सोमवार, 31 जनवरी 2011

छग की आबकारी और औद्योगिक नीति


छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए दस बरस हुए हैं और इस लिहाज से पिछड़े माने जाने वाले प्रदेश ने विकास के कई आयाम स्थापित किया है। इन दिनों छग की आबकारी और औद्योगिक नीति की चर्चा है। नशाखोरी से प्रदेश में जहां आपराधिक गतिविधियों में वृद्धि हो रही है, वहीं सरकार की औद्योगिक नीति पर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस कहती है कि छग को सरप्लस बिजली वाला राज्य बनाने के फिराक में सरकार को घटते कृषि रकबे की फिक्र नहीं है। स्थिति यह हो जा रही है कि किसानों को अपने हक के लिए सड़क की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। सरकार की सोच विकास की हो सकती है, लेकिन जब इस विकास में विनाश की सुगबुगाहट हो तो फिर ऐसे विकास का भला क्या मतलब हो सकता है ?
हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी कैबिनेट की बैठक में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है, जिसके तहत प्रदेश की 250 शराब दुकानों को आगामी 1 अप्रेल से बंद किया जाएगा। इससे सरकार को हर बरस सौ करोड़ रूपये राजस्व का नुकसान होगा, लेकिन इस निर्णय का दूसरा सामाजिक पहल भी है। यही कारण है कि राज्य के बुद्धजीवियों, समाजसेवियों ने इस पहल को राज्य के सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया है। नशाखोरी की प्रवृत्ति लोगों में हावी होती जा रही है। इस लिहाज से सरकार के इस पहल को सराहा ही जा सकता है, किन्तु गांव-गांव में शराब की अवैध बिक्री पर रोक लगाने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। आबकारी मंत्री अमर अग्रवाल ने कुछ महीनों पहले अवैध शराब बिक्री के खिलाफ कार्रवाई की बात कही थी, मगर हालात जस के तस हैं। शराब की अवैध बिक्री उन स्थानों में भी धड़ल्ले से जारी है, जहां शासन ने प्रतिबंध लगा रखा है। इन परिस्थितियों से निपटने भी सरकार को सार्थक प्रयास करना चाहिए।
वैसे सरकार, दो हजार से कम जनसंख्या वाले गांवों की 3 सौ शराब दुकानों को बंद करने जा रही थी, बाद में राज्य की सीमावर्ती इलाकों की 50 दुकानों को तालाबंदी के निर्णय से परे रखा गया। फिलहाल प्रदेश में एक हजार से अधिक शराब की दुकानें हैं और सरकार को हर साल अरबों रूपये का राजस्व आबकारी विभाग को होती है। यह भी समझने की है कि शराब की बढ़ती बिक्री से सरकार को खासी आमदनी तो हो जाती है, लेकिन दिनों-दिन घटते सामाजिक मूल्यों की भी चिंता होना भी लाजिमी है। पिछले कुछ माह में हुए प्रदेश की कुछ बड़ी घटनाओं पर नजर डाली जाए तो कहीं न कहीं यह बात सामने आई है कि शराब के नशे में आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया गया। ऐसी परिस्थिति में सरकार की इस पहल को सशक्त समाज के निर्माण में एक बड़ी उम्मीद ही कही जा सकती है।
शराब की बढ़ती दुकानों की संख्या पर लगाम लगाने की मांग लगातार प्रदेश की डा. रमन सिंह की सरकार के सामने आ रही थी। राजधानी रायपुर के अलावा प्रदेश के अधिकांश जिलों में शराब की दुकानों को बंद करने महिलाएं लामबंद हो रही थीं। कई स्थानों पर महिलाओं ने प्रदर्शन भी किया। साथ ही यह भी कहा गया कि लोगों की भूखे पेट की चिंता कर महज 2 व 3 रूपये किलो में गरीबों को चावल देने वाली सरकार, क्यों शराब की दुकानों में कमी नहीं कर रही है ? कैसे सरकार को शराब की लत के कारण तबाह होते परिवार के दर्द का अहसास नहीं है ? इस बात को प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने शायद महसूस किया होगा, तभी तो प्रदेश में एक नहीं, बल्कि 250 दुकानों को एकबारगी बंद करने कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी गई। निश्चित ही समाज के एक बड़े तबके में इस निर्णय सराहा जा रहा है, किन्तु यह बात भी कही जा रही है कि सरकार को शराब की अवैध बिक्री को कड़ाई से बंद करानी चाहिए, क्योंकि कुछ दुकान तो बंद हो जाएंगे, लेकिन गांवों की गलियों तक बने चुके अवैध मदिरालयों पर नकेल कसे जाने की जरूरत है। तभी इस निर्णय का सार्थक परिणाम निकल पाएगा।
यह तो हो गई, प्रदेश सरकार की आबकारी नीति में बदलाव की बात, लेकिन प्रदेश की औद्योगिक नीति से किस तरह प्रदेश के हजारों किसान प्रभावित हो रहे हैं और लाखों एकड़ कृषि रकबा उद्योगों की भेंट चढ़ रहा है। विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी राज्य की भाजपा सरकार की औद्योगिक नीति की खुलकर खिलाफत कर रही है और इसे किसानों के हितों पर कुठाराघात करार दे रही है। सरकार कहती है कि उसकी सोच विकास की है और सरप्लस बिजली से राज्य का चौतरफा विकास होगा, लेकिन कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि वैसे ही छग, देश में सबसे ज्यादा बिजली उत्पादन किए जाने वाले राज्यों में से एक है, इसके बावजूद कृषि रकबा को उजाड़कर क्यों और किसलिए, सरकार प्रदेश के कई जिलों में पॉवर प्लांट लगाने एमओयू पर एमओयू किए जा रही है।
