बुधवार, 29 जून 2011

महंगाई व प्रधानमंत्री के वायदे

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने मार्च 2012 तक महंगाई दर में 6 प्रतिशत की कमी होने का एक बार फिर दावा किया है। दरअसल, प्रधानमंत्री जी प्रिंट मीडिया के कुछ प्रमुख संपादकों से बुधवार को मुखातिब हुए। यहां उन्होंने भ्रष्टाचार, लोकपाल बिल समेत अन्ना हजारे, बाबा रामदेव के आंदोलन के संबंध में अपनी बात रखी। साथ ही खुद को कमजोर प्रधानमंत्री कहे जाने को एक सिरे से खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि यह विपक्ष का दुष्प्रचार है, जबकि वे हर संभव कोशिश कर रहे हैं कि देश में कैसे विकास दर को बढ़ाया जाए और देश की प्रमुख समस्या भ्रष्टाचार तथा महंगाई से निपटा जाए।
संपादकों से हुई चर्चा में अन्य मुद्दों को फिलहाल छोडकऱ, महंगाई जैसी देश की गंभीर समस्या पर मंथन करना इसलिए भी जरूरी है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, बार-बार वादे पर वादे करते जा रहे हैं और महंगाई दर कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। ऐसा कोई माह नहीं जाता, जब कोई आवश्यक वस्तुओं के दाम में बढ़ोतरी नहीं होती और उसके बाद प्रधानमंत्री यही कहते नजर आते हैं कि महंगाई पर कुछ ही महीनों में लगाम ली जाएगी या फिर महंगाई दर में कमी आ जाएगी। मगर अफसोस, सरकार महंगाई की दर घटाने में असफल रही है तथा उल्टे महंगाई दर हर बार बढ़ती जा रही है। अब अकेले पेट्रोल के ही दाम को ले लीजिए, बीते नौ माह में 9 बार जहां कीमत बढ़ाई जा चुकी हैं, वहीं यूपीए-2 के बीते दो बरस में 23 बार बेहिचक पेट्रोल की दर में इजाफा किया गया है।
अब बात करते हैं, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के महंगाई कम करने संबंधी वायदों की। अभी साल भर में प्रधानमंत्री ने ऐसे पांच अवसरों पर महंगाई पर काबू पाने के दावे किए थे, जिसकी पोल उस मियाद के खत्म होते ही खुल जाती है। सबसे पहले 15 अगस्त 2010 को दिल्ली के लाल किला की प्राचीर से उन्होंने अपने भाषण में महंगाई कुछ ही महीनों में कम करने का हवाला दिया था, इस समय लोगों के मन में विश्वास जगा कि चलो अब तो महंगाई डायन के डंक से मुक्ति मिलेगी, किन्तु उन्हें कहां पता था कि वह दावे खोखले ही साबित होंगे और सरकार की महंगाई रोकने की चाल, महज ढाक के तीन पात रह जाएगी।
दूसरी बार प्रधानमंत्री डा. सिंह ने 24 मई 2010 को महंगाई दर को 5-6 प्रतिशत तक लाने की बात कहते हुए दिसंबर 2010 तक हर हाल में महंगाई पर काबू पाने का आश्वासन, देश की अवाम को दिया था, मगर यह आश्वासन भी सिफर ही रहा और मध्यमवर्गीय परिवारों को महंगाई से झटके पर झटके लगते रहे।
तीसरी बार उन्होंने 23 नवंबर 2010 को देश की जनता को भरोसा दिलाते हुए महंगाई से निपटने की मंशा जाहिर की, वह भी कुछ महीनों बाद धरी की धरी रह गई। प्रधानमंत्री का यह डेटलाइन भी अधूरी रही, क्योंकि महंगाई रोकने सरकार पूरी तरह अक्षम साबित हुई और महंगाई दर में कई गुना वृद्धि हो गई।
चौथी बार प्रधानमंत्री डा. सिंह ने 20 दिसंबर 2010 को एक नई डेटलाइन तय की और मार्च 2011 तक महंगाई दर को 5 प्रतिशत तक लाने की ऐसी मंशा जताई कि देश की जनता को लगने लगा, इस बार तो सरकार ने महंगाई से निपटने पूरी कमर कस ली है, लेकिन वही पुराने हालात रहे और अर्थशास्त्री माने जाने वाले प्रधानमंत्री, महंगाई रोकने लाचार नजर आए और सरकार की ओर से कहा गया, जो वे अब तक कहते आ रहे हैं कि महंगाई, केवल भारत की समस्या नहीं है, बल्कि यह अंतर्राष्ट्रीय समस्या है, मगर सवाल यह है कि जब सरकार ऐसी सोचती है तो देश की जनता को बरगलाने की कोशिश क्यों करती है ? क्यों, सरकार महंगाई रोकने बार-बार एक नई डेटलाइन तय करती है ? यह बातें सरकार को स्पष्ट करना चाहिए। देश की सवा अरब जनता को सरकार की नीति के बारे में जानने का पूरा हक है।
अब पांचवीं बार प्रधानमंत्री जी ने पिं्रट मीडिया के संपादकों से चर्चा में उस बात को एक बार फिर दोहराई है, जिसे वे पिछले साल भर से कहते आ रहे हैं और महंगाई दर में कमी लाने एक नई डेटलाइन तैयार की है, वो है मार्च 2012। इस तरह महंगाई दर 6 प्रतिशत तक लाने की दुहाई दी गई है। यहां सवाल सरकार के समक्ष यही है कि आखिर महंगाई कैसे रूक पाएगी ? क्या इस बार प्रधानमंत्री अपने दावे पर खरे उतर पाएंगे ? क्या इस बार भी उनके दावे की हवा निकल जाएगी ? और कई बरसों से जारी महंगाई की समस्या जस की तस बनी रहेगी ? यह सब सवाल, देश की हर वो अवाम जानना चाह रही है, जो महंगाई की समस्या की मार से कराह रही है।
केन्द्र की यूपीए सरकार की इस दूसरी पारी में ही दर्जनों बार अलग-अलग वस्तुओं के दाम में बढ़ोतरी की गई है, जिससे आम लोग महंगाई की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। सरकार द्वारा जिस तरह दावे पर दावे पर किए जा रहे हैं, वह दावे केवल कोरे ही साबित होते आ रहे हैं, इससे सरकार की आर्थिक नीति पर सवालिया निशान भी लग रहा है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने देश को महंगाई से निपटने पांचवीं बार भरोसा दिलाया है, अब इसमें उनकी नीति कितनी कारगर साबित होती है ? यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री के दावे खोखले साबित हुए तो देश की अवाम का भरोसा इस सरकार से उठ ही जाएगा ? क्योंकि आखिर कब तक देश, उस ख्याली पुलाव के सहारे जीती रहेगी, जो केवल आश्वासनों पर टिका हुआ है। कहीं देश की जनता को यह न लगे कि प्रधानमंत्री जी के वायदे, कोरे ही नहीं, बल्कि झूठे होते हैं।

टेढ़ी नजर

1. समारू - प्रधानमंत्री ने प्रिंट मीडिया के प्रमुख संपादकों से चर्चा की।
पहारू - दिखाना चाह रहे हैं कि मेरी उछल-कूद में कोई कमी है तो बताओ।


2. समारू - खटारा गाड़ी में शहीद के शव मामले में छग के मुख्यमंत्री की सफाई।
पहारू - जिम्मेदार अफसरों पर कार्रवाई की जहमत कहां उठा सकते हैं।


