शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

यह दावा किसके दम पर ?

अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता अटकलबाजी करने से सबक नहीं लेता। ऐसा ही राजनीतिक रूप से एक बड़ा दावा, दस जनपथ और देश के नं. 1 दामाद राॅबर्ट वाड्रा ने किया है। हालांकि वे अब तक राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, किन्तु उनके बयान से ऐसा ही कयास लगाया जा रहा है कि देर-सबेर वे राजनीति में कूद पड़ेंगे। वैसे राॅबर्ट वाड्रा फिलहाल बिजनेश में व्यस्त हैं और इसी काम में अपनी खुशी जताते हैं, लेकिन आखिर उन्हें कौन सा शुरूर सवार हो गया है कि वे दंभी मन से राजनीति के मैदान में कूदने की इच्छा जता रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद, राॅबर्ट वाड्रा ने कुछ दिनों पहले एक अंग्रेजी अखबार से साक्षात्कार के दौरान, जो कुछ दावा किया, वह राजनीतिक हल्कों पर नजर रखने वाले किसी भी जानकार के गले नहीं उतरता। उन्होंने कहा कि यदि वे राजनीति में कदम रखते हैं तो देश में कहीं से भी चुनाव जीत सकते हैं। उन्होंने कहा कि सही समय आने पर वे राजनीति में जरूर आएंगे। साथ ही उनका यह भी कहना है कि जब उन्हें लगेेगा, राजनीतिक क्षेत्र के बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल हो गई है और पर्याप्त समय दिया जा सकेगा, तब वे राजनीति में आ जाएंगे। यहां हमारा यही कहना है कि राजनीति में जो चाहे आ जाएं और जहां चाहे वहां से चुनाव मैदान में उतर जाएं, लेकिन दस जनपथ के दामाद राॅबर्ट वाड्रा का वह दावा कि उन्हें कोई चुनाव नहीं हरा सकता।ं उन्होंने जो कहा है, उसका यही मतलब निकाला जा सकता है, क्योंकि वे किसी भी जगह से चुनाव जीतने का दमखम दिखा रहे हैं। यहां एक बात और है, आखिर वे यह दावा किसके दम पर कर रहे हैं ? ठीक है कि वे एक ऐसे परिवार के दामाद हैं, जहां राजनीति की नर्सरी से लेकर पूरा बगीचा, देश में तैयार होता आ रहा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे कुछ भी कह जाएं, जिसे कोई भी नहीं पचा पाए। कोई भी सुलझे हुए राजनीतिज्ञ भी ऐसे बयान देने के पहले सौ बार सोचेगा, क्योंकि देश के मतदाताओं ने कई अवसरों पर इस तरह दावा करने वाले राजनेताओं को किस तरह सबक सिखाया है, यह किसी से छुपी नहीं है। 15 वीं लोकसभा चुनाव में जनता ऐसे कई दंभी नेताओं अपनी वोट की ताकत से मजा चखा चुके हैं। इसके इतर, बड़ी शाख का दावा करने वाले नेता भी अपनी वैतारणी पार लगाने एड़ी-चोंटी चुनाव में एक कर देते हैं, बावजूद कई बार उन दावे के मुगालते, उन नेताओं को मुंह की खानी पड़ती है। देश के दामाद नं. 1 राॅबर्ट वाड्रा, अब यह ना सोंचे कि देश की जनता नासमझ है, क्योंकि उनके दिलो-दिमाग में ऐसी कोई बात नहीं होती तो वे ऐसे कोई दावे करने से जरूर परहेज करते। जनता अब जागरूक हो गई है, इसका प्रमाण वे कई आम चुनावों में दे चुकी हैं। लंबे अंतराल तक सत्ता के मद में चूर रहकर, जनता के हितों को दरकिनार कर काम करने वाले नेताओं को यही जनता अपने मताधिकार से मजा चखा चुकी हंै, जब मंजे हुए राजनीतिज्ञों को आम जनता के मन में क्या है ? और वे किसके पक्ष में रहेंगे, उन पहुंचे हुए नेताओं को पता नहीं चलता तो फिर कहा जा सकता है कि राॅबर्ट वाड्रा, किस आधार पर ऐसा दावा कर, इतरा रहे हैं। आखिर वे किसके दम और सह पर इतनी बड़ी बात कह गए, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। यह बात ठीक हो सकती है कि वे राजनीति में उतरकर हाथ आजमा सकते हैं, लेकिन इतना दंभी होने का भला क्या मतलब है और यह किस ओर इशारा कर रहा है, यह राजनीति के जानकारों के समझ से परे है। देखा जाए तो राॅबर्ट वाड्रा का कोई राजनीतिक शाख नहीं है, वह केवल देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी प्रमुख श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद हैं और कांग्रेस के युवराज माने जाने वाले राहुल गांधी के बहनोई तथा पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की बेटी प्रियंका गांधी के पति हैं। राजनीतिक रूप से इस परिवार के अधिकांश लोगों ने राजनीति में कदम रखकर एक कीर्तिमान स्थापित किए हंै। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. गांधी के सूचना क्रांति लाने के प्रयास को भला देश का कोई नागरिक कैसे भूल सकता है। साथ ही उस पल को कौन गंवाना चाहेगा, जब कोई देश के प्रधानमंत्री जैसे पद पर विराजित होने वाला हो, किन्तु श्रीमती सोनिया गांधी ने इस ओहदे को ठुकरा कर दुनिया के सामने एक नई मिसाल कायम किया है। इसके अलावा कई राज्यों में दम तोड़ रही कांग्रेस तथा इस पार्टी की युवा शक्ति को संजीवनी देने वाले राहुल गांधी के राजनीतिक हस्तक्षेप को कैसे कोई ठुकरा सकता है। जब से राहुल गांधी ने राजनीति में कदम रखा है, उसके बाद से कांग्रेस में नई जान आ गई है। राजनीतिक क्षेत्र के अन्य पार्टियां, राहुल गांधी के विकल्प तैयार करने में फिलहाल इन बीते सालों में अक्षम ही साबित हुई हैं। यह तो इस परिवार की राजनीतिक दखल की एक बानगी भर हो सकती है। यदि इतिहास को खंगालें तो इस परिवार की राजनीतिक विरासत की एक लंबी फेहरिस्त है। इसी परिवार की पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रमाता के रूप में पहचान बनाने वाली प्रियदर्शिनी स्व. इंदिरा गांधी की भी राजनीतिक हस्तक्षेप यादगार रहा है और एक महिला होने के बाद भी, उस दौर में उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में पुरूष प्रधान समाज के कई बड़े नेताओं को पछाड़कर अपनी पहचान बनाई थी। हो सकता है कि गांधी परिवार की इन्हीं राजनीतिक उपलब्धि को लेकर इस परिवार का दामाद राॅबर्ट वाड्रा, यह कहने से तनिक भी नहीं हिचकिचाए कि वे राजनीति में आएं तो कहीं से भी चुनाव जीत सकते हैं। ऐसा लगता है, जैसे उनके हाथ में राजनीतिक मामले में जादू की कोई छड़ी है। आखिर उन्होंने कौन सी मनोदशा लेकर यह बातें कही है, वही जानें, लेकिन इतना जरूर लगता है कि अब वे अपने बिजनेश से उब गए हैं, तभी तो वे कभी मन बनें, तो राजनीति में आने की बात बेबाकी से कह गए। राॅबर्ट वाड्रा को किस हाथ का भरोसा है, यह तो वही समझे, लेकिन राजनीति जानकार तो यही कह रहे हैं कि जरूर वे उस परिवार के प्रति जनता के बीच बनी छवि को आधार बनाकर चुनाव लड़ने की सोंच रहे होंगे, क्योंकि देश की एक बड़ी आबादी अभी भी गांधी परिवार से दूर नहीं हुई हैं, लेकिन बदलते समय के साथ राजनीतिक हालात में भी काफी बदलाव आ गए हैं। दामाद बाबू को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह दौर अब नहीं है। जनता के मन में गांधी परिवार के लोगों के प्रति सम्मान की भावना होना लाजिमी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राॅबर्ट वाड्रा, कहीं भी चले जाएं, चुुनाव लड़ें और जीत जाएं, यह तो केवल उनके मन में समाए शेखचिल्ली का महज सपना ही लगता है। उस दावे से जुड़े बातों को लेकर राजनीतिक इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि कई बड़े नेता भी इसी तरह के दावे करते रहे हैं और वे अपने दावे पर मात भी खाते रहे हैं। राॅबर्ट वाड्रा यह कहते हैं कि वे कहीं भी जीत सकते हैं, तो उन नेताओं का क्या कहें, जो किसी पार्टी की कमान तो देश भर में संभालते हैं, लेकिन चुनावी परीक्षा में खुद को कमजोर पाते हैं, क्योंकि कई मर्तबा यह देखने में आ चुका है, जब कई बड़े नेता दो-दो चुनावी क्षेत्रों से चुनाव लड़ते रहे हैं। जब उन्हें जीत का गुमान होता है तो फिर वे क्यों दो सीटों से चुनावी मैदान पर उतरते हैं ? जाहिर सी बात है कि उन्हें भी हार का डर सताता है और वे जानते हैं कि चुनावी रण में पस्त हुए तो कहीं के नहीं रहेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी जब चुनाव हारे हों और इस फेहरिस्त में पूर्व प्रधानमं.