गुरुवार, 21 मई 2009
चल पड़ी जूता मारने की परम्परा
पंद्रहवी लोकसभा चुनाव कई मायनों में यादगार रहेगा क्योंकि प्रचार के दौरान जो स्थिति बनी वह देश व समाज के लिए चिंता का विषय है। प्रचार के दौरान एक के बाद एक जूते मारने की जैसी परमपरा चल पड़ी। अभी भी यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। हद तो तब हो जाती है जब नेताओं को जूता मारने के आंकडे बताने के लिए वेब साईट तक शुरू हो गया है। इस वेब साईट में अब तक जनता ने कई नेताओं को जमकर जूता मारा है। इसके आंकडे वेब साईट में बताये जा रहे है। जूते मारने की परम्परा लगातार बढती जा रही यह स्वस्थ समाज व देश के अच्छी बात नहीं है। यह प्रवित्ति समाज के घातक साबित हो सकती है। आजादी के पहले व बाद में भी नेताओं की छवि इतनी ख़राब नहीं हुई थी और देश की जनता आज भी अनेक नेताओं को पूजते हैं। उनहोंने देश ही में जो कार्य किए उसे लोग आज भी याद करते हैं। ऐसे में अभी ऐसी क्या हो गया जिससे जनता नेताओं के खिलाफ हो गई है। वैसे भी कहा जाता है की दुष्टों की अन्तिम शरण स्थली राजनीती है। आजादी के बाद तो यह बात खोखली नजर आती थी लेकिन आज जिस ढंग से राजनीती का अपराधीकरण हुआ है। इससे जनता परेशान है। जनता ने कुछ अपराधिक प्रविती के नेताओं को चुनाव में संसद तक नहीं जाने देने खिलाफ में मताधिकार का प्रयोग किया हलाँकि बहुत ऐसे नेता चुनाव जितने में कामयाब रहे जो अपराध के आरोप में हैं लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता की जनता उन्हें सबक नहीं सिखाएगी। जनता जरूर कुछ नहीं बोलती नहीं है लेकिन समय आने पर ऐसे नातों को धूल चटाने से पीछे नहीं रहते। इसी का परिणाम है जनता के मन में लबे समय से चल रहा ज्वार ने उबाल मारा है और नेताओं पर जूते बरसने लगे हैं। जनता ने अपना विरोध जूते मारकर प्रकट किया है। हांलांकि यह प्रविती समाज हित के ठीक नहीं है क्योंकि नेताओं पर विरोध जताने के भी और कई रास्ते हैं। बावजूद लोगों में सस्ती लोकप्रियता पाने ऐसे किए जाने की बात सामने आई ऐसे नहीं है की नेताओं द्वारा जनता के हित कुछ अच्छा किया जा रहा हो। यही कारन जनता इन नेताओं पर जूता मारकर गुस्सा उतार रहे हैं । अब जूते मारने की परम्परा चल पड़ी है लोकसभा चुनाव के दौरान एक के बाद एक जूता मरने की घटना ने नेताओं के चेहरे से मुस्कान गायब हो गई है। जूता फेंकने की परिपाटी को समाज हीत में किसी भी तरह अच्छा नहीं कहा जा सकता। पिछले कुछ वर्षों में नेताओं की जनता के बीच साख कमजोर हुई है इसके कई कारन है इसे नेता भी अच्छी जानते हैं तो फिर वे इस परिपाटी को बंद कराने पहल क्यों नहीं करते । नेता लगातार जूते खा रहें हैं लेकिन इससे बचने कोई सकारात्मक पहल क्यों नहीं कर रहे हैं। नेता प्रचार के दौरान भले ही मंच के सामने जाली लगा सकते हैं लेकिन जनता के मन में उनके खिलाफ जो उबाल है उसे दूर नहीं करते। जनता भी परेशान है और कुछ नहीं सूझता तो फिर उछल देते हैं जूता।
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