सोमवार, 20 मई 2013

बातों-बातों में...

घोटालों का मिशन
स्वतंत्रता के समय ‘मिशन’ का मतलब कुछ और था, मगर आज मिशन की परिभाषा ही बदल दी गई है। जिस विभाग को शिक्षा के विकास का मिशन पूरा करने की जिम्मेदारी दी गई है, वह तो घोटालों के मिशन की फेहरिस्त लंबी करता जा रहा है। वैसे कागज रंगने से किसी गरीब का पेट नहीं भरता, लेकिन मिशन वाले अफसरों की जेबें जरूर भरती हैं। इसीलिए कभी ‘व्हाइट’ तो कभी ‘बिजली’ से जेबें गर्म होती हैं। बिजली से सभी को करंट लगता है, परंतु मिशन के साहब हैं कि उन्हें बिजली व व्हाइट से ही खासे लगाव हैं।

लगा लो एड़ी-चोटी...
विधानसभा चुनाव होने में 6 महीने बचे हैं, लेकिन सियासी पारा अभी से चढ़ गया है। कई टूटपूंजिए नेता भी अपनी साख बताकर, टिकट के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। देखने वाली बात होगी, उनका चुनावी बुखार कब तक उतरता है ? निश्चित ही, जब टिकट का दौर खत्म हो जाएगा और किसी एक नाम पर मुहर लग जाएगी। इसके बाद शुरू होगा, हराने-जिताने एड़ी-चोटी का खेल। दम-खम का खेल, जो अभी शुरू हुआ है, वह आगे भी जारी रहेगा। मजे लेने वाले तक खूब मजे ले रहे हैं। खेल कोई और रहा है, खिलाड़ी कोई और है, देखने वाले दर्शक तो मजे लेंगे ही न।

...कब सुधरोगे महोदय
पढ़ाई-लिखाई वाले साहब को ‘शिक्षा’ को अग्रसर करने के बजाय ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ खेलने में बड़ा मजा आता है। पहले भी जब वे तैनात थे तो फर्नीचर का खेल खूब खेला गया। एक बार फिर वही खेल, खेलने की तैयारी पूरी कर ली गई है। लकड़ी, भला किसे सौगात दे सकती है, परंतु ये साहब तो पत्थर से भी पानी निकालने वाले हैं। लिहाजा, लकड़ी से भी पैसे का रस निकालने में भी माहिर हैं। ऐसे में उनका पूरा अनुभव है, जिसका लाभ उठाने की एक बार फिर जुगत भिड़ा दी गई है और इस तरह ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ का खेल दोबारा शुरू हो गया है। यही वजह है कि उन्हीं के कई बंदे कहने लगे हैं, ...कब सुधरोगे महोदय।

नेेता बनाम सपनों के सौदागर
जिले में कुछ नेता, राजनीति कम करते हैं, वे सपनों के सौदागर बनकर ज्यादा घूमते हैं और राजनीति का झोला ओढ़कर ‘सपने’ बेचने का काम करते हैं। कोई बेरोजगार दिखा नहीं कि शुरू हो गए, उन्हें नौकरी का सब्जबाग दिखाने। इस तरह सपनों के सौदागर बनकर लाखों रूपये का जुगाड़ भी हो जाता है। देखा जाए तो सपना देखने से कुछ मिलता नहीं है, लेकिन वे नेता, सपनों की सौदागरी में इतने माहिर हैं कि बेरोजगारों को दिन के सपने भी सच लगते हैं और फिर नौकरी की खातिर सौंप देते हैं, अपनी जीवन भर की कमाई। हालांकि, सपने पूरे होने के पूरे दावे किए जाते हैं, लेकिन गारंटी कुछ नहीं होती। सपनों को बेचने का ताना-बाना बुनने का तमाशा,  अरसे से चल रहा है, क्योंकि नेतागिरी की गाड़ी को ‘ईंधन’ यहीं से मिलता है।

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