सोमवार, 31 जनवरी 2011

छग की आबकारी और औद्योगिक नीति


छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए दस बरस हुए हैं और इस लिहाज से पिछड़े माने जाने वाले प्रदेश ने विकास के कई आयाम स्थापित किया है। इन दिनों छग की आबकारी और औद्योगिक नीति की चर्चा है। नशाखोरी से प्रदेश में जहां आपराधिक गतिविधियों में वृद्धि हो रही है, वहीं सरकार की औद्योगिक नीति पर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस कहती है कि छग को सरप्लस बिजली वाला राज्य बनाने के फिराक में सरकार को घटते कृषि रकबे की फिक्र नहीं है। स्थिति यह हो जा रही है कि किसानों को अपने हक के लिए सड़क की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। सरकार की सोच विकास की हो सकती है, लेकिन जब इस विकास में विनाश की सुगबुगाहट हो तो फिर ऐसे विकास का भला क्या मतलब हो सकता है ?
हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी कैबिनेट की बैठक में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है, जिसके तहत प्रदेश की 250 शराब दुकानों को आगामी 1 अप्रेल से बंद किया जाएगा। इससे सरकार को हर बरस सौ करोड़ रूपये राजस्व का नुकसान होगा, लेकिन इस निर्णय का दूसरा सामाजिक पहल भी है। यही कारण है कि राज्य के बुद्धजीवियों, समाजसेवियों ने इस पहल को राज्य के सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया है। नशाखोरी की प्रवृत्ति लोगों में हावी होती जा रही है। इस लिहाज से सरकार के इस पहल को सराहा ही जा सकता है, किन्तु गांव-गांव में शराब की अवैध बिक्री पर रोक लगाने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। आबकारी मंत्री अमर अग्रवाल ने कुछ महीनों पहले अवैध शराब बिक्री के खिलाफ कार्रवाई की बात कही थी, मगर हालात जस के तस हैं। शराब की अवैध बिक्री उन स्थानों में भी धड़ल्ले से जारी है, जहां शासन ने प्रतिबंध लगा रखा है। इन परिस्थितियों से निपटने भी सरकार को सार्थक प्रयास करना चाहिए।
वैसे सरकार, दो हजार से कम जनसंख्या वाले गांवों की 3 सौ शराब दुकानों को बंद करने जा रही थी, बाद में राज्य की सीमावर्ती इलाकों की 50 दुकानों को तालाबंदी के निर्णय से परे रखा गया। फिलहाल प्रदेश में एक हजार से अधिक शराब की दुकानें हैं और सरकार को हर साल अरबों रूपये का राजस्व आबकारी विभाग को होती है। यह भी समझने की है कि शराब की बढ़ती बिक्री से सरकार को खासी आमदनी तो हो जाती है, लेकिन दिनों-दिन घटते सामाजिक मूल्यों की भी चिंता होना भी लाजिमी है। पिछले कुछ माह में हुए प्रदेश की कुछ बड़ी घटनाओं पर नजर डाली जाए तो कहीं न कहीं यह बात सामने आई है कि शराब के नशे में आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया गया। ऐसी परिस्थिति में सरकार की इस पहल को सशक्त समाज के निर्माण में एक बड़ी उम्मीद ही कही जा सकती है।
शराब की बढ़ती दुकानों की संख्या पर लगाम लगाने की मांग लगातार प्रदेश की डा. रमन सिंह की सरकार के सामने आ रही थी। राजधानी रायपुर के अलावा प्रदेश के अधिकांश जिलों में शराब की दुकानों को बंद करने महिलाएं लामबंद हो रही थीं। कई स्थानों पर महिलाओं ने प्रदर्शन भी किया। साथ ही यह भी कहा गया कि लोगों की भूखे पेट की चिंता कर महज 2 व 3 रूपये किलो में गरीबों को चावल देने वाली सरकार, क्यों शराब की दुकानों में कमी नहीं कर रही है ? कैसे सरकार को शराब की लत के कारण तबाह होते परिवार के दर्द का अहसास नहीं है ? इस बात को प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने शायद महसूस किया होगा, तभी तो प्रदेश में एक नहीं, बल्कि 250 दुकानों को एकबारगी बंद करने कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी गई। निश्चित ही समाज के एक बड़े तबके में इस निर्णय सराहा जा रहा है, किन्तु यह बात भी कही जा रही है कि सरकार को शराब की अवैध बिक्री को कड़ाई से बंद करानी चाहिए, क्योंकि कुछ दुकान तो बंद हो जाएंगे, लेकिन गांवों की गलियों तक बने चुके अवैध मदिरालयों पर नकेल कसे जाने की जरूरत है। तभी इस निर्णय का सार्थक परिणाम निकल पाएगा।