3. समारू - आरबीआई ने चवन्नी के सिक्के को बंद कर दिया।
पहारू - अब कोई चवन्नी छाप नहीं होगा।


4. समारू - प्रधानमंत्री ने साल भर में पांचवीं बार महंगाई कम होने का दावा किया है।
पहारू - झूठा तेरा वादा....झूठा तेरा वादा... मारी गई जनता...।


5. समारू - छग के आरटीओ में कामबंद करने की चेतावनी दी गई है।
पहारू - कर्मचारी नेता के खिलाफ कार्रवाई तो महंगी पड़ेगी, ही।

टेढ़ी नजर

1. समारू - महंगाई ने आर्थिक बजट बिगाड़ दिया है।
पहारू - ‘आम आदमी के साथ हाथ‘ वाली सरकार पर और विश्वास करो।


2. समारू - बाबा रामदेव ने कहा है कि वे कायर नहीं है।
पहारू - सच है, नहीं भागते तो पुलिस का कोपभाजन बनना पड़ जाता।


3. समारू - छग कांग्रेस में नए जिलाध्यक्षों की घोषणा जल्द होने वाली है।
पहारू - फिर क्या है, कलह भी जल्द आने वाली है।


4. समारू - भाजपा के मध्यप्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने बढ़ती महंगाई को लेकर मौत मांगी है।
पहारू - देश में भला इससे बढ़कर राजनीति हो सकती है।


5. समारू - छग के रायगढ़ में शहीद के शव को कचरा वाहन में लाया गया।
पहारू - किसी मंत्री के साथ ऐसा होता तो पहाड़ सिर पर उठा लेते।

मंगलवार, 28 जून 2011

कांग्रेस का हाथ, किसके साथ ?

जब-जब चुनाव आता है, कांग्रेस केवल यही बात अलापती है किकांग्रेस का हाथ-आम आदमी का साथ’, मगर जिस तरह से जनता के हितों को दरकिनार कर कांग्रेस, बेरूखी नीति लगातार अपनाती रही है, उससे निश्चित ही आम जनता की मुश्किलें बढ़ी हैं। कांग्रेस ने एक बार फिर महंगाई की परवाह किए बगैर डीजल, केरासिन तथा रसोई गैस के दाम में मनमाने तरीके से वृद्धि की है, उससे समझ में आता है कि कांग्रेस, किसकदर देश की करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों को महंगाई की गर्त में डालती जा रही है। केन्द्र सरकार का जब मन करता है, तब वे जनता के सिर पर महंगाई का बोझ लादने कोई गुरेज नहीं करती। नतीजा यह हो रहा है कि जनता पर महंगाई की चौतरफा मार पड़ रही है और मध्यमवर्ग की दिक्कतें ज्यादा बढ़ रही है, क्योंकि इनका आर्थिक बजट का ही सबसे ज्यादा कबाड़ा होता है।
कांग्रेस की दोमुही नीति के कारण स्थिति और विकट होती जा रही है, एक तरफ सरकार कहती है कि देश में विकास दर बढ़ रही है और लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो रहा है, मगर सवाल यही है कि जब महंगाई, बीते कुछ सालों में सुरसा की तरह बढ़ी है, ऐसे में भला कैसे व किस तरह जनता का आर्थिक स्तर सुधर सकता है ? देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वाले लोगों की तादाद बढ़ाने में महंगाई और ज्यादा भूमिका निभा रही है। इसका कारण है कि आम जरूरत की चीजों की दर में एक गुना नहीं, बल्कि अलग-अलग सामग्रियों के लिहाज से कमर तोड़ वृद्धि हुई है।
2004 के पहले कांग्रेस सत्ता से दूर थी और उस दौरान एनडीए गठबंधन की सरकार थी, उस दौरान कांग्रेस यही प्रचारित करती रही है कि यह गरीबों की हितचिंतक सरकार नहीं है, बल्कि यह धनाड्य लोगों की सरकार है ? बाद में जब 2004 में 14 वीं लोकसभा के चुनाव हुए और इस दौरान कांग्रेस ने वही नारा दिया तथा फिर राग अलापा कि ‘कांग्रेस का हाथ-आम आदमी का साथ’। कांग्रेस द्वारा अपने इस चुनाव जीताउ सूत्रवाक्य के साथ कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी समेत सभी उन कांग्रेस नेताओं की तस्वीरों को तरजीह दी गई, जिन्होंने इससे पहले कांग्रेस की चुनावी नैया पार लगाई थी या कहें कि केन्द्र की सत्ता संभाली थीं। 2004 के लोकसभा चुनाव में गरीबों के हितैषी बन, कई ढकोसले गढ़ने वाले नारे के सहारे कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो गई और इसके बाद तो जैसे उस आदमी को कांग्रेस भूली नजर आई, जिसके सहारे वह एक अरसे बाद सत्ता में काबिज हुई थी। इस चुनाव में कई वादे कांग्रेस ने जनता से की थी, वह कहीं दूर होती नजर अब तक नहीं आई है, जबकि कांग्रेस के यूपीए गठबंधन वाली सरकार अपनी दूसरी पारी खेल रही है और जनता की आशाओं को भी तार-तार कर रही है।
देश में बेरोजगारी, भुखमरी तो कायम है ही, उपर से केन्द्र की यूपीए सरकार जनता को महंगाई की मार झेलने मजबूर कर रही है। लगता है, सरकार, जरूरी चीजों के दाम बढ़ाते थोड़ी भी उन स्थितियों के बारे में नहीं सोचती, तभी तो महंगाई चरम पर है और इस साल में ऐसा कोई माह नहीं गया, जब सरकार किसी न किसी आवश्वक वस्तुओं की दर न बढ़ाई हो। ऐसे में वह आम आदमी करे तो क्या करे, जिसका नाम लेकर केन्द्र की सरकार, सत्तामद में मस्त है और महंगाई की मार से जनता पस्त है। सरकार द्वारा तर्क यह दिया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में डीजल या फिर पेट्रोल के दाम बढ़े हैं, ऐसे में कीमत नहीं बढ़ाए गए तो सरकार का आर्थिक ढांचा बिगड़ेगा, किन्तु सरकार को देश के उन करोड़ों लोगों की भी चिंता करने की जरूरत है, जिनकी आमदनी प्रति दिन महज 20 रूपये है।
गरीबी के कारण देश में कुपोषण की समस्या बढ़ रही है, साथ ही कर्ज में लदे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार, बेरोजगारी तथा भुखमरी को लेकर बेपरवाह नजर आती है, यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार, महंगाई से निपटने तो कारगर नीति बनाती ही, जिससे जनता को राहत मिलती, मगर ऐसा कहां होने वाला है। केन्द्र की यूपीए सरकार ने जैसे ठान रखी है, कोई कुछ भी कर ले, वह जब चाहेगी, तब आवश्वक वस्तुओं के दाम बढ़ाएगी ? किसी के विरोध का भी ऐसी सरकार को भला क्या फर्क पड़ सकता है, जो दंभी रूख अपनाया हुआ है ? इन्हीं कारणों से जब-जब महंगाई बढ़ती है, तब-तब अर्थशास्त्री माने जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की सरकार कटघरे में खड़ी नजर आती है। ठीक है, अभी देश की जनता कुछ नहीं कर पा रही है, मगर ऐसी सरकार के खिलाफ जनता को सड़क पर उतरकर लड़ाई लड़नी चाहिए। हालांकि, जनता के पास वोट का वह हथियार है, जिसके आगे कोई भी सरकार घुटने टेकने मजबूर हो जाती है और जिस भी सरकार ने जनता की अनदेखी की है, इतिहास गवाह है, वैसी सरकार को मुंह की खानी पड़ी है और सत्ता के गलियारे दूर होना पड़ा है।
केन्द्र की यही यूपीए सरकार है, जिसके कृषिमंत्री शरद पवार, महंगाई के लिए ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं और यही मंत्री हैं, जो अनाज सड़ाने को तैयार हैं, मगर गरीबों को नहीं बांट सकते। मुनाफाखोरों को लाभ देने के लिए कृषि मंत्री के बयान हमेशा विवादों में रहे और उन्होंने जब-जब मुंह खोला, तब-तब महंगाई बढ़ी। साथ ही मुनाफाखोरों को इसलिए लाभ मिलता रहा, क्योंकि जिन सामग्रियों के दाम बढ़ने की बात होती थी, उसे जमाखोर, स्टॉक कर रख लेते थे। इस तरह भी देश की जनता को महंगाई की मार झेलनी पड़ रही है तथा जमाखोरों की तिजोरी भरने में सरकार का कृषिमंत्री सहयोग देते नजर आते रहे हैं।
जितनी बार महंगाई बढ़ती है, उसका असर सीधे तौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों के घर के बजट पर पड़ता है और वे महंगाई की मार से कराहने से नहीं बचते। अभी डीजल, रसोई गैस तथा केरासिन के दाम कई गुना बढ़ा दिए गए। डीजल के कारण परिवहन क्षेत्र प्रभावित होगा, इससे हर सामग्रियों की कीमत प्रभावित होगी, क्योंकि माल भाड़ा का भुगतान, उन्हीं उपभोक्ताओं से वसूले जाएंगे, जिन्हें महंगाई की समस्या से दो-चार होना पड़ रहा है। ऐसे में यही कहा जा सकता है, जब देश की जनता महंगाई से तंग है और कराह रही है। इन स्थितियों में कांग्रेस के उस दावे की पोल जरूर खुल रही है, जिसमें अक्सर कहा जाता है कि ‘कांग्रेस का हाथ-आम आदमी का साथ’। जब महंगाई दसियों गुना बढ़ी है और जनता इससे सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है तो भला ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ है ? इस तरह देश, कांग्रेस से सवाल पूछ रहा है कि कांग्रेस का हाथ, आखिर किसके साथ है ?

