आधुनिकता की चकाचौंध जिस तरह से समाज पर हावी हो रही है, उससे समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा हो रही हैं। एक समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय जैसे कई अमर सपूतों ने लंबी जंग लड़ी और समाज में जागरूकता लाकर लोगों को जीवन जीने का सलीका सिखाया। आज की स्थिति में देखें तो समाज में हालात हर स्तर पर बदले हुए नजर आते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है, मगर यह चिंता की बात है कि इस दौर में हमारी युवा पीढ़ी आखिर कहां जा रही है ? समाज में इस तरह का माहौल बन रहा है, जिससे कहीं नहीं लगता कि यह वही समाज है, जिसकी कल्पना हमारे समाज सुधारकों ने की थी। इस तरह आज जो घट रहा है, उससे समाज में नैतिक दिवालियापन बढ़ता दिखाई दे रहा है। इस तरह की करतूतों को किसी भी सूरत में स्वच्छ समाज के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।
हाल ही में छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार में जो हादसा हुआ, उससे एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है कि हम कहां जा रहे हैं और हमारा समाज आज आखिर कहां जा रहा है और क्यों वह दोराहे पर खड़ा नजर आ रहा है ? इन सवालांे के जवाब खोजने कोई संजीदा नजर नहीं आता, यदि ऐसा नहीं होता तो समाज की मूल भावनाओं को रौंदने वाली घटनाएं बार-बार नहीं होती ? बुड़गहन गांव के एक शिक्षक माखन लाल वर्मा को कुछ युवकों ने महज इसलिए पीट-पीट कर मार डाला कि उन्होंने मनचलों को एक लड़की से छेड़खानी नहीं करने की नसीहत दे डाली। मीडिया में जिस तरह की बातें सामने आई हैं, उसके मुताबिक बलौदाबाजार के शिक्षा विभाग कार्यालय के पास शिक्षक माखन लाल वर्मा गुजर रहे थे, यहां कुछ युवक एक लड़की से फब्तियां कस रहे थे। शिक्षक माखन लाल ने उन युवकों से लड़की को इस तरह छेड़खानी नहीं करने की बात कही, उसके बाद तो उन्हीं पर आफत आ गई और युवकों ने उसकी जमकर पिटाई कर दी। स्थिति यहां तक बन गई कि शिक्षक को गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया गया और वहां उन्होंने दम तोड़ दिया। मनचले युवाओं की घिनौनी कारस्तानी की वजह से समाज और एक परिवार ने आज एक ऐसे व्यक्ति को खो दिया, जिनके मन में समाज सुधार की निःस्वार्थ भावना थी। यहां सवाल उठता है कि आखिर हमारी युवा पीढ़ी की सोच में इतना नकारात्मकता आने का कौन सी वजह है ? एक शिक्षक की नसीहत को इन मनचलों ने इस तरह से अपने दिमाग में भर लिया, जिससे एक परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और वे खुद सलाखों के पीछे हैं। बलौदाबाजार में जो घटा, उसे केवल आधुनिक समाज का घिनौना रूप ही कहा जा सकता है, जिसे ओढ़े हमारी युवा पीढ़ी गर्त में डूबती जा रही है, जिसका परिणाम इस तरह की घटनाओं के रूप में सामने आ रही है।
एक और घटना का यहां जिक्र करना जरूरी है, क्योंकि समाज में चौतरफा मानवीय मूल्यों की गिरावट होने का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। कुछ महीने पहले की बात है, जांजगीर-चांपा जिले के एक गांव में ऐसी घटना हुई, जिसे कोई भी सुनकर सिहर उठा। दरअसल हुआ यह, बड़े भाई ने अपने छोटे भाई को घर के भीतर मजाक में यह बातें कही कि बाहर आंगन में सांप निकला है और वह उसे देखकर आ जाए। इसके बाद उस व्यक्ति का छोटा भाई आंगन में जाकर देखा तो सांप नहीं था। वह लौटा और अपने बड़े भाई से गुस्से भरे लफ्जों से पूछा कि वहां सांप नहीं है ? इस पर बड़े भाई ने मजाक की बात कही, इसके बाद तो उसके छोटे भाई इस तरह तुनक गया तथा सिर पर गुस्सा ऐसा सवार हुआ कि लाठी से पीट-पीटकर उसने अपने बडे़ भाई को अधमरा कर दिया। बाद में अस्पताल में उस व्यक्ति की मौत हो गई। मामूली विवाद के बाद इस तरह हुई घटना ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया। घटना के बाद उसके छोटे भाई की आंखें पश्चाताप से भरी थीं, लेकिन अब कहां उसका बड़ा भाई वापस आने वाला था ? यहां हमारा यही कहना है कि किस तरह लोग आवेश में आकर खून के रिश्ते को भी भूल जाते हैं और ऐसी घटनाओं को अंजाम दे जाते हैं, जिसकी परिणिति पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। हालात यहां तक बन जाते हैं कि ये घटनाएं बरसों तक समाज में एक काला धब्बा बनकर रह जाती हैं।