प्रदेश में औद्योगिक नीति में व्याप्त खामियों को लेकर इन दिनों राज्य की राजनीति भी गरमाई हुई है और विकास व विनाश की दुहाई देकर अपनी-अपनी पीठ थपथपाई जा रही है, लेकिन किसानों के हितों तथा कृषि के घटते रकबे को कैसे रोका जाए, इस बात पर अब तक किसी तरह का विचार नहीं हो सका है। जांजगीर-चांपा जिला इसका सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है, जहां प्रदेश में सबसे ज्यादा सिंचित क्षेत्र है और यहीं सरकार सबसे अधिक पॉवर प्लांट लगाने के मूड में है। इन परिस्थितियों में जिले के हालात दिनों-दिन बिगड़ रहे हैं, साथ ही किसान खुद को छला महसूस कर रहे हैं। जिले के अकलतरा क्षेत्र के अकलतरा में स्थापित किए जा रहे 36 सौ मेगावाट के एक निजी पॉवर प्लांट की जमीन अधिग्रहण नीति के विरोध में क्षेत्र के किसान बीते 10 दिसंबर से धरना देकर भूख-हड़ताल कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले यहां पुलिस द्वारा लाठीचार्ज की गई थी, इसके बाद विपक्षी पार्टी कांग्रेस के कई नेता धरना स्थल तक पहुंचे और किसानों को दिलासा दे गए, मगर किसानों को अब भी अपने हक के लिए जमीं की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। ऐसे में हमारा मानना है कि सरकार को इन परिस्थितियों में सीधे हस्तक्षेप करना चाहिए। किसानों के हित में कई योजना प्रारंभ करने वाले मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह द्वारा कोई न कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए। आंदोलन को दो महीने से अधिक हो गया है, परंतु सवाल यही है कि सरकार, क्यों अपनी नीति स्पष्ट नहीं कर रही है ?
अभी पॉवर प्लांट स्थापना की शुरूआत में ही शांत माने जाने वाले जिले का माहौल इस तरह बिगड़ रहा है तो आने वाले दिनों में किस तरह के हालात बन सकते हैं, इस बात को सोचकर सिहर उठना स्वाभाविक है। एक बात और है कि जिले में वैसे ही तापमान, प्रदेश में अधिक होता है, क्योंकि यहां वन क्षेत्र भी सबसे कम है और जब इतने बड़े तादाद में पॉवर प्लांट लगाए जाएंगे तो यहां किस तरह की परिस्थितियां निर्मित होंगी, इसकी भी चिंता सरकार को करनी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि सरकार की मंशा के अनुरूप राज्य में तो सरप्लस बिजली हो जाएगी, लेकिन उन प्लांटों से निकलने वाली राखड़ की समस्या से किस तरह निपटा जाएगा, इसकी नीति भी अब तक सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है। इस बात पर भी गहन विचार किए जाने की आवश्यकता बनी हुई है।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

कांग्रेस की चौरतफा मुश्किलें

देश में बढ़ती महंगाई, घोटाले-घपले और पार्टी के नेताओं द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ की जा रही बयानबाजी से कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही है। हालात यहां तक बन गए हैं कि केन्द्र में दूसरी बार काबिज यूपीए-2 की सरकार जनता की अदालत में कटघरे पर खड़ी है, क्योंकि जिस अंतिम छोर के व्यक्ति के नाम पर कांग्रेसनीत सरकार सत्ता में आई है, वह उन्हीं का कबाड़ा करने में तुली हुई है। यूपीए की सरकार की अपनी दूसरी पाली को दो बरस होने को है, अभी आम चुनाव में तीन साल बाकी है। शायद यही कारण है कि सरकार को जनता की फिक्र नहीं है। ऐसा होता तो सरकार, महंगाई से निपटने की पूरी कोशिश करती, लेकिन यहां हो यह रहा है कि महंगाई समेत घोटालों को लेकर केवल बयानबाजी हो रही है। विपक्ष भी इन मुद्दों को किसी भी तरह से खोना नहीं चाहता और इसी के चलते जहां संसद की कार्रवाई जेपीसी गठन की मांग को लेकर नहीं चलने दी गई, वहीं विपक्ष ने तो यूपीए-2 सरकार को आजादी के बाद की सबसे कमजोर सरकार करार दिया है।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात यूपीए, 2004 में पहली बार काबिज हुई थी और कांग्रेसी सांसदों की बहुमत के आधार पर पूर्ववर्ती नरसिम्हा राव सरकार में वित्तमंत्री रहे और अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनाया गया। इसके पहले जिस तरह के हालात प्रधानमंत्री पद को लेकर बने, शायद उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव सामने आया तो विपक्ष ने विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर विरोध की बात कही थी। इस दौरान भाजपा की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज ने यहां तक कह दिया था कि श्रीमती सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में वे सिर मुड़ा लेंगी। हालांकि कई दिनों