गुरुवार, 23 जून 2011

परीक्षा, फर्जीवाड़ा और छत्तीसगढ़

ऐसा लगता है, जैसे छत्तीसगढ़ की परीक्षाओं का, फर्जीवाड़ा और विवादों से चोली-दामन का साथ है। तभी तो प्रदेश में होने वाली अधिकांश परीक्षाओं में किसी किसी तरह से धब्बा लगा ही जाता है। छग में शिक्षा नीति जिस तरह लचर है, उसी का खामियाजा होनहार छात्रों उनके अभिभावकों को भुगतना पड़ रहा है। प्रदेश के लिए परीक्षाओं में फर्जीवाड़ा की बात कोई नई नहीं रह गई है, यही कारण है कि छग से दूसरे राज्यों में जाकर पढ़ने वाले प्रतिभावान छात्रों कोहेयकी दृष्टि से देखा जाता है, यह किसी भी सूरत में विकास पथ पर आगे बढ़ रहे राज्य के लिए ठीक नहीं है। माना यही जाता है कि जब शिक्षा की नींव ही कमजोर होगी तो फिर कोई भी प्रदेश कभी उन्नति नहीं कर सकता। छग में परीक्षाओं में हुई गफलत की परत जब खुलती हैं तो ऐसा लगता है, जैसे यहां की शिक्षा के लिए फर्जीवाड़ा ही पहचान बन गया है। जब शिक्षा के मामले में छग की बात अन्य राज्यों के समक्ष होती है, वहां इसे दोयम दर्जे में गिना जाता है और इस तरह छग की प्रतिभाएं, शर्मसार होती हैं। शायद उन बातों का ख्याल इस राज्य की सरकार को नहीं है, ऐसा होता तो सरकार अब तक कठोर नीति बना चुकी होती। केवल कुछ लोगों पर मामूली कार्रवाई की गाज गिराकर, राज्य में शिक्षा की गिरती साख को नहीं बचाया जा सकता ? इसके लिए समय रहते सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
छत्तीसगढ़ की शिक्षा क्षेत्र में फर्जीवाड़े की बात करें तो सबसे पहले बारी आती है, राज्य लोक सेवा आयोग अर्थात पीएससी की। छग राज्य बनने के कुछ साल बार जब पहली बार पीएससी की प्रतियोगी परीक्षा आयोजित हुई तो प्रदेश की प्रतिभाओं को लगा कि अब उन्हें अपनी काबिलियत दिखाने का बेहतर अवसर मिला है, मगर जब पीएससी का रिजल्ट आया, उसके बाद ही राज्य लोक सेवा आयोग, उसकी परीक्षा नीति व पूरा तंत्र ही सवालों के घेरे में आ गए। दरअसल, उस समय जिस तरह से फर्जीवाड़ा उजागर हुआ, उससे प्रदेश का नाम बदनाम तो हुआ ही, साथ ही यहां की प्रतिभाओं की मंशा को भी आघात लगा और प्रतिभाओं की प्रगति पर निश्चित ही विराम लग गया। देश के कई राज्यों में पीएससी की परीक्षा आयोजित की जाती है, लेकिन अब तक ऐसी धांधली का कहीं भी पता नहीं चला है। इससे लगता है कि यहां परीक्षा लेने की प्रणाली कितनी लचर है और उसका किस तरह कुछ तत्वों द्वारा बेजा इस्तेमाल किया जाता है ? पीएससी की साख एक बार गिरी, उसके बाद से यह उपर नहीं उठ सकी है और शायद ही यह काला धब्बा, छत्तीसगढ़ कभी धो पाएगा ? पीएससी के परीक्षा तंत्र को हर दृष्टि से बेहतर व व्यापक माना जाता है, मगर यही छत्तीसगढ़ है, जहां जितनी फर्जीवाड़ा हो जाए, वह कम है ? पीएससी भी उन परीक्षा गिरोह के सामने पंगु नजर आया और राज्य के नाम एक काला अध्याय भी दर्ज हो गया। पीएससी की परीक्षा में गड़बड़ी का जैसे ही खुलासा हुआ, उसके बाद मीडिया भी चौकस हो गया और देखते ही देखते परत- दर-परत फर्जीवाड़े का रहस्य उजागर होते गए। इधर पीएससी की परीक्षा लेने की नीति पर अभी भी सवाल उठते रहते हैं और प्रतियोगी युवाओं द्वारा आंदोलन भी किए जाते रहे हैं, मगर फिर भी तंत्र में छाई भर्राशाही खत्म नहीं हो रही है। छग में परीक्षा आयोजन तथा उसके लिए बनाई जाने वाली नीति के लिए पीएससी अक्सर विवादों में रहा है। अभी भी कई परीक्षाएं इन्हीं विवादों के कारण नहीं ली जा पा रही है। ऐसे में निश्चित ही प्रतिभाओं को ही नुकसान हो रहा है। उन्हें कौन सा फर्क पड़ने वाला है, जो एसी कमरों में बैठकर बेहतर नीति निर्धारण करने का दावा करते हैं, भले ही उनकी लापरवाही के चलते, बाद में घपलेबाजी व फर्जीवाड़ा की स्थिति निर्मित हो जाए।

