रविवार, 12 मई 2013

’कांग्रेस’ हित में नहीं, ये नीति ?

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, राज्य निर्माण के पहले जितनी सशक्त थी, अपनी नीतियों की वजह से कुछ बरसों में कमजोर होती गई। यही वजह रही कि कांग्रेस के ‘हाथ’ से सत्ता भी खिसक गई और उसके बाद पिछले 9 बरसों से कांग्रेस व कांग्रेसी, वनवास झेल रहे हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के हालात सुधरे नहीं हैं। इतना जरूर है कि पहले की स्थिति से कांग्रेस मजबूत हुई है, किन्तु चुनाव के पहले, जिस तरह की नीति अपनायी जा रही है, वह कहीं कांग्रेस के लिए ही घातक साबित न हो जाए ? वैसे तो सभी पार्टियों में देखने में आता है कि ऐन चुनाव के पहले रूठों को मनाया जाता है, या फिर जिन्होंने किसी कारण से पार्टी से दूरी बना ली थी, उनके लिए पार्टी में आने के द्वार खोल दिए जाते हैं। सबसे अहम सवाल यही है कि क्या, ऐसे लोगों से पार्टी का भला हो पाता है ? पुराने रेकार्ड को भी खंगाला जाए तो बहुत कम ही ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिसमें कभी विरोध में रहे नेताओं के ‘साथ’ आने से पार्टी को लाभ हुआ हो ? अधिकतर मामलों में पार्टियों को नुकसान ही होता है। पता नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता अपनी किस रणनीति के तहत ऐसे निर्णय लेते हैं, जो पार्टी के कदम को अग्रसर करने के बजाय, रोड़ा साबित होता है।
2000 में जब छत्तीसगढ़, अलग राज्य बना, उस दौरान कांग्रेस को विधायकों की अधिक संख्या की वजह से चुनाव के बगैर ही, सरकार बनाने का मौका मिला। निश्चित ही, इस समय कांग्रेस का वर्चस्व कायम था। सरकार बनने के बाद भी कांग्रेस की साख कमजोर नहीं हुई थी, लेकिन कांग्रेसियों के मध्य ही आपसी कलह के कारण ही, कांग्रेस को सत्ता से दूर होना पड़ा, जो वनवास अब भी जारी है। उस दौरान कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, पार्टी से बगावत करके राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। उनके साथ छग के सैकड़ों बड़े चेहरे भी हो लिए और प्रदेश की सभी 90 सीटों पर चुनाव भी लड़ा गया। आलम यह रहा कि कांग्रेस को चारों-खाने चित्त करने में ‘बागी कांग्रेसियों’ का हाथ रहा। इस तरह भाजपा को सत्ता का स्वाद चखने का मौका मिल गया, जिसे 2003 के बाद, 2008 के चुनाव में भी भुनाया गया। इस दौरान भी कांग्रेसी, एक-दूसरे को हराने में लगे रहे। कहने का मतलब यही है कि कांग्रेस, खुद से हारती है, इसके लिए उसकी नीति ही जिम्मेदार मानी जा सकती है। बाद में विद्याचरण शुक्ल ने भाजपा में शामिल होकर महासमुंद से लोकसभा चुनाव भी लड़ा, उस दौरान भी अनेक ‘कथित कांग्रेसी’ उनके साथ रहे। बावजूद, कांग्रेस में उनकी वापसी हुई और उनके साथ फिर वही कांग्रेसी, वापस आए, जो कभी ‘पंजा’ के खिलाफ वोट डालने के लिए गांव-गांव, घर-घर पहुंचे थे।
कांग्रेस, किन नेता को ‘कल का भूला’ बताकर, पार्टी में शामिल करती है, यह उनके अंदरूनी मामले हो सकते हैं, लेकिन कांग्रेस आलाकमान, पार्टी हित में यदि सोचे तो समझा जा सकता है कि जिन नेताओं ने कांग्रेस को कमजोर किया और पार्टी के खिलाफ जाकर चुनावी बिगुल फूंका, वैसे नेताओं की खिदमतगारी, कांग्रेस के हित में नहीं मानी जा सकती। एक तरह से कहें तो कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई, ऐसे लोगों की वापसी से कांग्रेस का, कितना भला होगा, बड़ा सवाल है ? कई बार कांग्रेस में शामिल होने वालों को ‘कांग्रेसी मूल विचारधारा’ के होने का हवाला दिया जाता है, किन्तु ऐसा तर्क गढ़ने वाले कांग्रेसी नेता, यह बता नहीं पाते कि वैसे ‘बागी’ लोगों की कांग्रेस में वापसी से पार्टी को कितना लाभ होगा ? हमारा मानना है कि