की राजनीतिक सरगर्मी के बाद श्रीमती सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरा दी और डा. मनमोहन सिंह का नाम संसदीय दल को सुझाया और दुनिया में एक ऐसा करने वाली संभवतः पहली राजनीतिज्ञ बन गई। इस तरह एक अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री बनने पर देश की जनता में एक आस जगी कि महंगाई जैसे बड़ी समस्या से उन्हें निजात मिल जाएगी, लेकिन हुआ ऐसा नहीं और महंगाई, शुरूआत में धीमी गति से बढ़ती रही। पहला कार्यकाल पूरा करने के बाद यूपीए गठबंधन एक बार फिर सत्ता में काबिज हुआ और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर डा. मनमोहन सिंह को दोबारा सौगात में मिली, लेकिन इस बार उनके लिए यह ताज, कांटों भरा साबित हो रहा है, क्योंकि जब वे 2009 के मध्य में देश की कमान संभाले, उस दौरान महंगाई अपनी चरम पर थी। इस बीच महंगाई दिन ब दिन बढ़ती रही और सरकार जनता को दिलासा देती रही। फौरी तौर पर कोई नीति सरकार ने महंगाई की समस्या से निपटने नहीं बनाई, आज वही सरकार के गले की फांस बन गई है। यहां दिलचस्प बात यह है कि केन्द्र सरकार के कृषिमंत्री शरद पवार तो महंगाई को लेकर ऐसे-ऐसे बयान दिए, जिससे लगता था कि वे मीडिया के सवालों से बौखालाए हुए हैं। जब-जब वे मुंह खोले, महंगाई और कई गुना बढ़ गई। जिस वस्तु का उन्होंने नाम लिया, उसकी जमाखोरी बढ़ गई। आज हालात यह बन गए हैं कि हर चीजें आम लोगों के हाथों से दूर हो गई है। इन दिनों प्याज के बढ़े दाम ने तो आम जनता के साथ-साथ, सरकार के भी आंसू निकाल दिए हैं। प्याज की महंगाई से निपटने सरकार की कोई भी नीति फिलहाल काम नहीं आ सकी है। बैठक पर बैठक हो रही है, लेकिर कोई परिणाम तक सरकार के कारिंदे तथा मंत्री नहीं पहुंच पा रहे हैं।
इन परिस्थितियों में कांग्रेस की दिक्कतें इसलिए और बढ़ गई हैं कि देश में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं। राश्ट्रमंडल खेल में करोड़ों का खेल होने के बाद सुरेश कलमाड़ी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसके बाद 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में भी सरकार की खूब फजीहत हुई, गठबंधन की राजनीति के चलते पहले तो दूरसंचार मंत्री रहे ए. राजा को नहीं हटाया जा रहा था, बाद में सरकार ने खुद की किरकिरी तथा छवि खराब होते देख, इस मामले में भी ए. राजा को मंत्री पद से हटा दिया। इन मामलों के बीच महाराष्ट्र में आदर्श सोसायटी के घपले सामने आ गए। इसके बाद तो जैसे कांग्रेस, विपक्ष के पूरे निशाने पर आ गई और विपक्ष को भी भ्रष्टाचार पर सरकार की खिंचाई करने का एक बड़ा मौका मिल गया। विपक्ष ने जेपीसी गठित करने 23 दिनों तक संसद नहीं चलने दिया, संभवतः ऐसा पहली बार हुआ होगा, जब संसद में इतने दिनों तक कोई काम नहीं हो सका, केवल गतिरोध कायम रहा।
एक के बाद पुरानी बोतल से बारी-बारी भ्रष्टाचार के जिन्न बाहर आने से कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की मुश्किलें तो बढ़ी हैं। साथ ही निजी तौर पर कांग्रेस की छवि व्यापक तौर पर धूमिल हो रही है। इसी का परिणाम है कि हाल ही आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने सीधे तौर पर यह कहा कि भ्रष्टाचार से निपटने किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया जाएगा, लेकिन यहां सवाल यही है कि जिस तरह सरकार की आंखों के नीचे भ्रष्टाचार का खेल चलता रहा, तब कैसे सरकार को इन बातों की खबर नहीं लगी ? वैसे भी ए. राजा ने मीडिया से यह बातें कही थी कि पूर्व में जो ढर्रा था, उसी पर वे भी चले और इसकी जानकारी प्रधानमंत्री तक को थी ? यही कुछ बातें हैं, जिसके बाद विपक्ष के निशाने पर साफ छवि के माने जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह समेत श्रीमती सोनिया गांधी तथा कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी हैं और उन पर भ्रष्टाचार में संलिप्तता का आरोप लगाए जा रहे हैं।
ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिसके बाद कांग्रेस पूरी तरह सकते में है। कांग्रेस की चिंता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि पिछले महीनों हुए बिहार चुनाव में मुंह की खानी पड़ी और कांग्रेस को उल्टे 5 सीटों का नुकसान हो गया, जबकि बिहार की सभी 246 सीटों पर कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारी थी। इस चुनाव के बाद श्रीमती सोनिया गांधी ने, जिन राज्यों में कांग्रेस की हालत पतली है, वहां शून्य से शुरूआत की बात कही है और कांग्रेस का पूरा खेमा यह समझ रहा है कि आने वाले कुछ महीनों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव है, जहां महंगाई, घोटाले जैसे मुद्दे के कारण कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस