सोमवार, 14 जनवरी 2013

बातों-बातों में...

खाक तो छाननी पड़ेगी
मिशन 2013 के नजदीक आते ही जनता से मेल-मिलाप का ‘मिशन’ भी शुरू हो गया है। गांवों के खाक छानने के साथ ही गिले-शिकवे भी दूर करने की कोशिशें हो रही हैं। हालांकि, पिछले चुनाव होने के कई साल तक सोने के बाद, अब जागने का कितना फल मिलेगा, यह तो जनता ही बताएगी, लेकिन चुनावी चक्कर में क्या ‘चक्कर’ चलेगा, यह भी देखने वाली बात होगी।

‘अर्जी’ देने का दर्द...
हाल ही में जिले से लेकर राजधानी रायपुर तक गरजने वालों का दर्द की क्या कहें, एक तो सरकार ने अड़ियल रहकर उनकी मांगों पर सहमति नहीं जतायी। कुछ लालीपॉप देने की कोशिश हुई, उस पर बात नहीं बनी। आलम यहां तक आ गया कि रण छोड़ना पड़ा, मगर मन की टीस खत्म नहीं हुई। सरकार पर चुनाव में भड़ास निकालने की चुनौती कायम है, किन्तु खुद की नौकरी वापस पाने की जद्दोजहद के बीच, अब उन्हें वापसी की ‘अर्जी’ देने का दर्द भी सालने लगा है। सरकारी नीति की आग में ऐसे जले कि छांछ को भी फूंक-फंूक कर पीते नहीं बन रहा है।

साहब बनने की ‘खुशनसीबी’
एक विभाग का अधिकारी ऐसा है, जिन्हें प्रभार का ‘साहब’ बनने का ही नसीब हासिल हुआ है। जब भी विभाग का कोई साहब कुर्सी संभालता है, उसके बाद, वे खुद को कतार में पाते हैं। कुछ महीने तक ‘साहब’ की कुर्सी खाली हो जाती है, फिर अधिकारी की बांछें खिल जाती हैं। साहब बनने का उनका सपना एक बार फिर साकार हो जाता है। ऐसा ही सिलसिला कई साल से चल रहा है और उन्हें ‘साहब’ बनने की ‘खुशनसीबी’ हासिल हो रही है। इतना ही नहीं, किसी भी बड़े साहब को साधना उन्हें बखूबी आता है, तभी तो वे उनके खास माने जाते हैं।

ग्रामीण ‘नेतागीरी’ का चस्का
एक नेता ऐसे हैं, जिन्हें पार्टी संगठन ने बड़े ओहदे पर बिठा तो दिया है, लेकिन उनकी ग्रामीण ‘नेतागीरी’ करने का चस्का खत्म ही नहीं हुआ है। लिहाजा, संगठन में जो सक्रियता नजर आनी चाहिए, वह दिखती नहीं है। इस तरह आने वाले चुनाव में संगठन की सुस्ती का कहीं खामियाजा, उन नेताओं को न भुगतना पड़ जाए, जो चुनावी वैतरणी पार लगाने की जुगत में लगे हैं। संगठन ने जो बड़ी जिम्मेदारी सौंपी, उसके बाद ग्रामीण नेतागीरी ने जरूर जोर पकड़ी, क्योंकि जहां से पकड़ है, वहीं तो जुगत की तलाश होती है। आखिर, वे करें तो क्या करें, आदत में जो शुमार हो गई है, ग्रामीण नेतागीरी। अब संगठन को ही सोचना होगा...

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