गुरुवार, 1 सितंबर 2011

भारतीय शिक्षा में खामियों की बढ़ती खाई

यह तो सही है कि भारत में पहले प्रतिभाओं की कमी रही और ही अब है। पुरातन समय से ही यहां की शिक्षा व्यवस्था की अपनी एक साख रही है। कहा भी जाता है, जब शून्य की खोज नहीं हुई रहती तो फिर हम आज जो वैज्ञानिक युग का आगाज देख रहे हैं, वह कहीं नजर नहीं आता। भारत में विदेशों से भी प्रतिभाएं अध्ययन के लिए आया करते थे, मगर आज हालात बदले हुए हैं। स्थिति उलट हो गई है। भारत से प्रतिभाएं पलायन कर रही हैं, उन्हें नस्लभेद का जख्म भी मिल रहा है, लेकिन यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यहां कहना है कि आखिर आज परिस्थिति इतनी विकट क्यों हो गई ? कभी जहां की शिक्षा का दुनिया भर लोहा माना जाता था।
वैदिक युग से लेकर अब तक भारत ने इस बात को सिद्ध कर दिखाया है कि यहां प्रतिभाओं में दुनिया से अलग कुछ कर-गुजरने का पूरा दमखम है। समय-समय पर इस बात को सिद्ध भी कर दिखाया है। इसे हम इस बात से जान सकते हैं कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी भारत की प्रतिभाएं छाई हुई हैं और सबसे अधिक वैज्ञानिक भारत से ही हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिनसे समझ मंे आता है कि भारत में शिक्षा की नींव काफी मजबूत रही है, मगर अभी ऐसा कुछ भी नहीं है। प्रतिभाएं, शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के कारण पूरी तरह दम तोड़ रही हैं और वे विदेशों में बेहतर भविष्य की चाह लिए पलायन करने मजबूर हैं। इसके लिए निश्चित ही हमारी शिक्षा नीति ही जिम्मेदार है। इस बात पर गहन विचार करने की जरूरत है।
भारतीय शिक्षा में तमाम तरह की खामियां हैं, जिसकी खाई में देश की प्रतिभाएं समाती जा रही हैं। स्कूली शिक्षा में जहां-तहां देश में आंकड़ों के लिहाज से बेहतर स्थिति के लिए सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है, लेकिन उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा में उनके सभी दावों की पोल खुलती नजर आती है। एक आंकड़े के अनुसार देश में हर बरस 22 करोड़ छात्र स्कूली शिक्षा ग्रहण करते हैं, या कहें कि बारहवीं की शिक्षा प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर देश की उच्च शिक्षा में व्याप्त भर्राशाही व खामियों का इस बात से पता चलता है कि यही आंकड़े यहां 12 से 15 फीसदी के रह जाते हैं। कहने का मतलब मुट्ठी भर छात्र ही उच्च शिक्षा की दहलीज पर चढ़ पाते हैं। ऐसी स्थिति में विदेशों में पढ़ने की चाहत छात्रों में बढ़ जाती है, क्योंकि वहां कॅरियर निर्माण की व्यापक संभावनाएं नजर आती हैं।
देश में कुछ प्रतिभाएं ऐसी भी रहती हैं, जो चाहती हैं कि वो पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत में ही अपनी उर्जा लगाए, लेकिन यहां हालात उलटे पड़ जाते हैं। उन्हें पर्याप्त संसाधन मुहैया नहीं होता, लिहाजा वे मन मसोसकर यहां पलायन करने में ही समझदारी दिखाते हैं। भारत से हर साल लाखों छात्र पढ़ाई के लिए विदेशी धरती पर जाते हैं, उनमें से अधिकतर वहीं अपना कॅरियर बना लेते हैं। देखा जाए तो अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड समेत कुछ और देश हैं, जहां भारतीय छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं। वैसे दर्जन भर देश हैं, जो भारतीय छात्र दिलचस्पी दिखाते हैं, मगर अमेरिका व आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड जैसे देश मुख्य खैरख्वाह बने हुए हैं।
बीते साल आस्ट्रेलिया में नस्लभेद के नाम पर भारतीय छात्रों पर कई हमले हुए। इन घटनाओं के बाद आस्ट्रेलिया जाने वाले छात्रों की संख्या में बेतहाशा कमी आई है, लेकिन अंततः प्रतिभा पलायन के आंकड़ों पर गौर फरमाए तो स्थिति कुछ बदली हुई नजर नहीं आती है, क्योंकि इतने छात्र दुनिया के अन्य देशों की ओर उन्मुख हो गए।