जिन्होंने पार्टी को गर्त में ढकेला और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया, ऐसे लोगों के ‘मनुहार’ को लेकर कांग्रेस के हाईकमान को जरूर सोचना चाहिए। निश्चित ही, जब भी किसी बागी नेता की पार्टी में वापसी होती है तो उसमें हाईकमान की सहमति होती है, किन्तु यह भी सही है कि कई बड़े नेता, क्षेत्रीय स्थिति की सही जानकारी न देकर, भ्रम में रखकर तथा वापसी को पार्टी हित में बताकर साथ ले लेते हैं, किन्तु धरातल पर हालात अलग होते हैं, जिसका नतीजा, कांग्रेस की हार के तौर पर सामने आता है। छग में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब कांग्रेस को ऐसी स्थिति में नुकसान हुआ है और कांग्रेस के कई कर्मठ सिपहसालारों का भी अहित हुआ है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को ऐसे हालात बनने और बनाने से बचना चाहिए, तब कहीं जाकर ‘सत्ता की चाबी’ हाथ आ सकती है और 10 साल के ‘वनवास’ से बेड़ा पार लग सकता है।
राहुल गांधी, साल भर पहले जब रायपुर पहुंचे थे, तो उन्होंने कांग्रेसियों को रिचार्ज किया था और कई बातें पार्टी हित में कही थी, लेकिन लगता है कि उन बातों का असर कांग्रेसी कर्ता-धर्ताओं को नहीं हुआ है, तभी तो कई निर्णय हैं, जिसे लेने से कांग्रेस का हित नहीं हो सकता, वैसे ही निर्णय लेने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। दूसरी बात, राहुल गांधी, जब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने, उस दौरान उन्होंने सत्ता पाने के लिए कांग्रेसियों की आंख खोल देने वाली कई बातें कही थी। बावजूद, छग में कांग्रेस को मजबूती देने के बजाय, कुछ ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं या लिए जाने के संकेत दिए जा रहे हैं, जो पार्टी को सत्ता की राह पर जाने से ही रोक सकते हैं। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि पार्टी को मजबूत करना है तो युवा और उन ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को सामने लाओ, चुनाव में उनको मौका दो, जो पार्टी हित में बरसों से काम करते आ रहे हैं, उन्हें नहीं, जो पार्टी की राह से ही भटकर कहीं और का दामन थाम लिया हो। उन्होंने सीधे तौर पर कहा था कि जिन्होंने पार्टी के प्रति पूरी वफादारी दिखाई हो। पार्टी को कभी पिठ न दिखाई हो या कहें, कांग्रेस को गर्त में डूबोने का काम न किया हो। ऐसे कांग्रेस कार्यकताओं को आगे लाने का काम होना चाहिए। राहुल गांधी की बातों को कांग्रेसी, आत्मसात करने के दावे करते हैं, लेकिन दिल्ली में कही उन बातों का वजन, छग आते-आते कमजोर हो जाता है। निश्चित ही, छग में कांग्रेस व कांग्रेसी, सत्ता तो चाहते हैं, लेकिन उन नीतियों पर अमल नहीं किया जाता, जिससे होकर ‘सत्ता’ का रास्ता तैयार होता है।
खैर, विधानसभा चुनाव तो नवंबर में होना है, मगर छग कांग्रेस द्वारा लिए जा रहे कुछ निर्णय, जरूर कांग्रेस के ही अंदरूनी धड़ों के मन में असंतोष पैदा कर रहा है। कहा जाता है कि ‘दूध का जला, छांछ को भी फूंक-फूंककर पीता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह ‘कहावत’ बेमानी नजर आती है, तभी तो वही गलतियां बार-बार दोहरायी जा रही हैं, ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं, जो पार्टी हित में नहीं हो सकते। यही कहा जा सकता है कि कांग्रेसी, सत्ता हासिल करने की बात तो करते हैं, लेकिन राहुल गांधी या हाईकमान की बातों की बेपरवाही करके। ऐसे में यदि कांग्रेस, इस बार के विधानसभा चुनाव में भी मात खाती है तो फिर उनकी वही नीतियां ही जिम्मेदार होंगी, जिसके कारण, पिछले दो चुनावांे के बाद से कांग्रेस, ‘वनवास’ झेल रही है।

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