शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

यह दावा किसके दम पर ?

अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता अटकलबाजी करने से सबक नहीं लेता। ऐसा ही राजनीतिक रूप से एक बड़ा दावा, दस जनपथ और देश के नं. 1 दामाद राॅबर्ट वाड्रा ने किया है। हालांकि वे अब तक राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, किन्तु उनके बयान से ऐसा ही कयास लगाया जा रहा है कि देर-सबेर वे राजनीति में कूद पड़ेंगे। वैसे राॅबर्ट वाड्रा फिलहाल बिजनेश में व्यस्त हैं और इसी काम में अपनी खुशी जताते हैं, लेकिन आखिर उन्हें कौन सा शुरूर सवार हो गया है कि वे दंभी मन से राजनीति के मैदान में कूदने की इच्छा जता रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद, राॅबर्ट वाड्रा ने कुछ दिनों पहले एक अंग्रेजी अखबार से साक्षात्कार के दौरान, जो कुछ दावा किया, वह राजनीतिक हल्कों पर नजर रखने वाले किसी भी जानकार के गले नहीं उतरता। उन्होंने कहा कि यदि वे राजनीति में कदम रखते हैं तो देश में कहीं से भी चुनाव जीत सकते हैं। उन्होंने कहा कि सही समय आने पर वे राजनीति में जरूर आएंगे। साथ ही उनका यह भी कहना है कि जब उन्हें लगेेगा, राजनीतिक क्षेत्र के बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल हो गई है और पर्याप्त समय दिया जा सकेगा, तब वे राजनीति में आ जाएंगे। यहां हमारा यही कहना है कि राजनीति में जो चाहे आ जाएं और जहां चाहे वहां से चुनाव मैदान में उतर जाएं, लेकिन दस जनपथ के दामाद राॅबर्ट वाड्रा का वह दावा कि उन्हें कोई चुनाव नहीं हरा सकता।ं उन्होंने जो कहा है, उसका यही मतलब निकाला जा सकता है, क्योंकि वे किसी भी जगह से चुनाव जीतने का दमखम दिखा रहे हैं। यहां एक बात और है, आखिर वे यह दावा किसके दम पर कर रहे हैं ? ठीक है कि वे एक ऐसे परिवार के दामाद हैं, जहां राजनीति की नर्सरी से लेकर पूरा बगीचा, देश में तैयार होता आ रहा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे कुछ भी कह जाएं, जिसे कोई भी नहीं पचा पाए। कोई भी सुलझे हुए राजनीतिज्ञ भी ऐसे बयान देने के पहले सौ बार सोचेगा, क्योंकि देश के मतदाताओं ने कई अवसरों पर इस तरह दावा करने वाले राजनेताओं को किस तरह सबक सिखाया है, यह किसी से छुपी नहीं है। 15 वीं लोकसभा चुनाव में जनता ऐसे कई दंभी नेताओं अपनी वोट की ताकत से मजा चखा चुके हैं। इसके इतर, बड़ी शाख का दावा करने वाले नेता भी अपनी वैतारणी पार लगाने एड़ी-चोंटी चुनाव में एक कर देते हैं, बावजूद कई बार उन दावे के मुगालते, उन नेताओं को मुंह की खानी पड़ती है। देश के दामाद नं. 1 राॅबर्ट वाड्रा, अब यह ना सोंचे कि देश की जनता नासमझ है, क्योंकि उनके दिलो-दिमाग में ऐसी कोई बात नहीं होती तो वे ऐसे कोई दावे करने से जरूर परहेज करते। जनता अब जागरूक हो गई है, इसका प्रमाण वे कई आम चुनावों में दे चुकी हैं। लंबे अंतराल तक सत्ता के मद में चूर रहकर, जनता के हितों को दरकिनार कर काम करने वाले नेताओं को यही जनता अपने मताधिकार से मजा चखा चुकी हंै, जब मंजे हुए राजनीतिज्ञों को आम जनता के मन में क्या है ? और वे किसके पक्ष में रहेंगे, उन पहुंचे हुए नेताओं को पता नहीं चलता तो फिर कहा जा सकता है कि राॅबर्ट वाड्रा, किस आधार पर ऐसा दावा कर, इतरा रहे हैं। आखिर वे किसके दम और सह पर इतनी बड़ी बात कह गए, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। यह बात ठीक हो सकती है कि वे राजनीति में उतरकर हाथ आजमा सकते हैं, लेकिन इतना दंभी होने का भला क्या मतलब है और यह किस ओर इशारा कर रहा है, यह राजनीति के