की फिक्र इसलिए भी समझ में आती है कि युवाओं के बीच गहरी पैठ रखने वाले राहुल गांधी का जादू, बिहार विधानसभा चुनाव में नहीं चला। अब कांग्रेस के समक्ष पश्चिम बंगाल तथा उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की चुनौती है कि वहां उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा ? शायद इन बातों का ख्याल राहुल गांधी को भी है, तभी तो वे अभी से ही उत्तरप्रदेश के कई शहरों में जाकर युवाओं से मिल रहे हैं, मगर कांग्रेस की परेशानी यह भी है कि राहुल गांधी के दौरे का पहली बार इस तरह विरोध हो रहा है, जिससे कांग्रेस अपनी नीति पर कामयाब होती नजर नहीं आ रही है। रही-सही कसर, यूपीए के कांग्रेसी मंत्री एक-दूसरे के खिलाफ बयान देकर पूरा कर रहे हैं। महंगाई के मुद्दे पर सरकार पूरी तरह घिरी है, ऐसे में मंत्रियों के बयानों में विरोधाभास होना, निश्चित ही कांग्रेस के लिए चौतरफा मुश्किलों भरा है। अब कांग्रेस इन मुश्किलों से कैसे निपटेगी है, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

अंधविष्वास की काली परछाई और समाज

आज हम वैज्ञानिक और तकनीक के युुुग में जीने का जितनी भी बातें कर लें, मगर यह बात भी सच है कि आज भी हमारे समाज में अंधविश्वास की जड़ें गहरी हैं। तभी आए दिन छत्तीसगढ़ के किसी न किसी जिले से अंधविश्वास से जुड़े मामले सामने आते रहते हैं। यह बात भी अक्सर कही जाती है कि शहरी क्षेत्रों में इस बारे में ज्यादा हायतौबा नहीं मचता, लेकिन शहरी इलाकों में भी अंधविश्वास की गहरी पैठ है। यदि ऐसा नहीं होता तो मानव बलि जैसी घटना इन इलाकों में नहीं होती। अंधविश्वास को लेकर कहा जाता है कि गांवों में हालात अधिक बिगड़े हैं और टोनही कहे जाने का ज्यादातर खुलासा होता है।
छग सरकार द्वारा 2005 में टोनही निरोधक कानून बनाया गया, इसके बाद निश्चित ही टोनही प्रताड़ना के मामले प्रत्यक्ष तौर पर सामने आए, लेकिन कानून बनने के बाद ऐसा नहीं है कि टोनही जैसा घिनौना शब्द खत्म हो गया है ? इस अधिनियम के तहत प्रदेश भर में सैकड़ों प्रकरण बने हैं और उनमें ऐसे कृत्य करने वालों को सजा भी हुई है। ऐसे में यहां सवाल यही है कि आखिर कहां खामियां रह गई है, जिसके कारण समाज से टोनही जैसे शब्द का कलंक नहीं मिट पा रहा है और महिलाआंे को इसके कोपभाजन बनना पड़ रहा है ? यहां हमारा यही कहना है कि समाज से अंधविश्वास को तभी खत्म किया जा सकता है, जब लोगों में इस बात की जागरूकता आए कि आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों का कोई मतलब नहीं है। जादू-टोने व किसी महिला को टोनही कहे जाने के मामले अधिकतर तौर पर तब आते हैं, जब किसी व्यक्ति के घर में कोई बीमार हो और उसका इलाज कराने के बाद भी वह ठीक न हो। ऐसी स्थिति में समाज के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को आगे आना चाहिए कि अंधविश्वास के चक्कर में पड़कर कार्य करने वाले लोगों में जागरूकरता लाने का प्रयास करना चाहिए। हमारा यह भी मानना है कि अंधविश्वास को खत्म करने शिक्षा का भी अहम योगदान होगा, जब कोई व्यक्ति शिक्षित होगा तो वह वैज्ञानिक तथ्यों तथा तकनीक से अवगत होगा और उसके मन में जो वहम भरा हुआ है, वह उसके दिमाग पर नहीं चढ़ पाएगा। ऐसे में अंधविश्वास को जड़ से खत्म करने कुछ इस तरह की शिक्षा नीति बनाई जानी चाहिए, जिससे बचपन में ही बच्चों को अंधविश्वास की जकड़न से दूर कर ली जाए।
पिछले साल प्रदेश के अलग-अलग जिलों के कई गांवों में यह बातें छाई रही कि स्कूलों में प्रेत-आत्मा की छाया है और इसके चलते छात्राएं बेहोश हो जा रही हैं। शुरूआती दौर पर अभिभावकों के मन में भी यही बातें थी, लेकिन जब अफसरों की टीम के द्वारा छानबीन की गई और डाक्टरों द्वारा जांच की गई तो कुुछ दूसरी ही बातें सामने आई। कुछ छात्रों में कमजोरी देखी गई तो कुछ एक, दूसरे को देखकर बेहोश हो गई थी। बाद में समय के साथ हालात में सुधार हो गया और आज उन्हीं छात्राओं को उसी स्कूल में कोई फर्क नहीं पड़ता। शिवरीनारायण के पास स्थित रायपुर जिले की नगर पंचायत टुण्डरा में भी ऐसी ही छात्राओं के एकाएक बेहोश होने की बात सामने आई थी, कुछ दिनों बाद वहां भी लोगों का वहम खत्म हो गया। यहां एक बात का और जिक्र करना जरूरी है, गांवों में स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल है और इसका फायदा कुछ ऐसे तत्व उठा रहे हैं, जिन्हें केवल इन अंधविश्वास संबंधी बातों का सहारा है। कई गांवों में बड़ी से बड़ी बीमारियों को ठीक करने का दावा करने वालों की कमी नहीं है, वह भी बिना किसी अनुभव के। उनके इलाज करने के तरीके जानकर तो विशेषज्ञ डाक्टरों माथे पर बल पड़ जाता है। जांजगीर-चांपा जिले के जैजैपुर क्षेत्र में एक लात मार बाबा चर्चित है, वह किसी भी बीमारी का इलाज लात मारकर करता