दूसरे फर्जीवाड़े ने तो छग को ही नहीं, बल्कि देश की शिक्षाविदों को हिलाकर रख दिया। 2008 में बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में फर्जीवाड़ा का जिस तरह खुलासा हुआ, उसके बाद तो प्रदेश व माध्यमिक शिक्षा मंडल की परीक्षा व्यवस्था पर ढेरों प्रश्न चिन्ह लग गए और एक ऐसा दाग लग गया, उसे भी शायद कभी धोया नहीं जा सकता। जैसा, मंडल ने मीडिया में खुलासा किया है कि बारहवीं की मेरिट सूची में गड़बड़ी कर जांजगीर-चांपा जिले के बिर्रा स्थित स्कूल से ‘पोराबाई’ टॉप कर गई और शिक्षा मंडल की आंख के नीचे वह सब कर गई, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। इसके बाद सवाल भी लोगों के जेहन में कौंधने लगा कि क्या ऐसा कारनामा पहले से चलते आ रहा था ? वैसे इस बरस मंडल की परीक्षा व्यवस्था की हालत जितनी लचर थी, वैसी कभी नहीं रही। 10 वीं बोर्ड की परीक्षा की मेरिट सूची में भी गड़बड़ी सामने आई, वह भी जांजगीर-चांपा जिले में। इन दोनों मामलों में दर्जनों लोगों को आरोपी बनाया गया है। फिलहाल, ये मामले न्यायालय में लंबित है।
इस बरस प्रदेश में परीक्षा आयोजन की जो व्यवस्था थी, वह भी शिक्षा मंडल का किया धराया था। अकेले, जांजगीर-चांपा जिले में ही 172 परीक्षा केन्द्र बनाकर रेवड़ी के तौर पर निजी स्कूलों को केन्द्र बांटे गए थे। जिसका नतीजा नकल के तौर पर सामने आया। यह बात प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए शर्म की बात होनी चाहिए कि प्रदेश के कुछ चुनिंदा जिलों, खासकर जांजगीर-चांपा, सरगुजा में किस तरह समूह में नकल होती है और यहां नकल माफिया कैसे काम करते हैं, इसे देखने देश की राजधानी से भी कुछ लोग पहुंचे ? परीक्षा केन्द्रों के अलावा राज्य में निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई है, गली-मोहल्लों में इस तरह स्कूल खोलने अनुमति दी गई है, जैसे कोई दुकानदारी हो। प्रदेश के अधिकतर इलाकों में संचालित निजी स्कूलों के पास तय मापदंड के अनुसार कोई सुविधा नहीं है। यदि स्कूलों की अनुमति देने के पहले जांच हो तथा नियम-कायदों का पालन किया जाए तो कुछ चुनिंदा स्कूल ही अनुमति के काबिल मिलेंगे। उसके कारण भी है, क्योंकि अधिकांश स्कूल एक-दो कमरे में ही संचालित हो रहे हैं और इसकी जांच हो रही है, मगर केवल कागजों में। इसके लिए हमारे अफसरशाही भी जिम्मेदार है, जो शिक्षा माफिया को पनपने का पूरा अवसर देते हैं और शिक्षा का मंदिर इन्हीं अफसरों की कारस्तानियों के कारण दुकान की तरह रोज बढ़ रहे हैं।
दूसरी ओर प्रदेश में स्कूली शिक्षा में नकल की प्रवृत्ति इन्हीं कारणों से बढ़ी। इसमें भी राज्य की नीति ही जिम्मेदार रही। राज्य में शिक्षाकर्मी के हजारों पद निकाले गए और शुरूआती कुछ बरसों तक प्रतिशत के आधार पर नौकरी देने की परिपाटी चली। इसी का परिणाम रहा कि नकल एक घातक बीमारी के रूप में सामने आया। शिक्षाकर्मी बनने के लिए प्रतिशत का महत्व बढ़ गया था, किन्तु जब बाद में व्यापमं द्वारा परीक्षा आयोजित की जाने की लगी तो फिर ऐसी करतूतों पर कुछ हद तक लगाम लग सकी, पर वही ढाक के तीन पात। जो ढर्रा चल रहा था, उसमें फेरबदल तो हुआ, लेकिन भर्राशाही पर विराम नहीं लग सका।
छग में व्यापमं की परीक्षाओं में काला छिंटा लगता रहा है, लेकिन इस बात का खुलासा खुले तौर पर नहीं हो रहा था। इस बार अभी 19 जून को प्री-पीएमटी की परीक्षा होनी थी, उसके पहले शाम को पेपर लीक होने का जैसे ही खुलासा हुआ, उन बातों को बल मिल गया कि व्यापमं भी अब विश्वसनीय नहीं है ? यहां गौर करने वाली बात यह है कि पीएमटी की यह दूसरी बार परीक्षा थी, मगर व्यापमं के अफसरों द्वारा किसी तरह ऐहतियात नहीं बरती गई और उसका नतीजा, एक बार फिर प्रदेश के लिए काला अध्याय बनकर सामने आया। भले ही, सरकार ने आनन-फानन में व्यापमं अध्यक्ष व नियंत्रक को हटा दिया हो और तमाम जांच की बात कही जा रही हो, मगर इतना तो जरूर है कि प्रदेश में छाया फर्जीवाड़ा का कुंहासा कैसे छंट पाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है ? प्री-पीएमटी फर्जीवाड़े के मामले में कुछ ओहदेदार लोगों के बच्चों का नाम भी सामने आने की चर्चा है, उसके बाद तो चर्चा का बाजार गर्म हो गया है। इस परीक्षा में धब्बा लगने के बाद पुराने दिनों में लगे काले धब्बे की टीस का दर्द भी ताजा हो गया है।
ऐसा नहीं है कि छग में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, प्रदेश के होनहार, दूसरे राज्यों समेत विदेश में भी अपनी क्षमता का जौहर दिखा रहे हैं। यह सब फर्जीवाड़े, निश्चित ही हमारी शिक्षा व्यवस्था व नीति की पोल खोलती है, क्योंकि शिक्षा की बदहाली दूर करने सरकार ही सजग न हो तो ऐसे फर्जीवाड़े का सिलसिला भला कैसे रूक सकता है ? हमारा तो यही कहना है कि अब तो राज्य सरकार के नीति नियंताओं को चेत जाना चाहिए, क्योंकि बार-बार फर्जीवाड़ा होता रहा तो अपनी आने वाली पीढ़ी को हम क्या जवाब देंगें ? क्या इतना बताने में हमें शर्म नहीं आएगी कि शिक्षा क्षेत्र में बस फर्जीवाड़ा ही हमारी उपलब्धि है ? इन हालात से निपटना होगा, नहीं तो प्रदेश की प्रतिभाएं सिसकती रहंेगी व दम तोड़ती रहेंगी। यह तो तय है कि जब तक गड़बड़ी व फर्जीवाड़ा होते रहेंगे, तब तक प्रतिभाएं जी-जी कर मरती रहेंगी।

बुधवार, 22 जून 2011

राहुल जी अब प्रधानमंत्री बन भी जाओ ?