जानकारों के समझ से परे है। देखा जाए तो राॅबर्ट वाड्रा का कोई राजनीतिक शाख नहीं है, वह केवल देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी प्रमुख श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद हैं और कांग्रेस के युवराज माने जाने वाले राहुल गांधी के बहनोई तथा पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की बेटी प्रियंका गांधी के पति हैं। राजनीतिक रूप से इस परिवार के अधिकांश लोगों ने राजनीति में कदम रखकर एक कीर्तिमान स्थापित किए हंै। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. गांधी के सूचना क्रांति लाने के प्रयास को भला देश का कोई नागरिक कैसे भूल सकता है। साथ ही उस पल को कौन गंवाना चाहेगा, जब कोई देश के प्रधानमंत्री जैसे पद पर विराजित होने वाला हो, किन्तु श्रीमती सोनिया गांधी ने इस ओहदे को ठुकरा कर दुनिया के सामने एक नई मिसाल कायम किया है। इसके अलावा कई राज्यों में दम तोड़ रही कांग्रेस तथा इस पार्टी की युवा शक्ति को संजीवनी देने वाले राहुल गांधी के राजनीतिक हस्तक्षेप को कैसे कोई ठुकरा सकता है। जब से राहुल गांधी ने राजनीति में कदम रखा है, उसके बाद से कांग्रेस में नई जान आ गई है। राजनीतिक क्षेत्र के अन्य पार्टियां, राहुल गांधी के विकल्प तैयार करने में फिलहाल इन बीते सालों में अक्षम ही साबित हुई हैं। यह तो इस परिवार की राजनीतिक दखल की एक बानगी भर हो सकती है। यदि इतिहास को खंगालें तो इस परिवार की राजनीतिक विरासत की एक लंबी फेहरिस्त है। इसी परिवार की पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रमाता के रूप में पहचान बनाने वाली प्रियदर्शिनी स्व. इंदिरा गांधी की भी राजनीतिक हस्तक्षेप यादगार रहा है और एक महिला होने के बाद भी, उस दौर में उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में पुरूष प्रधान समाज के कई बड़े नेताओं को पछाड़कर अपनी पहचान बनाई थी। हो सकता है कि गांधी परिवार की इन्हीं राजनीतिक उपलब्धि को लेकर इस परिवार का दामाद राॅबर्ट वाड्रा, यह कहने से तनिक भी नहीं हिचकिचाए कि वे राजनीति में आएं तो कहीं से भी चुनाव जीत सकते हैं। ऐसा लगता है, जैसे उनके हाथ में राजनीतिक मामले में जादू की कोई छड़ी है। आखिर उन्होंने कौन सी मनोदशा लेकर यह बातें कही है, वही जानें, लेकिन इतना जरूर लगता है कि अब वे अपने बिजनेश से उब गए हैं, तभी तो वे कभी मन बनें, तो राजनीति में आने की बात बेबाकी से कह गए। राॅबर्ट वाड्रा को किस हाथ का भरोसा है, यह तो वही समझे, लेकिन राजनीति जानकार तो यही कह रहे हैं कि जरूर वे उस परिवार के प्रति जनता के बीच बनी छवि को आधार बनाकर चुनाव लड़ने की सोंच रहे होंगे, क्योंकि देश की एक बड़ी आबादी अभी भी गांधी परिवार से दूर नहीं हुई हैं, लेकिन बदलते समय के साथ राजनीतिक हालात में भी काफी बदलाव आ गए हैं। दामाद बाबू को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह दौर अब नहीं है। जनता के मन में गांधी परिवार के लोगों के प्रति सम्मान की भावना होना लाजिमी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राॅबर्ट वाड्रा, कहीं भी चले जाएं, चुुनाव लड़ें और जीत जाएं, यह तो केवल उनके मन में समाए शेखचिल्ली का महज सपना ही लगता है। उस दावे से जुड़े बातों को लेकर राजनीतिक इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि कई बड़े नेता भी इसी तरह के दावे करते रहे हैं और वे अपने दावे पर मात भी खाते रहे हैं। राॅबर्ट वाड्रा यह कहते हैं कि वे कहीं भी जीत सकते हैं, तो उन नेताओं का क्या कहें, जो किसी पार्टी की कमान तो देश भर