है। उसकी दुकानदारी प्रशासन की अनदेखी के कारण आज भी जारी है। यहां यह बताना जरूरी है कि डाक्टरों की क्लीनिक पर उतनी भीड़ नहीं होती, जितनी उस अंधविश्वास के सहारे इलाज करने वाले व्यक्ति के घर पर लगती है। पहले लोगों को यह शिगूफा दिया जाता है कि उनका इलाज मुफ्त किया जाएगा, लेकिन बाद में उन व्यक्तियों को दूसरे तरीके से लूट लिया जाता है। बाद में जब वे थक-हारकर किसी अस्पताल में इलाज कराने पहुंचता है, तब उसकी आंखें खुलती है और उस वक्त तक देर हो चुकी रहती है। कई बार यह भी देखने में आता है कि सांप काटने के बाद झाड़-फूंक कर इलाज किया जाता है और बाद में उस व्यक्ति को जिंदा करने घंटों तमाम तरह की हरकत की जाती है।
अभी हाल ही में चांपा क्षेत्र के ग्राम सिवनी में एक बैगा द्वारा टोनही के शक में महिलाओं को केंवाच पिलाया गया और यह कहा गया कि जो महिला इस दवा को नहीं पीएगी, वही टोनही है। इसके चलते मोहल्ले की करीब ढाई दर्जन महिलाओं ने उस दवा को पी लिया। केंवाच की जड़ से बनी दवा को पीने के बाद महिलाएं उल्टी करने लगीं और उन्हें इलाज के लिए चांपा के अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां एक वृद्धा की तबीयत बिगड़ने पर उसे बिलासपुर के सिम्स में भर्ती कराया गया। इस घटना के बाद फिलहाल पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया है, किन्तु यहां एक बार फिर वही सवाल उस समाज के लोगों के पास है, जो यह कहते हैं कि हम विकासशील हैं और हमने काफी उन्नति कर ली है। यहां भी हमारा यही कहना है कि जब तक इस तरह अंधविश्वास, समाज में कायम रहेगा, तब तक एक सशक्त समाज की कल्पना कर पाना मुश्किल ही लगती है। वैसे शिक्षा के माध्यम से ही समाज की इस गंभीर समस्या से पार पाया जा सकता है, क्योंकि जब लोग शिक्षित होेंगे तो उनकी विचारशीलता बढ़ेगी और समाज में महिलाओं के सम्मान को बरसों से आघात करते टोनही जैसे शब्द से उन्हें निजात मिल सकेगी।
छत्तीसगढ़ में अंधविश्वास से निपटने का सार्थक प्रयास रायपुर की अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति द्वारा किया जा रहा है। इस समिति के अध्यक्ष डा. दिनेश मिश्रा, लोगों में अंधविश्वास को लेकर जागरूकता लाने निरंतर कोशिश कर रहे हैं। उनका भी यही मानना है कि ऐसी कुरीति को केवल शिक्षा के प्रसार से ही दूर किया जा सकता है। ऐसे में आम लोगों को भी समाज के प्रति अपने दायित्व का परिचय देते हुए, अंधविश्वास से मुठभेड़ में पूरी उर्जा लगा देनी चाहिए।

रविवार, 9 जनवरी 2011

उनसे हम ये भी सीखें

अधिकतर यह बातें सामने आती रहती हैं कि भारत में पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है और हम पश्चिमी देशों की संस्कृति को आधुनिकता के नाम पर अपना रहे हैं। साथ ही यह भी कहा जात है कि युुवा पीढ़ी में विदेशी संस्कृति का इस कदर बुखार चढ़ रहा है और वे धीरे-धीरे भारत की पुरातन संस्कृति को भूलती जा रही है। स्थिति यह बन रही है कि हमारी युवा पीढ़ी में भटकाव के हालात निर्मित हो रहे हैं। यह बातें भी अक्सर कही जाती हैं कि स्वस्थ तथा सशक्त समाज के निर्माण में युवा पीढ़ी का अहम योगदान होता है। ऐसे में जब हमारी नई पीढ़ी की पौध को नशाखोरी व धूम्रपान की लत, दीमक की तरह चाटने लगे तो फिर सरकार के साथ हम सब को जागने की जरूरत है और एक ऐसी जागरूकता का माहौल बनाया जाना चाहिए, जिससे नई पीढ़ी को नशाखोरी की गहरी खाई में गिरने से बचाया जा सके। एक बात और है कि हम आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य देशों की संस्कृति को अपनाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं, ऐसे हालात में हमें उनसे भी कुछ सीखने व सबक लेने की जरूरत है।
हाल ही में दो महत्वपूर्ण बातें सामने आई है, जिसमें एक अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओसामा का धूम्रपान से तौबा करने की है तो दूसरी स्पेन की है। वैसे भी अमेरिका को दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति माना जाता है और यदि वहां के राष्ट्रपति कुछ ऐसा निर्णय ले, जिससे दुनिया के समाज में सकारात्मक संदेश जाए तो हमारा मानना है कि उससे आत्मसात करने व अपनाने में किसी तरह का गुरेज नहीं करना चाहिए। मीडिया में जिस तरह की बातों का खुलासा हुआ है, उसमें यह बताया गया है कि जब अमेरिका के राष्टपति पद का चुनाव हो रहा था, उस दौरान बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा ने यह कहकर चुनाव प्रचार में भागीदारी निभाने की बात कही थी कि वे इसके बाद से धूम्रपान नहीं करेंगे। इस तरह बाद में चुनावी नतीजे बराक ओबामा के पक्ष में आए और वे चुनाव जीतकर दुनिया के शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बन गए और एक महाशक्ति के रूप में दुनिया के समक्ष उभरकर आए। उस दौरान ओबाम के धूम्रपान से तौबा करने संबंधी किसी तरह की कोई बातें या फिर रिपोर्ट मीडिया में नहीं आई, मगर कुछ ही दिनों पहले यह खुलासा किया गया कि बराक ओबामा धूम्रपान नहीं कर रहे हैं और मिशेल ओबामा से वायदे के बारे मंे बताया गया। निश्चित ही हमारी नजर में यह बहुत बड़ी बात है, क्योंकि दुनिया के नक्शे तथा कार्पोरेट जगत में बराक ओबामा एक ऐसा नाम है, जिसके आगे फिलहाल कोई ठहरता नहीं है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि युवा पीढ़ी भी उनसे काफी कुछ सीखने की कोशिश करती है और दुनिया मे युवा पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग बराक ओबामा के नक्शे कदम पर चलने की चाहत रखता है। पिछले माह जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, भारत दौरे पर आए तो यहां उन्हें सुनने व उनके विचारों को जानने, युवा पीढ़ियों का हुजूम उमड़ पड़ा था। ऐसे में बराक ओबामा जैसा शख्स धूम्रपान से छुटकारा पा ले तो इस बात से हमारी युवा पीढ़ी को भी सीख लेनी चाहिए। यह बात सही है कि किसी उंचे ओहदे में बैठे व्यक्ति के कहे को हर वर्ग के लोग अधिकतर तौर पर स्वीकार करते हैं और उनके जैसे बनने की चाहत रखते हैं तो, क्यों न हम बराक ओबामा के उन गुणों से भी सीख लें, जिससे हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा और भारत भी सशक्त बनेगा, क्योंकि युवा ही नव भारत का रीढ़ है। इन बातों पर हमें गौर करने की जरूरत है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात विदेशी धरती स्पेन से जुड़ी हुई है। स्पेन में धूम्रपान को लेकर एक कानून बना है, जिसके तहत यदि कोई व्यक्ति वहां सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान करता है तो इस अपराध के कारण उस व्यक्ति पर छह लाख यूरो अर्थात् साढ़े तीन करोड़ रूपये का जुर्माना किया जाता है। स्पेन के इस सख्त कानून से भी हमें सीख लेने की जरूरत है, क्योंकि भारत में कानून तो है, लेकिन उसके पालन करने लोगों में ही जागरूकता दिखाई नहीं देती है। एक बात तो सच है कि धूम्रपान कहीं भी किया जाए, वह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक ही है। कई रिपोर्टों में भी इस बात की जानकारी सामने आ चुकी है। भारत में सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान करना मनाही है और इसके अपराध में कुछ जुर्माना भी तय है, लेकिन यहां सवाल यही है कि आखिर इस कानून के अनुपालन कराने सख्ती क्यों नहीं बरती जाती ? अक्सर देखने में आता है कि जहां धूम्रपान प्रतिबंध है, वहीं कुछ क्रुद्ध प्रवृत्ति के लोग उसी स्थान पर बड़े चाव से धूम्रपान तथा नशाखोरी करते हैं। यहां जिसका जब मन चाहे, जहां चाहे, धूम्रपान कर सकता है। कानून तो है, किन्तु इसका पालन कौन करे और कौन कराए ? बरसों से यह सवाल सरकार तथा समाज के समक्ष खड़ा है। भारत में सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर जुर्माना महज कुछ रूपये ही हैं, इसका नतीजा यह होता है कि कोई भी मनमानी करने लगता है, वैसे तो बहुत ही कम मामले जुर्माने के सामने आते हैं, यदि कोई पकड़ा गया तो उसके लिए भी जुर्माना की राशि चुकाना बहुत आसान होता है। ऐसी परिस्थिति से निपटने भारत सरकार को जहां सख्त कानून बनाना चाहिए, वहीं उसके पालन के लिए जरूरी नीतियां तय की जानी चाहिए।
यह बात सरकार तथा समाज के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को समझने की है कि किस तरह हमारी नई पीढ़ी नशाखोरी की गर्त में जाती जा रही है। एक वाक्या का यहां जिक्र करना चाहूंगा, क्योंकि इस मुद्दे के लिहाज से मुझे यह जरूरी लग रहा है। कुछ माह पहले मैं जांजगीर से रायपुर, टेªन से अपने निजी कार्य से जा रहा था। जिस सीट पर मैं बैठा था, ठीक उसके सामने करीब दस साल का एक बालक भी बैठा था। वह गुमशुम सा था और अपने में मस्त था। पहले मुझे लगा कि वह रात में पूरी नींद नहीं ले पाया होगा, इसलिए ऐसे हालात में है। बाद में उस बालक ने अपनी जेब में हाथ डाला और उसमें से कुछ चीजें निकालने लगा, मुझे लगा कि उसे भूख लगी होगी और वह कुछ खाने की वस्तु निकाल रहा है। यहां मैं यह देखकर दंग रह गया कि वह अपनी जेब से गुटखे की कुछ पाउच निकाला और मुंह में रखकर उसे चबाने लगा। मैंने उसे कहा कि गुटखे खाने से सेहत पर प्रभाव पड़ेगा, इस पर उसने कहा कि अब आदत बन गई है तो क्या करें ? इसके बाद तो मैं निरूत्तर रह गया, लेकिन हमारे सामने उस बालक ने कई सवाल छोड़ दिया, जिस पर हमें मनन करने की आवश्यकता है। यह बातें कही जाती है कि विदेशों में टैफिक सेंस भी बेहतर माना जाता है और इस मामले में भी सख्ती बरती जाती है। टैªफिक के लिहाज से भी भारत में न तो कोई जागरूकता है और न ही कानून में सख्ती है। यही कारण है कि सड़क दुर्घटनाओं में कई गुना वृद्धि होती जा रही है। दुर्घटनाओं को लेकर नशाखोरी व शराबखोरी एक बड़ा कारण बनकर सामने आ रहा है। इससे भी निपटने की ठोस नीति बनाने के साथ ही, जागरूकता बढ़ाए जाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