भारतीय शिक्षा में व्याप्त खामियों एक बात से और उजागर होती है कि देश में करीब छह सौ विश्वविद्यालय हैं। यहां पर जैसा शैक्षणिक माहौल निर्मित होना चाहिए या कहें कि व्यवस्था में सुधार होना चाहिए, वह नहीं होने से प्रतिभाओं को उस तरीके से विकास नहीं हो पाता और न ही वे पढ़ाई में अपनी प्रतिभा का जौहर दिखा पाते हैं, जिस तरह विदेशी विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था में देखी जाती है।
हमारा दुर्भाग्य देखिए कि दुनिया में गुणवत्ता व मापदंड वाले 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। अमेरिका व इंग्लैण्ड ही इस सूची में छाए हुए हैं। भारत के लिए विचार करने की जरूरत है कि पहले 20 विश्वविद्यालयों में अधिकांशतः अमेरिका के ही हैं। हम अपनी पुरातन शिक्षा व्यवस्था पर जितना भी गर्व कर लें, इठला लें, मगर आज हमें इत बात का स्वीकारना पड़ेगा कि कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था में खामियां हैं, जहां व्यापक स्तर पर सुधार किए जाने की जरूरत है। सोचने वाली बात है कि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल का, पिछले साल बयान आया था कि देश में 300 विश्वविद्यालय और खोले जाएंगे। इसका मुख्य ध्येय उच्च शिक्षा का विकेन्द्रीकरण करना था। अंतिम तबके के छात्रों तक उच्च शिक्षा की पहुंच बनानी थी, मगर सवाल यह है कि पहले जो विश्वविद्यालय देश में बरसों से संचालित हैं, पहले उनकी हालत तो सुधारा जाए। जब उन्हीं स्थिति बदहाल रहेगी, उसमें भी और विश्वविद्यालय लादने का भला क्या मतलब हो सकता है ? फिलहाल ये विश्वविद्यालय नहीं खोले गए हैं और इसकी प्रक्रिया की सुगबुगाहट की खबर भी नहीं है। हमारा कहना यही है कि यदि शिक्षा व्यवस्था में नीचले स्तर अर्थात स्कूली शिक्षा से सुधार किया जाए तो इसके सार्थक परिणाम सामने आएंगे। इस बात को समझना होगा कि जब तक हमारी नींव मजबूत नहीं होगी, हम उच्च शिक्षा में जैसा परचम लहराना चाहते हैं, वैसा कुछ नहीं कर सकते।
एक अन्य खामियां तकनीकी शिक्षा अर्थात इंजीनियरिंग की शिक्षा में हैं। देश में हर बरस करीब 3 लाख इंजीनियरिंग छात्र पास आउट होते हैं, मगर एक आंकड़ें की मानें तो महज 10 प्रतिशत छात्र ही नौकरी के काबिल होते हैं। यह भी हमारी इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए बहुत बड़ा सवाल है ? आखिर कैसी शिक्षा दी जा रही है, जिससे छात्रों की काबिलियत ही कटघरे में खड़ी दिखाई दे रही है। यही कारण है कि जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर छात्र आते हैं तो उनमें से अधिकतर को बेरोजगारी की मार झेलनी पड़ती है। इस स्थिति से भी निपटने के लिए सरकार को तकनीकी शिक्षा में भी सुधार के लिए हर स्तर पर प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यही ढर्रा आगे भी चलता रहेगा कि तो यह हमारे शिक्षा की सेहत व भविष्य निर्माण के लिए बेहतर नहीं होगा।
इन खामियों की खाई को हमें कैसे पाटना है और इसके लिए कैसी नीति बनाई जाए, इस दिशा में अभी से सरकार को विशेष कदम उठाना होगा। नहीं तो, देश से प्रतिभा पलायन करती रहेंगी। हम इस बात से ही खुश होते हैं कि अमुक भारतीय वैज्ञानिक या छात्र ने विदेश पर उपलब्धि का झण्डा गाड़ रहा है। यहां अपनी छाती चौड़ी करने को हमें कोई हक नहीं बनता, क्योंकि उन प्रतिभाओं को मंच देने में नाकामयाब रहे। निश्चित ही इस समय कहीं न कहीं हमारी साख पर बट्टा लगेगा। यह तो गहन विचार का विषय है।

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