले लेते हैं, किन्तु धरातल पर हालात अलग होते हैं, जिसका नतीजा, कांग्रेस की हार के तौर पर सामने आता है। छग में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब कांग्रेस को ऐसी स्थिति में नुकसान हुआ है और कांग्रेस के कई कर्मठ सिपहसालारों का भी अहित हुआ है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को ऐसे हालात बनने और बनाने से बचना चाहिए, तब कहीं जाकर ‘सत्ता की चाबी’ हाथ आ सकती है और 10 साल के ‘वनवास’ से बेड़ा पार लग सकता है।
राहुल गांधी, साल भर पहले जब रायपुर पहुंचे थे, तो उन्होंने कांग्रेसियों को रिचार्ज किया था और कई बातें पार्टी हित में कही थी, लेकिन लगता है कि उन बातों का असर कांग्रेसी कर्ता-धर्ताओं को नहीं हुआ है, तभी तो कई निर्णय हैं, जिसे लेने से कांग्रेस का हित नहीं हो सकता, वैसे ही निर्णय लेने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। दूसरी बात, राहुल गांधी, जब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने, उस दौरान उन्होंने सत्ता पाने के लिए कांग्रेसियों की आंख खोल देने वाली कई बातें कही थी। बावजूद, छग में कांग्रेस को मजबूती देने के बजाय, कुछ ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं या लिए जाने के संकेत दिए जा रहे हैं, जो पार्टी को सत्ता की राह पर जाने से ही रोक सकते हैं। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि पार्टी को मजबूत करना है तो युवा और उन ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को सामने लाओ, चुनाव में उनको मौका दो, जो पार्टी हित में बरसों से काम करते आ रहे हैं, उन्हें नहीं, जो पार्टी की राह से ही भटकर कहीं और का दामन थाम लिया हो। उन्होंने सीधे तौर पर कहा था कि जिन्होंने पार्टी के प्रति पूरी वफादारी दिखाई हो। पार्टी को कभी पिठ न दिखाई हो या कहें, कांग्रेस को गर्त में डूबोने का काम न किया हो। ऐसे कांग्रेस कार्यकताओं को आगे लाने का काम होना चाहिए। राहुल गांधी की बातों को कांग्रेसी, आत्मसात करने के दावे करते हैं, लेकिन दिल्ली में कही उन बातों का वजन, छग आते-आते कमजोर हो जाता है। निश्चित ही, छग में कांग्रेस व कांग्रेसी, सत्ता तो चाहते हैं, लेकिन उन नीतियों पर अमल नहीं किया जाता, जिससे होकर ‘सत्ता’ का रास्ता तैयार होता है।
खैर, विधानसभा चुनाव तो नवंबर में होना है, मगर छग कांग्रेस द्वारा लिए जा रहे कुछ निर्णय, जरूर कांग्रेस के ही अंदरूनी धड़ों के मन में असंतोष पैदा कर रहा है। कहा जाता है कि ‘दूध का जला, छांछ को भी फूंक-फूंककर पीता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह ‘कहावत’ बेमानी नजर आती है, तभी तो वही गलतियां बार-बार दोहरायी जा रही हैं, ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं, जो पार्टी हित में नहीं हो सकते। यही कहा जा सकता है कि कांग्रेसी, सत्ता हासिल करने की बात तो करते हैं, लेकिन राहुल गांधी या हाईकमान की बातों की बेपरवाही करके। ऐसे में यदि कांग्रेस, इस बार के विधानसभा चुनाव में भी मात खाती है तो फिर उनकी वही नीतियां ही जिम्मेदार होंगी, जिसके कारण, पिछले दो चुनावांे के बाद से कांग्रेस, ‘वनवास’ झेल रही है।