इन हालातों में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के धूम्रपान नहीं करने के निर्णय तथा स्पेन की सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान करने वालों पर सख्ती बरते जाने के प्रयास को बेहतर ही कहा जा सकता है। भारत की नई पीढ़ी को इन बातों से सीख लेनी चाहिए, क्योंकि जब हम उनसे या उनकी संस्कृतियों को काफी हद तक आत्मसात किए हुए हैं तो उनके सकारात्मक प्रयासों को अपनाने के साथ, उसकी तारीफ भी होनी चाहिए। अंत में यही कहा जा सकता है कि उनसे हम ये भी सीखें।

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सीटें बढ़ाने से क्या होगा ?

देश में वैसे ही शिक्षा व्यवस्था के हालात ठीक नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि तकनीकी शिक्षा की भी वैसी हालत हो तो फिर समझा जा सकता है कि मानव संसाधन मंत्रालय ने अब तक किस नीति पर काम किया है। तकनीकी षिक्षा के मामले में जो आंकड़े सामने आए हैं और जिस तरह के सवाल खड़े हुए हैं, उससे मंत्रालय की नीतियों पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है। हाल ही में मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने देश में इंजीनियरिंग शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए करीब 2 लाख सीटें बढ़ाने की बात कही है। उनके मुताबिक इससे देश के युवाओं को तकनीकी शिक्षा क्षेत्र में बेहतर मुकाम हासिल होगा, लेकिन यहां यह जानना भी जरूरी है कि देश में प्रत्येक साल करीब साढ़े चार लाख छात्र इंजीनियरिंग शिक्षा प्राप्त करते हैं। देश भर में लाखों की संख्या में छात्र, हर बरस इंजीनियरिंग की शिक्षा लेकर रोजगार की तलाश में निकल पड़ते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने वाले इन लाखों छात्रों में से 60 से 70 प्रतिशत छात्रों को जॉब देने वाली कंपनियां काबिल नहीं मानती और उन्हें इंजीरियरिंग तकनीकी शिक्षा के लिहाज से नौकरी नहीं मिलती। हालात यहां तक बन जाते हैं कि लाखों रूपये खर्च कर कई साल पढ़ाई में लगाने वाले छात्र बेरोेजगारी से समझौता कर ऐसी नौकरी कम वेतन पर करने लग जाते हैं, जिसकी उम्मीद इंजीनियरिंग शिक्षा से नहीं थी, क्योंकि शुरूआत में इंजीनियरिंग शिक्षा को लेकर जिस तरह बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए जाते हैं, उससे तो छात्रों का सपना भी उतनी ही हवाईयां उड़ता है, लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के बाद धरातल में आते-आते उनके सभी सपने चक्नाचूर हो जाते हैं।
दुनिया में युवाओं की संख्या भारत में सबसे अधिक है, इस तरह शिक्षा की हालत भी उतनी ही बेहतर होनी चाहिए, लेकिन ऐसी स्थिति फिलहाल यहां नहीं है। देश में गरीबीे हालात के कारण अधिकतर व्यक्ति अपने बच्चों को तकनीकी शिक्षा नहीं दिलवा पाते और वे पिछड़े के पिछड़े रह जाते हैं। यहां समझने वाली बात है कि तकनीकी शिक्षा की सीढ़ी, वही छात्र पार कर पाते हैं, जिनके अभिभावक आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। यह तो तय हो जाता है कि तकनीकी शिक्षा से एक बड़ा छात्र वर्ग अछूता रह जाता है और इस तरह वे विकास की मुख्यधारा से भी कट जाते हैं। यहां एक बात और है, जो छात्र लाखों रूपये खर्च कर किसी तरह पढ़ाई पूरी कर ले और जब किसी कंपनी में नौकरी के लिए कहीं जाए तो उसे अयोग्य बताया जाता है, ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं, हमारी शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है। इन परिस्थितियों में अधिकतर छात्र इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद बेरोजगारी का दंश झेलते, ठोकरे खाने मजबूर होते हैं।
यह बात सही है कि मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा शिक्षा के स्तर सुधारने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। निश्चित ही, देश में शिक्षा के बिगड़े हालात को महज कुछ बरसों में ठीक किए जाने की बात गलत होगी, लेकिन जिस तरह श्री सिब्बल ने इंजीनियरिंग शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए करीब 2 लाख सीटें बढ़ाने की बात कही है, उससे बिगड़े हालात में छात्रों का कोई भला होने वाला नही है। जाहिर है, इस निर्णय से छात्रों के एक वर्ग में उत्साह होगा, मगर यहां विचार करने वाली बात यह है कि महज सीटें बढ़ा देने से क्या होगा ?