देश में महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार की समस्या बढ़ रही है और दूसरी ओर चम्मचों के एक धड़े द्वारा एक नई विकासगाथा लिखने की दुहाई दी जा रही है। देखिए, छोटा-मोटा पद मिलने के बाद कोई भी बौरा जाता है, ऐसे में जब कोई प्रधानमंत्री जैसे पद ठुकराए तो यह जरूर बड़ी बात होती है। मगर एक अपरिपक्व व्यक्ति को प्रधानमंत्री का दावेदार बताया जाना कहां तक लाजिमी है, निश्चित ही ये तो चापलूसी की इंतहा ही है।
राहुल गांधी को कई बार प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की गई है। हो सकता है, वे भावी प्रधानमंत्री हों, किन्तु जिस तरह उन्हें पंदोली देतु हुए कई नेताओं द्वारा चापलूसी भरे लहजे में प्रधानमंत्री के काबिल होने का दावे किए जाते हैं, उसे कहां तक सही ठहराया जा सकता है। जब खुद राहुल गांधी ही अनेक मर्तबा कह चुके हैं कि वे अभी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते और फिलहाल देश की राजनीति और अवाम की मंशा को समझने का हवाला देते हैं। उनकी इच्छा को इस बात से भी जाना जा सकता है कि उन्होंने केन्द्रीय मंत्रीमंडल में भी कोई पद नहीं लिया है। उन्हें कोई विशेष मंत्री पद ग्रहण करने कहा भी गया है। यहां यह भी कहा जा सकता है, प्रधानमंत्री जैसे पद को ठुकराने वाली श्रीमती सोनिया गांधी का पुत्र राहुल गांधी, भला कैसे कोई मंत्री पद ले सकते हैं, बनना चाहेंगे तो प्रधानमंत्री बनेंगे ? हो सकता है, इसी मर्म को राहुल गांधी के चाटुकार समझ गए होंगे, तभी तो इस बात को हवा देते रहते हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं ?
हमारा यही कहना है कि जिन्हें प्रधानमंत्री बनना है, यदि वही अनिच्छा जता रहे हों और अभी किसी तरह से कोई ओहदे का बोझ न थामना चाहता हो, ऐसे में ओछी राजनीति का परिचय देते हुए चमचमाई करने वाले कुछ नेता, राहुल गांधी में प्रधानमंत्री बनने के हर गुण गिना डाले तो फिर इसे उन जैसे नेताओं की मानसिक फुसफुसाहट ही कही जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल में नेतृत्व के गुण हैं, क्योंकि वे एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जिस परिवार के कई लोग प्रधानमंत्री बने हैं। इसी परिवार की श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद ठुकराकर दुनिया को चौंका चुकी हैं। ऐसी स्थिति में शायद राहुल गांधी आगा-पीछे हवा देने वाले उनके प्रधानमंत्री बनने की बात को हवा देने में लगे हों। अब इसमें राहुल गांधी के मन में कितना लड्डू फूट रहा है, ये तो वही बता सकते हैं, किन्तु इतना जरूर है कि चाटुकारों के दिलो-दिमाग में अभी से राहुल गांधी, प्रधानमंत्री के पदवी में बैठ चुके हैं।
जिस तरह से यूपीए-2 सरकार पूरी तरह से भ्रष्टाचार, महंगाई की समस्या को लेकर कटघरे में खड़ी है और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्णय क्षमता तथा कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। ऐसे हालात में किसी न किसी को आगे आना तो पड़ेगा ही। इन बातों को भांपते हुए शायद चाटुकारों ने सही समय पर गरम लोहे पर हथौड़ा मारने का काम किया है, पर सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए आतुर हैं ? उनके चाटुकारों द्वारा जिस तरह से प्रचारित किया जा रहा है, उससे तो कुछ ऐसा ही लगता है कि शायद गुजरते समय के साथ अब राहुल गांधी को भी लगने लगा है कि अब उन्हें देर नहीं करनी चाहिए और प्रधानमंत्री बनने किसी तरह का गुरेज नहीं करना चाहिए। एक बात तो है कि राजनीति के जानकार राहुल गांधी को फिलहाल प्रधानमंत्री के लिए अपरिपक्व मानते हैं, लेकिन यह बात भी सही है कि वे उस परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जिस परिवार से अब तक सबसे अधिक प्रधानमंत्री बने हैं।
लगता है, राहुल गांधी ने चाटुकारों की बातों को ज्यादा तवज्जों नहीं दिए हैं, तभी तो उन्होंने इस मामले पर कुछ भी नहीं कहा है, मगर यह भी अच्छा नहीं है, क्योंकि कभी-कभी तो चाटुकारों की बातों को तरजीह देने पर विचार करना चाहिए ? इतना जोर देकर जब चाटुकार प्रधानमंत्री बनने का खुला माहौल बना रहे हैं तो फिर राहुल गांधी को भी पीछे नहीं हटना चाहिए। हम तो कहेंगे कि जब चाटुकारों की बात मानकर प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो, राहुल जी आप एक पल भी देर न कीजिए ?

मंगलवार, 14 जून 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - छग में नक्सली हमले में जवान शहीद हो रहे हैं।
पहारू - यही हाल रहा तो, धान का कटोरा, खून का कटोरा बनते देर नहीं लगेगी।


2. समारू - देश की मिनिस्ट्री पर छग के बाबू भारी पड़ रहे हैं।
पहारू - भारीपन का जलवा अभी दिखा कहां है।


3. समारू - दिल्ली में नक्सली समस्या पर मंथन हो रहा है।
पहारू - फिर दोहराया जाएगा, कड़े कदम उठाए जाएंगे।


4. समारू - बाबा रामदेव ने दो सौ बरस जीने का दावा किया था।
पहारू - नौ दिनों में तो दावे की हवा निकल गई।


5. समारू - देश में सैकड़ों पत्रकारों को मार दिया गया।
पहारू - भारत भी अब पाकिस्तान बनता जा रहा है।

रविवार, 12 जून 2011

‘हमें मालिक बने रहने दीजिए, मजदूर मत बनाइए’

पर्यावरण की चिंता हर बरस शुरू होती है, उसके बाद दम तोड़ देती है। पेड़ों की अंधा-धुंध कटाई के बाद जंगल घटते जा रहे हैं, वहीं प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। पर्यावरण से खिलवाड़ का खामियाजा हर किसी को भुगतना पड़ रहा है, फिर भी हम चेत नहीं रहे हैं और हरियाली को हर तरह से उजाड़ने में लगे हैं। विकास के नाम पर पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही हैं और यही धीरे-धीरे हमारे जीवन पर आफत बनती जा रही है या फिर दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पर्यावरण में धीमी मौत घुलती जा रही है, जो प्रदूषण के तौर पर हमें मुफ्त में मिल रही है।

वैसे पर्यावरण की समस्या केवल इसी राज्य की नहीं है, बल्कि भारत के अलावा दुनिया भर में हालात बिगड़ते जा रहे हैं। इसी के चलते पिछले बरस कोपेनहेगन में पर्यावरणविदों ने माथापच्ची की थी और हिदायत भरे लहजे में यही कहा गया था कि पर्यावरण से किसी भी कीमत पर खिलवाड़ मत करो, ऐसा करके खुद ही अपनी जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हो। बावजूद पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर, यदि कोई अपने ही सिर पर पत्थर पटकने के लिए उतारू हो जाए तो फिर इसे पर्यावरण विनाशकों का सनक ही कहा जा सकता है।