कई रिपोर्टों में इन बातों का खुलासा हो गया है कि युवाओं में तनाव और अवसाद के कारण इस तरह की मानसिक विकृतियां घर कर रही है, जिससे समाज में शांति कायम होना मुश्किल हो जाता है। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। साथ ही परिवार में भी सुसंस्कारित माहौल बनाए रखने की जरूरत है, तभी ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है। यह समय था, जब शिक्षक का भगवान की तरह पूजा किया जाता था और उनका कहा- एक लक्ष्मण रेखा मानी जाती थी। भला कैसे कोई द्रोणाचार्य तथा एकलव्य की शिष्य-गुरू भक्ति को भुला सकता है। वैसे भी गुरू को माता-पिता से बढ़कर समझा जाता है, इसका शास्त्रों में भी उल्लेख है। यह बात भी सही है कि अभिभावक, बच्चों में संस्कारित शिक्षा दिलाने कोई भी कुर्बानी देने को हर पल राजी रहा करते थे, किन्तु आज की परिस्थितियां काफी हद तक बदल गई हैं और आज अभिभावकों की नजर में शिक्षक, गुरू न होकर महज एक ककहरा सिखाने वाला व्यक्ति बनकर रह गए हैं, क्योंकि अनुशासन की बात आती है तो वहां अभिभावकों की दुलार बाधक बनती है। इसका अंजाम फिर उन अभिभावकों को भुगतना पड़ता है, क्योंकि पहले तो उदंड बच्चे, शिक्षक के हाथ से निकल जाते हैं, फिर वे एक उम्र के बाद अभिभावकों के बस से बाहर हो जाते हैं। हमारा मानना है कि यदि बचपन से ही संस्कारित शिक्षा और समाज के प्रति किसी व्यक्ति का कितना दायित्व होता है, इसके बारे में बताए जाने से ऐसे हालात निर्मित होना कम हो जाएगा। एक और बात है, आज की शिक्षा महज रोजगार देने वाली ही रह गई है और यह बड़ी आसानी से रोटी तो दे जाती है, लेकिन वह जगह खाली रह जाती है, जिससे मानवता की पाठ को समझा जा सके। यही कहा जा सकता है कि शिक्षा में नैतिक मूल्यों को बचाने की कवायद जरूरी है, क्योंकि इसके बिना स्वच्छ समाज के निर्माण की बात बेकार लगती है।
बदलते परिवेश के साथ युवा पीढ़ी में नैतिक पतन हो रहा है, वह सामाजिक मूल्यों के लिहाज से ठीक नहीं है। ऐसे में सरकार, समाजसेवी और शिक्षाविदों को नई पीढ़ी को एक गहरी खाई में गिरने से बचाने की पहल किए जाने की जरूरत हैं, कहीं ऐसा न हो जाए कि युवा पीढ़ी के सिर पर जब हम हाथ रखें, तब तक काफी देर हो जाए। समाज में बढ़ रही आपराधिक घटनाओं को लेकर अधिकतर तौर पर यह बातें सामने आती हैं कि नशाखोरी के चलते ऐसी वारदात घटित होती हैं। साथ ही गांव-गांव में शराब की आसानी से उपलब्धता भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जा रही है। समाज में एक-दूसरे के प्रति वैमन्यस्यता को और बढ़ाने में नशाखोरी एक बड़ा कारण बनकर सामने आ रही है। ऐसे हालात में सरकार को भी समाज में बढ़ती इन सामाजिक कुरीतियों से निपटने कारगर कदम उठाने की जरूरत है। इस लिहाज से देखें तो सरकार की मंशा केवल राजस्व प्राप्ति की नहीं होनी चाहिए, उन्हें समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। अब सवाल यही है कि आखिर हमारा समाज कहां जा रहा है ?
रविवार, 26 दिसंबर 2010
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1 टिप्पणी:
सार्थक चिंता, लेकिन यह सवाल लगभग दो हजार से भी अधिक सालों से अलग-अलग संदर्भों में पूछे जाने का इतिहास मिलता है.
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