में संभालते हैं, लेकिन चुनावी परीक्षा में खुद को कमजोर पाते हैं, क्योंकि कई मर्तबा यह देखने में आ चुका है, जब कई बड़े नेता दो-दो चुनावी क्षेत्रों से चुनाव लड़ते रहे हैं। जब उन्हें जीत का गुमान होता है तो फिर वे क्यों दो सीटों से चुनावी मैदान पर उतरते हैं ? जाहिर सी बात है कि उन्हें भी हार का डर सताता है और वे जानते हैं कि चुनावी रण में पस्त हुए तो कहीं के नहीं रहेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी जब चुनाव हारे हों और इस फेहरिस्त में पूर्व प्रधानमं.त्री अटलबिहारी वाजपेयी का भी नाम हो तो राॅबर्ट वाड्रा जैसे राजनीति में आने वाले नए-नवेले व्यक्ति को यह बात तो सोचना ही चाहिए, जब जनता ने इन्हें नकार दिया तो फिर उनका क्या। यहां दो-दो सीटों पर चुनाव लड़ने की एक लंबी फेहरिस्त हो सकती हैं, इनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, राजद के लालू यादव जैसे कई शख्सियतों के नाम हैं। जब इन नेताओं को अपनी जीत की चिंता है तो फिर इनके मुकाबले राॅबर्ट वाड्रा की ऐसी कोई राजनीति काबिलियत एक कौड़ी की भी नहीं है। इन बातों को उन्हें आत्मसात करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि जब वे जनता के सामने आएं और चुनाव लड़ें और उन्हें हार का सामना करें तो यहां राॅबर्ट वाड्रा की किरकिरी कम होगी, वहीं इससे यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी तथा उनके परिवार और कांग्रेस की शाख दांव पर लग जाएगी। ऐसे में उन्हें इन बचकाने दावों से बचना चाहिए। जब बड़े नेताआंे की ऐसी सोंच हो सकती है तो राॅबर्ट वाड्रा की तो अभी तक कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है और न ही कोई ऐसी सफलता, जिसके दम पर वे ऐसे दावे करने के हकदार बनंे। यहां केवल यही नजर आता है कि वे एक ऐसे परिवार के दामाद हैं, जिनका देश की राजनीति में दबादबा रहा है और कांगे्रस जैसी देश की सबसे बड़ी पार्टी के बड़े नेता के परिवार से हैं। हालांकि यह बताना महत्वपूर्ण है कि राजनीति में अपनी जीत तय करने और खुद की शाख बनाने के लिए केवल किसी बड़े परिवार का होना ही जरूरी नहीं हैं, इसके लिए जनता से जुड़ाव होना मायने रखता है, लेकिन अब तक की स्थिति को देखें तो राजनीति हस्तक्षेप के मामले में राॅबर्ट वाड्रा दूर-दूर तक नहीं ठहरते। इतना जरूर है कि राॅबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गांधी, निश्चित ही समय-समय पर राजनीतिक मंचों तथा चुनाव प्रचार में भाग लेती रही हैं और इस तरह उनका एक अनुभव नजर आता है। राहुल गांधी ने जब पिछले साल लोकसभा चुनाव लड़ा तो प्रियंका गांधी का ही हस्तक्षेप रहा, क्योंकि राहुल गांधी तो देश भर में प्रचार करने चले जाते थे और अमेठी की कमान प्रियंका के हाथ में होती थी। फिलहाल इस बयान पर इतना ही कहा जा सकता है कि कहीं से भी चुनाव में जीत लेना, चुटकी का खेल नहीं है। इसके लिए बड़े दांव-पेंच की जरूरत होती है और सबसे बड़ी बात होती है, तो वह है, जनता के हितों के लिए कार्य करना, लेकिन राबर्ट वाड्रा तो एक बिजनेशमेन हैं। ऐसे में वे जनता के दर्द को एक बिजनेशमेन की तरह तो महसूस नहीं कर सकते, इसके लिए निश्चित ही उन्हें उन अंतिम छोर के लोगों का दिल जीतना होगा और उनके उत्थान के लिए कार्य करना होगा, जिनके सिर पर हाथ रखने की दुहाई देकर कांग्रेस सत्ता में काबिज हुई है। उन्हें भी ऐसा ही कोई पैतरा आजमाना सीखना होगा, तभी तो राजनीति समर में कूदें, अन्यथा यह भी समझें कि केवल दावे करने से ही कोई भी आरजू पूरी नहीं होती।

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