देश में इंजीनियरिंग शिक्षा के बद्तर हालात के जैसे आंकड़े सामने आए हैं, उससे तो सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय को इन समस्याओं से निपटने कोई बेहतर नीति बनानी चाहिए, जिससे छात्रों को इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद योग्यता अनुरूप नौकरी मिल जाए। छात्रों को अयोग्य माने जाने के मामले में सरकार और मंत्रालय को सजग होने की आवश्यकता है और डिग्रियां बांटने के हो रहे कार्य पर रोक लगानी चाहिए। तकनीकी शिक्षा के लिहाज छात्रों को पुख्ता जानकारी मिले और इंजीनियरिंग शिक्षा की ऐसी नींव बने, जिससे उन्हें बाद में परेशानी न हो। जब छात्र बेहतर अध्ययन कर पास-आउट होंगे और कैम्पस चयन की परिपाटी शुरू की जाएगी तो छात्रों में प्रतिस्पर्धा भी देखी जाएगी और इससे शैक्षणिक स्तर में भी व्यापक सुधार आएगा। इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर ही सीटें बढ़ाई जानी चाहिए, न कि केवल युवा छात्रों की संख्या को देखकर। यदि ऐसा किया जाता है कि उन इंजीनियरिंग कॉलेजों से सधे हुए इंजीरियर कम निकलेंगे, बल्कि ऐसे पढ़े-लिखे बेरोजगार उस शिक्षा की फैक्टी से बाहर आएंगे, जिसकी कीमत न तो किसी कंपनी में होगी और न ही, उस शिक्षा का कोई महत्व रह जाएगा, जिसे ग्रहण करने लाखों रूपये गंवाया गया। छात्रों के ऐसे हालात से अभिभावकों के विश्वास को भी ठेस पहुंचती है। इन बातों पर मानव संसाधन मंत्री को जरूर विचार करना चाहिए कि केवल सीटें बढ़ाने से कितना लाभ होगा ? यहां हमारा यही है कि सीटें तो बढ़ाई जाएं, किन्तु इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि किसी भी सूरत में इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने के बाद लाखों की संख्या में छात्र, पढ़े-लिखे बेरोजगारों की कतार में न खड़े रहे ?
देश में शिक्षा के हालात को लेकर कुछ महीनों पहले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह भी चिंता व्यक्त कर चुके हैं। इंजीनियरिंग शिक्षा में जिस तरह की बदहाली है और काबिल प्राध्यापकों व संसाधनों की कमी है, ऐसा ही हाल, स्कूली शिक्षा का भी है। प्रधानमंत्री ने ही इस बात को स्वीकार किया है कि देश में करीब 10 लाख योग्य शिक्षकों की कमी है, जिसके चलते शिक्षा व्यवस्था की हालत दिनों-दिन लचर होती जा रही है। उच्च शिक्षा के हालात किसी से छिपे नहीं है, यहां भी छात्रों की संख्या कमी होती जा रही है। किसी भी देश व समाज के सशक्त स्थिति बनाने में शिक्षा का अहम योगदान होता है, लेकिन लगता है, सरकार को इस बात की फिक्र नहीं है। देश की आबादी सवा अरब से उपर पहुंच गई है, इनमें युवाओं की तादाद अधिक है। सरकार, तकनीकी शिक्षा के माध्यम से देश को विकास के रास्ते पर ले जाना चाहती है, लेकिन इसके पहले उन खामियों को भी दूर किया जाना चाहिए, जिससे पूरी शिक्षा व्यवस्था की साख पर सवाल खड़ा हो रहा है। तब जाकर ही छात्रों को ऐसी तकनीकी शिक्षा का चौतरफा लाभ मिल पाएगा, अन्यथा सरकार नीति बनाकर लकीर पीटती रहेगी और छात्रों का भविष्य, वहीं का वहीं ठहरा रहेगा ?