यह तो हो गई, प्रदेश सरकार की आबकारी नीति में बदलाव की बात, लेकिन प्रदेश की औद्योगिक नीति से किस तरह प्रदेश के हजारों किसान प्रभावित हो रहे हैं और लाखों एकड़ कृषि रकबा उद्योगों की भेंट चढ़ रहा है। विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी राज्य की भाजपा सरकार की औद्योगिक नीति की खुलकर खिलाफत कर रही है और इसे किसानों के हितों पर कुठाराघात करार दे रही है। सरकार कहती है कि उसकी सोच विकास की है और सरप्लस बिजली से राज्य का चौतरफा विकास होगा, लेकिन कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि वैसे ही छग, देश में सबसे ज्यादा बिजली उत्पादन किए जाने वाले राज्यों में से एक है, इसके बावजूद कृषि रकबा को उजाड़कर क्यों और किसलिए, सरकार प्रदेश के कई जिलों में पॉवर प्लांट लगाने एमओयू पर एमओयू किए जा रही है।
प्रदेश में औद्योगिक नीति में व्याप्त खामियों को लेकर इन दिनों राज्य की राजनीति भी गरमाई हुई है और विकास व विनाश की दुहाई देकर अपनी-अपनी पीठ थपथपाई जा रही है, लेकिन किसानों के हितों तथा कृषि के घटते रकबे को कैसे रोका जाए, इस बात पर अब तक किसी तरह का विचार नहीं हो सका है। जांजगीर-चांपा जिला इसका सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है, जहां प्रदेश में सबसे ज्यादा सिंचित क्षेत्र है और यहीं सरकार सबसे अधिक पॉवर प्लांट लगाने के मूड में है। इन परिस्थितियों में जिले के हालात दिनों-दिन बिगड़ रहे हैं, साथ ही किसान खुद को छला महसूस कर रहे हैं। जिले के अकलतरा क्षेत्र के अकलतरा में स्थापित किए जा रहे 36 सौ मेगावाट के एक निजी पॉवर प्लांट की जमीन अधिग्रहण नीति के विरोध में क्षेत्र के किसान बीते 10 दिसंबर से धरना देकर भूख-हड़ताल कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले यहां पुलिस द्वारा लाठीचार्ज की गई थी, इसके बाद विपक्षी पार्टी कांग्रेस के कई नेता धरना स्थल तक पहुंचे और किसानों को दिलासा दे गए, मगर किसानों को अब भी अपने हक के लिए जमीं की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। ऐसे में हमारा मानना है कि सरकार को इन परिस्थितियों में सीधे हस्तक्षेप करना चाहिए। किसानों के हित में कई योजना प्रारंभ करने वाले मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह द्वारा कोई न कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए। आंदोलन को दो महीने से अधिक हो गया है, परंतु सवाल यही है कि सरकार, क्यों अपनी नीति स्पष्ट नहीं कर रही है ?
अभी पॉवर प्लांट स्थापना की शुरूआत में ही शांत माने जाने वाले जिले का माहौल इस तरह बिगड़ रहा है तो आने वाले दिनों में किस तरह के हालात बन सकते हैं, इस बात को सोचकर सिहर उठना स्वाभाविक है। एक बात और है कि जिले में वैसे ही तापमान, प्रदेश में अधिक होता है, क्योंकि यहां वन क्षेत्र भी सबसे कम है और जब इतने बड़े तादाद में पॉवर प्लांट लगाए जाएंगे तो यहां किस तरह की परिस्थितियां निर्मित होंगी, इसकी भी चिंता सरकार को करनी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि सरकार की मंशा के अनुरूप राज्य में तो सरप्लस बिजली हो जाएगी, लेकिन उन प्लांटों से निकलने वाली राखड़ की समस्या से किस तरह निपटा जाएगा, इसकी नीति भी अब तक सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है। इस बात पर भी गहन विचार किए जाने की आवश्यकता बनी हुई है।

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