ऐसे हालात के बाद भी जब सरकारें विकास के नाम पर पर्यावरण हितों को दरकिनार कर दंभी निर्णय ले ले और हर तरह से पर्यावरण समेत खेती रकबा को उजाड़ने पर उतारू हो जाए, तो जाहिर सी बात है कि ऐसी सरकार के खिलाफ आम जनता खड़ी जरूर होगी। ऐसा ही माहौल छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में बनता जा रहा है। छग सरकार द्वारा जिले में 34 पॉवर प्लांट लगाने संबंधी एमओयू किए जा चुके हैं और यह सिलसिला अभी भी चल ही रहा है। इनमें कुछ ने निर्माण कार्य भी शुरू करा दिए हैं तो कुछ जमीन के फिराक में लगे हैं। दूसरी ओर सरकार के निर्णय के खिलाफ जहां जिले के किसान शुरू से मुखर रहे हैं, वहीं पर्यावरण के जानकारों ने भी इसे सरकार की मनमानी करार दिया है। सरकार के दंभी रूख के कारण प्लांट प्रबंधन भी किसी भी स्तर पर जाकर जमीन हथियाने पर उतारू हैं, लिहाजा किसानों में आक्रोश पनप रहा है। प्लांट प्रबंधन द्वारा दलालों के माध्यम से किसानों को बरगलाकर उनके पूर्वजों की द्विफसली जमीन को हथियाने, कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रहे हैं और हर हथकण्डे आजमाए जा रहे हैं। जैसे भी हो, साम, दाम, दंड, भेद से जमीन अपने कब्जे में लेने पुरजोर कोशिश की जा रही है। सरकार ने किसानों के हितों को दरकिनार कर प्लांट प्रबंधन को जैसे खुली छूट दे रखी है, यही कारण है कि जिन प्लांटों की पर्यावरणीय जनसुनवाई भी पूरी नहीं हुई है, वह भी किसानों की जमीन दबोचने में लगे हैं। इसके खिलाफ किसानों ने आवाज तो उठाई ही है, साथ ही कुछ विधायकों ने भी मुखर होकर सरकार को ऐसी करतूत पर लगाम लगाने की बात कही है। हालांकि, इन बातों से सरकार को कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है, तभी तो जांजगीर-चांपा जिले की द्विफसली जमीन की खरीदी धड़ल्ले से जारी है। जिले का एक बड़ा रकबा प्लांट प्रबंधनों के कब्जे में आ चुका है, यही हाल रहा तो जिले से कृषि रकबा का नामो-निशान नहीं रहेगा।
सरकार ने तो जैसे ठान ही लिया है कि जो हो जाए, किसानों के हितों पर जितना भी कुठाराघात हो जाए, पर्यावरण की स्थिति चाहे जितनी भी बिगड़ जाए, हर स्थिति में पॉवर प्लांट लगकर ही रहेंगी। इन्हीं कारणों से प्लांट प्रबंधनों द्वारा मनमाने रूख अपनाए जा रहे हैं, किसानों की जमीन के मुआवजे औने-पौने दिए जा रहे हैं। एक बात है, जिले के अधिकतर इलाकों में किसान, पॉवर प्लांटों को लगने देना नहीं चाहते, यहां पर प्रबंधन द्वारा किसी भी तरह से जमीन खरीदी करने की जुगत भिड़ाई जा रही है। यही कारण है कि जिन किसानों की जमीन ली भी गई है, उन्हें भी मनमाने तरीके से मुआवजा दिए जा रहे हैं।

इसी बात को लेकर पिछले दिनों किसानों द्वारा जिले के नरियरा में लगने वाले 36 सौ मेगावाट के पावर प्लांट के खिलाफ कई महीनों तक धरना-प्रदर्शन, भूख हड़ताल कर आंदोलन किया गया था। बताया जाता है कि केएसके महानदी नाम का यह निजी पॉवर प्लांट, एशिया का सबसे बड़ा प्लांट है। ऐसे में माना यह भी जा रहा है कि सभी प्लांट की अपेक्षा, अकेला यही पर्यावरणीय लिहाज से जिले के लिए घातक साबित होगा। किसानों का आक्रोश केवल यहीं की नहीं है, बल्कि यह आग पूरे जिले में भड़क रही है। आए दिन जिले में केवल पावर प्लांट के कारण आंदोलन होते रहते हैं, जबकि जांजगीर-चांपा एक शांति प्रिय जिले के रूप में पूरे छग में जाना जाता है, मगर पॉवर प्लांट के आगोश में आने के बाद यहां की आबो-हवा बिगड़ती जा रही है। जिले में बाहर से लोगों की आम-दरफ्त बढ़ने से अपराध बढ़ने का अंदेशा भी जताया जा रहा है, लेकिन सरकार है कि किंकर्तव्यमूढ़ बनकर बैठ गई है और ऐसा लगता है, जैसे एक सोच बनाकर ही सरकार कार्य कर रही है कि पॉवर प्लांट से ही विकास संभव है, जबकि सरप्लस बिजली वाले राज्य छत्तीसगढ़ के लिए यह नीति हर तरह से घातक ही है।

यहां बताना यह जरूरी है कि छग, देश पहला राज्य है, जो बिजली वाला सरप्लस राज्य है। इस लिहाज से यहां पॉवर प्लांट की जरूरत ही नहीं है, यदि लगाया भी जाता तो प्लांटों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं होनी चाहिए। एक बात और है, जांजगीर-चांपा प्रदेश का सबसे अधिक सिंचित जिला है और यहां वन क्षेत्र भी राज्य में सबसे कम है। जिले में द्विफसल लेकर किसान अपना जीवन यापन करते हैं और कृषि ही उनका मूल आय का स्त्रोत है। साथ ही खेती की जिन हजारों एकड़ भूमि पर पावर प्लांट लगाने की मंशा सरकार ने रखी है, उनमें अधिकतर जमीन द्विफसली है और इन जमीन पर किसानों की कई पीढ़ियां खेती करते आ रही हैं। ऐसे में किसानों की यही चिंता है, जब उनके पूर्वजों की जमीन हाथ से चली जाएगी, तो फिर क्या करेंगे ? उनके पास केवल हाथ मलने के सिवाय कुछ नहीं बचेगा ? अभी यही चिंता जिले के अधिकतर किसानों को खायी जा रही है और वे अपनी जमीन पॉवर प्लांट को नहीं देने, जिले के अफसरों से लेकर राजधानी तक चक्कर लगा रहे हैं। प्रदेश के मुखिया डा. रमन सिंह को भी समस्या बताई जा रही है, फिर भी अब तक किसानों के हितों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और पावर प्लांट प्रबंधनों की मनमानी बढ़ती जा रही है। यहां सवाल यही है कि मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने राज्य की जनता के समक्ष जिस तरह संवेदनशील मुख्यमंत्री के रूप में छवि बनाई है और देश-दुनिया में छाए हुए हैं। इस पहलू को लेकर किसानों की इस बड़ी समस्या पर उनकी संवेदनशीलता आखिर कहां चली गई है ? वे क्यों कृषि प्रधान जांजगीर-चांपा जिले में इतनी संख्या में पॉवर प्लांट लगाना चाहते हैं ? प्रदेश में पर्याप्त बिजली उत्पादन हो ही रहा है, ऐसे में कुटीर उद्योगों को बढ़ाना देने की कोशिश होनी चाहिए ? यदि कुछ पावर प्लांट लगाना भी पड़े तो कृषि भूमि को उजाड़ना किसी भी तरह से, समझ से परे लगता है ?

