सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

बातों-बातों में...

नौकरी बची, लाखों पाए...
बीते दिनों छाती में आग लेकर सड़क पर उतरे शिक्षा के कर्णधार, नौकरी जाते ही ठंडे पड़ गए। पहले न परिवार की चिंता रही और न ही पेट की। हालांकि, उन्हें देर से समझ में आई कि पेट की आग के आगे और कोई दूसरी आग नहीं है। पेट पर लात पड़ने की स्थिति आई तो वह आग और ज्यादा धधकने लगी। फिर क्या था, छाती की आग ठंडी पड़ गई। बस, जुबान से एक बात निकलने लगी, नौकरी बची... लाखों पाए।

आपकी मीठी बातें
साहब की मीठी बातों की हवा अभी खूब चल रही है। हो भी क्यों न, जिन्हें कोई भाव न देता हो, उनकी नजरें उन जैसों को वजनदार मानती हों। ये अलग बात है, जिनकी फिक्र के लिए बैठे हैं, भले ही उन जैसों का बंटाधार हो जाए। अब समझ में आता है कि बातों की जादूगरी किसे कहते हैं, सामने हों तो कुछ और... बंदे के जाने के बाद कुछ और...। खासम-खास बनाने की भी कला, कोई उनसे सीखे। वे काफी आगे हैं, जहां न पहुंचे रवि, वे वहां पहुंच जाते हैं। जहां जाते हैं, दे आते हैं, दो-चार बड़े-बड़े...। फिर क्या, मीठी बातों की दास्तान ही सुनाई देती है। 

आपका कमजोर पड़ना
क्राइम पर कंट्रोल की बड़ी जिम्मेदारी तो है, लेकिन आप कमजोर पड़ जाते हैं। आपको बड़ा दायित्व मिला है, मगर सीनियर के सामने आपकी एक नहीं चलती। यह तो वही हुआ, नाम बड़े, काम छोटे। पहले जहां किसी की नहीं चलती थी, वहां आपके आने के बाद, सबकी चलती है। ये अच्छी बात नहीं, जब आप हैं तो वहां दूसरे की क्यों चले ? लगता है, आप खुद को साबित नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा है तो साबित कीजिए, नहीं तो आपको ये बातें हमेशा सालते रहेगी।
                          
उनके आने के बहाने...
आजकल चंदे का चलन कुछ ज्यादा हो गया है। पहले गणेश व दुर्गोत्सव में चंदे मुक्तकंठ से मांगे जाते थे। अब कोई आया नहीं, चंदे की घंटी बज जाती है। वे बेचारे बड़े चिंतित होते हैं, जब ‘कोई’ आते हैं। घर की भी घंटी बजती है तो उन्हें लगता है कि कोई ‘चंदाखोर’ पहुंच गया है। अब क्या कहें, यही ढर्रा तो चल पड़ा है। दो की जरूरत है, मांग आओ, चार, क्योंकि खुद का भी तो जुगाड़ जरूरी है। वे आते हैं, फजीहत किसी और की बढ़ती है, क्योंकि आने का बोझ सहन करने की क्षमता, जो बनानी पड़ती है।

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