जिले में हालात दिनों-दिन बिगड़ते जा रहे हैं और किसान किसी भी कीमत पर अपने पूर्वजों की द्विफसली जमीन बेचना नहीं चाहते। किसानों का सीधे तौर पर कहना है कि ‘हमें मालिक बने रहने दीजिए, मजदूर मत बनाइए’, ‘हमारे पूर्वजों की जमीन मत छीनिए’, ’हमारी आय का मुख्य स्त्रोत कृषि भूमि है।’ जिले के किसान जब भी किसी अफसर से मिलते हैं, तो उनकी जुबान से सहसा ही ये जुमले निकल ही पड़ते हैं और साथ ही उनके मन में समाया दर्द भी सामने आ जाता है। अभी कुछ ही दिनों पहले की बात है, जिले के सिलादेही-गतवा में लगने वाले ‘मोजरबियर’ पॉवर प्लांट के विरोध में एक बार फिर सैकड़ों की संख्या में किसान चांपा के एसडीएम दफ्तर पहुंचे और यहां किसानों ने फिर वही बात दोहराई कि ‘हमें मालिक बने रहने दीजिए, मजदूर मत बनाइए’। किसानों ने अफसरों को कड़े शब्दों में कह दिया है कि वे अपने पूर्वजों की जमीन नहीं देंगे, इसके लिए वे हर तरह से आंदोलन को तैयार हैं। जेल भी जाना पड़ेगा, तो वे तैयार हैं। यहां के किसानों ने राजधानी रायपुर जाकर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को भी जमीन छिने जाने से आने वाले दिनों में खुद पर आने वाली आफत से रूबरू कराया है, मगर सरकार की ओर से किसानों के हितों के बारे में कुछ नहीं सोचा गया है। इन परिस्थितियों में किसानों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है और आने वाले समय में स्थिति बिगड़ने के आसार से इंकार नहीं किया जा सकता।



...सरकार कहां करेगी राखड़ ?
छत्तीसगढ़ सरकार ने जांजगीर-चांपा जिले में बड़े पैमाने पर पॉवर प्लांट लगाने की हरी झंडी तो दे दी है, मगर प्लांटों से निकलने वाली राखड़ का क्या करेगी ? इसकी नीति अब तक नहीं बनाई जा सकी है। ऐसे में प्रदेश की औद्योगिक नीति पर तमाम तरह के सवाल खड़ा होना स्वाभाविक भी लगता है। उद्योगमंत्री बनने के बाद पहली बार जिले में आए दयालदास बघेल से इस मुद्दे को लेकर पत्रकारों द्वारा सवाल किया गया था तो वे भी कोई ठोस जवाब नहीं दे सके थे और उन्होंने स्वीकारा था कि वास्तव में राखड़ के निदान के लिए एक व्यापक नीति बनाने की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक जांजगीर-चांपा जिले में यदि 30 से ज्यादा पॉवर प्लांट स्थापित किए जाते हैं तो हर दिन लाखों टन राखड़ निकलेगी ? इस तरह सरकार के समक्ष सवाल कायम है कि आखिर सरकार राखड़ का क्या करेगी ? इसके अलावा बिजली बनाने के पानी की जरूरत होगी, इससे नदियों का जल स्तर घट जाएगा। जिसका सीधा असर लोगों के जनजीवन पर पड़ेगा। दूसरी ओर पॉवर प्लांट से निकलने वाले धुएं से होने वाले प्रदूषण की परेशानी से लोगों को दो-चार तो होना ही पड़ेगा। जिले में अपराध बढ़ने का भी अंदेशा व्यक्त किया जा रहा है, साथ ही सड़क हादसों में भी कई गुना वृद्धि होने की बात सोचकर, यहां के लोग अभी से ही सशंकित हैं। यहां के लोगों को लग रहा है कि कृषि के चलते पहचान बनाने वाला जिला, ऐसी स्थिति में राखड़ व प्रदूषण के लिए भविष्य में जाना जाएगा।

टेढ़ी नजर

1। समारू - छग में नक्सली हमले से फिर शहीद हुए जवान।
पहारू -- सरकार के कारिंदे इतना जरूर कहेंगे, मुआवजे का ऐलान कर दो।

2। समारू - छत्तीसगढ़ में सैकड़ों डॉक्टरों की कमी बरसों से बरकरार है।
पहारू - जो हैं, वही तो ड्यूटी पर नहीं आते।

3। समारू - छग में 15 जून से 15 जुलाई तक कर्मचारियों के स्थानांतरण होंगे।
पहारू - देखो, सबसे ज्यादा आंख में कौन खटका।

4। समारू - बाबा रामदेव ने संतो के कहने पर अनशन तोड़ा।
पहारू - राजनीति के बर्र को हाथ लगाने के पहले उनसे पूछ लिया होता।

5। समारू - बाबा के अनशन खत्म होने के बाद दिग्विजय सिंह क्या कहेंगे।
पहारू - सरकार कभी डरती नहीं, बल्कि वह डराती है, देख लिए न।

गुरुवार, 9 जून 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - अन्ना हजारे के साथ हजारों हाथ है।
पहारू - सरकार के पास कपिल सिब्बल व दिग्विजय सिंह हैं, न।


2. समारू - बाबा रामदेव कभी सनक जाते हैं, कभी नरम पड़ जाते हैं।
पहारू - योग की यही तो खासियत है।


3. समारू - बाबा रामदेव 11 करोड़ के आसामी हैं।
पहारू - पतंजलि के लिहाज से 17 करोड़ होना चाहिए।


4. समारू - छग के गृहमंत्री के बयान से मुख्यमंत्री का सिरदर्द बढ़ा।
पहारू - सिर पर लादे हैं, बोझ तो सहना पड़ेगा।


5. समारू - महान चित्रकार एमएफ हुसैन नहीं रहे।
पहारू - अब ‘माधुरी’ पर कौन ‘फिदा’ होगा।

बाबा-अन्ना लाइव - मीडिया पर सरकारी चाबुक

देश, भ्रष्टाचार के बुखार से तप रहा है और आम जनता महंगाई की आग में जल रही है, मगर सरकार के कारिंदों को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि ऐसा नहीं होता तो वे इन घातक समस्याओं के मामले में माकूल कदम जरूर उठाते। बीते एक दशक में महंगाई चरम पर पहुंच गई है और इसकी आसमानी हवाईयां भी रूकने का नाम नहीं ले रहा है। भ्रष्टाचार की समस्या तो जैसे इस देश के लिए नासूर बनता जा रहा है। वैसे तो देश में सफेदपोश भ्रष्टाचारियों की कोई कमी नहीं है, यह इस बात से भी पता चलता चलता है कि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब कोई घूसखोर पकड़ा नहीं जाता। एक बात है कि बड़े सफेदपोशों का भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते कुछ भी बिगाड़ नहीं पाते। नतीजा यही होता है कि भारत में सफेद धन को विदेशी बैंकों में काला धन बनाकर रखा जाता है और देश की अर्थव्यवस्था तार-तार होती रहती है। देश की आधी से अधिक आबादी भूख से तड़पती है, दो जून की रोटी के लिए उन्हें त्राही-त्राही होनी पड़ती है, ऐसे में देश में एक वर्ग ऐसा बनता जा रहा है, जो एशो-आराम की जिंदगी जी रहा है, शानो-शौकत को छोड़िए, उल्टे देश में अरब-खरबपतियों की नई जमात खड़ी हो रही है कहने को तो, भारत में सर्वहिताय-बहुजन सुखाय की दिशा में कार्य किए जाने की बात, उंची इमारतों में रहने वालों द्वारा किया जाता है, मगर यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारत में किस तरह आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है ?
अब मुद्दे की बात करें तो बेहतर होगा। अभी पिछले छह-सात दिनों से मीडिया में, देश में योगदक्षी बाबा रामदेव तथा समाजसेवी अन्ना हजारे के द्वारा काला धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ किए जा रहे आंदोलन छाए हुए हैं। देश की हर जुबान पर इन्हीं मुद्दों की चर्चा है और मीडिया में हर आंखें इन्हीं खबरों को ढूंढ रही हैं। मीडिया भी दर्शकों के मर्म को पूरी तरह समझता है, तभी तो पिछले पांच दिनों तक न जाने कितनी बार ‘बाबा लाइव तथा अन्ना लाइव’ के अलावा ‘सरकारी हुक्मरानों का लाइव’ छाया रहा। इस बीच जिस तरह बाबा लाइव व अन्ना लाइव को जनता ने सिर-आंखों पर लिया, उस तरह देश की अवाम ने सरकार के मंत्रियों की बेतुकी सफाई को कितने हल्के में लिए, यह इस बात से समझा जा सकता है कि 8 जून को अन्ना द्वारा राजघाट किए गए अनशन में हजारों लोगों की स्वस्फूर्त उपस्थिति रही। यहां गौर करने वाली बात यह रही है कि किसी राजनीतिक पार्टी की रैली या सभा की तरह ‘बाबा या अन्ना’ के सत्याग्रह-अनशन में भीड़ जुटाए नहीं गए थे, बल्कि वे एक ऐसे मुद्दे के समर्थन में जुटे थे, जिससे भारत का हर अवाम त्रस्त है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि दिल्ली में जारी आंदोलन को देश भर में समर्थन तो मिल ही रहा है, साथ ही दिल्ली में दूसरे राज्यों से भी लोग आंदोलन में शामिल हो रहे हैं। इसी को बाबा रामदेव व अन्ना हजारे अपनी सबसे बड़ी जीत मान रहे हैं और लगातार काला धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ हर स्तर पर लड़ने दंभ भर रहे हैं।
निश्चित ही बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया है, इलेक्ट्रानिक मीडिया का व्यापक कव्हरेज ने। जिस तरह लगातार कई दिनों से बाबा रामदेव तथा अन्ना हजारे मीडिया की टीआरपी का आधार स्तंभ बने हुए हैं। साथ ही मीडिया भी ‘बाबा लाइव तथा अन्ना लाइव‘ से अटा पड़ा दिखाई देता है। मीडिया में अनुमान से ज्यादा कव्हरेज दिखाने से केन्द्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ी हैं, क्योंकि एक अरसे में अब तक ऐसे हालात कभी बने भी नहीं है। लिहाजा इसी का परिणाम रहा है कि इलेक्ट्रानिक चैनलों को सरकार की ओर से पत्र जारी किया गया, जिसमें कहा गया है कि बाबा रामदेव तथा अन्ना हजारे के आंदोलन का ‘लाइव कव्हरेज’ न करें। इसके अलावा इनके आंदोलन से जुड़े कुछ ऐसे मुद्दे को न दिखाएं, जिससे देश में स्थिति बिगड़े। यहां पर सवाल यही है कि क्या बाबा रामदेव की मांग जायज नहीं है ? क्या देश में काला धन वापस आना नहीं चाहिए ? क्या देश से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होना चाहिए ? ऐसे तमाम तरह के सवाल कई बरसों से खड़े हैं, जिनके जवाब पाने आम जनता भी बेचैन है, परंतु केन्द्र सरकार द्वारा इन मुद्दों पर हाथ ही खींचा जा रहा है। अब, जब काला धन तथा भ्रष्टाचार का मुद्दे को लेकर वृहद स्तर पर आंदोलन शुरू हुआ है तो उसे सरकार द्वारा किसी न किसी तरह कुचलने की कोशिश की जा रही है। इससे सरकार की छवि भी धूमिल होती जा रही है। इस बात को सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तथा यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को समझने की जरूरत है, मगर अफसोस, इनकी ओर से जैसा जवाब आना चाहिए, वह नहीं आ सका।
सरकार ने 4-5 जून की दरमियानी रात रामलीला मैदान में जिस तरह दबंगई दिखाते हुए रात में ही हजारों लोगों को पुलिसिया हाथों से खदेड़ा। उसके बाद तो सरकार की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक था, क्योंकि केन्द्र की यही सरकार है, जो यह कहती है कि उसका हाथ, हर आम आदमी के साथ है। जब इस सरकार का हाथ आम आदमी के साथ है, तो फिर क्यों जनताहित के मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है। सरकार काला धन को वापस लाने तथा उन सफेदपोश चेहरों के नाम उजागर करने क्यों पीछे हट रही है ? यह बात भी जगजाहिर है कि अब तक केन्द्र में जितनी भी सरकार रही हैं, उनके कार्यकाल के मुकाबले इस यूपीए सरकार के दामन में भ्रष्टाचार के ज्यादा धब्बे लगे हैं। भ्रष्टाचार के कारण यूपीए की सरकार, जनता की अदालत में पूरी तरह कटघरे में खड़ी है। बावजूद, खुद को पाक-साफ बताने के साथ भ्रष्टाचारियों का बचाव करने, यह सरकार कोई गुरेज नहीं कर रही है। ऐसी सरकार को आने वाले चुनाव में जनता का करारा जवाब जरूर मिलेगा, क्योंकि मीडिया भी आम जनता के दर्द को सामने लाता है, उस पर भी सरकार, दंभी चाबुक चलाने हिचक नहीं रही है।

बुधवार, 8 जून 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - उमा भारती पुराने कुनबे भाजपा में लौट आई है।
पहारू - जिस दिन मूड बिगड़ा, उस दिन पूरे कुनबे को खरी-खोटी सुनाएगी।

2. समारू - रायपुर नगर निगम में खड़ी गाड़ियां डीजल पी रही हैं।
पहारू - कौन सी नई बात है, छग में अरबों के निर्माण कार्य कागजों में हो जाते हैं।

3. समारू - बाबा रामदेव ने केन्द्र सरकार को माफ कर दिया है।
पहारू - यही तो सत्याग्रह व सच्ची गांधीवादी है, कोई एक गाल को मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो।

4. समारू - छग के गृहमंत्री ने डीजीपी पर चंदा वसूली की बात कही है।
पहारू - गृह विभाग में जारी अंतर्द्वंद्ध आज की बात थोड़ी न है।

5. समारू - छग के मंत्रीमंडल में फेरबदल की खबर है।
पहारू - तभी तो कईयों की बांछें खिल गई हैं।

मंगलवार, 7 जून 2011

टेढ़ी नजर

1। समारू -दिग्विजय सिंह ने लादेन को ‘ओसामा जी’ कहा।
पहारू - विवादों में नहीं होने पर उनके पेट का चारा नहीं पचता।

2। समारू - बाबा रामदेव के पीछे भाजपाई राजनीति कर रहे हैं।
पहारू - भाजपा में नैया पार कराने वाला कोई नेता भी तो नहीं है।

3। समारू - छग सरकार दो बच्चों से अधिक होने पर नौकरी नहीं देगी।
पहारू - मगर चार-छह बच्चे वाले नेता को मंत्री जरूर बना सकती है।

4। समारू - बाबा के सत्याग्रह व अनशन से सरकार घबरा गई है।
पहारू - क्यों नहीं, सत्ता की कुर्सी का सवाल जो है।

5। समारू - देश में भ्रष्टाचार व महंगाई चरम पर है।
पहारू - उससे कहीं ज्यादा जनता की लाचारी चरम पर है।