त्री अटलबिहारी वाजपेयी का भी नाम हो तो राॅबर्ट वाड्रा जैसे राजनीति में आने वाले नए-नवेले व्यक्ति को यह बात तो सोचना ही चाहिए, जब जनता ने इन्हें नकार दिया तो फिर उनका क्या। यहां दो-दो सीटों पर चुनाव लड़ने की एक लंबी फेहरिस्त हो सकती हैं, इनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, राजद के लालू यादव जैसे कई शख्सियतों के नाम हैं। जब इन नेताओं को अपनी जीत की चिंता है तो फिर इनके मुकाबले राॅबर्ट वाड्रा की ऐसी कोई राजनीति काबिलियत एक कौड़ी की भी नहीं है। इन बातों को उन्हें आत्मसात करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि जब वे जनता के सामने आएं और चुनाव लड़ें और उन्हें हार का सामना करें तो यहां राॅबर्ट वाड्रा की किरकिरी कम होगी, वहीं इससे यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी तथा उनके परिवार और कांग्रेस की शाख दांव पर लग जाएगी। ऐसे में उन्हें इन बचकाने दावों से बचना चाहिए। जब बड़े नेताआंे की ऐसी सोंच हो सकती है तो राॅबर्ट वाड्रा की तो अभी तक कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है और न ही कोई ऐसी सफलता, जिसके दम पर वे ऐसे दावे करने के हकदार बनंे। यहां केवल यही नजर आता है कि वे एक ऐसे परिवार के दामाद हैं, जिनका देश की राजनीति में दबादबा रहा है और कांगे्रस जैसी देश की सबसे बड़ी पार्टी के बड़े नेता के परिवार से हैं। हालांकि यह बताना महत्वपूर्ण है कि राजनीति में अपनी जीत तय करने और खुद की शाख बनाने के लिए केवल किसी बड़े परिवार का होना ही जरूरी नहीं हैं, इसके लिए जनता से जुड़ाव होना मायने रखता है, लेकिन अब तक की स्थिति को देखें तो राजनीति हस्तक्षेप के मामले में राॅबर्ट वाड्रा दूर-दूर तक नहीं ठहरते। इतना जरूर है कि राॅबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गांधी, निश्चित ही समय-समय पर राजनीतिक मंचों तथा चुनाव प्रचार में भाग लेती रही हैं और इस तरह उनका एक अनुभव नजर आता है। राहुल गांधी ने जब पिछले साल लोकसभा चुनाव लड़ा तो प्रियंका गांधी का ही हस्तक्षेप रहा, क्योंकि राहुल गांधी तो देश भर में प्रचार करने चले जाते थे और अमेठी की कमान प्रियंका के हाथ में होती थी। फिलहाल इस बयान पर इतना ही कहा जा सकता है कि कहीं से भी चुनाव में जीत लेना, चुटकी का खेल नहीं है। इसके लिए बड़े दांव-पेंच की जरूरत होती है और सबसे बड़ी बात होती है, तो वह है, जनता के हितों के लिए कार्य करना, लेकिन राबर्ट वाड्रा तो एक बिजनेशमेन हैं। ऐसे में वे जनता के दर्द को एक बिजनेशमेन की तरह तो महसूस नहीं कर सकते, इसके लिए निश्चित ही उन्हें उन अंतिम छोर के लोगों का दिल जीतना होगा और उनके उत्थान के लिए कार्य करना होगा, जिनके सिर पर हाथ रखने की दुहाई देकर कांग्रेस सत्ता में काबिज हुई है। उन्हें भी ऐसा ही कोई पैतरा आजमाना सीखना होगा, तभी तो राजनीति समर में कूदें, अन्यथा यह भी समझें कि केवल दावे करने से ही कोई भी आरजू पूरी नहीं होती।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

समाज, शराब और सरकार

बदलते परिवेश के साथ लोगों की जीवनशैली और रहन-सहन में परिवर्तन आया है और समाज में भी व्यापक स्तर पर बदलाव देखने में आ रहा है। लोग जहां भौतिकवादी जीवन जी रहे हैं, वहीं नई पीढ़ी एक ऐसे अंधकार में गुम होती जा रही है, जिसकी अंतिम परिणिति की कल्पना कर ही मन सिहर उठता है। समाज में नशाखोरी की प्रवृत्ति इस कदर हावी हो गई है कि इसने हर वर्ग को अपने चपेट में ले लिया है। युवा पीढ़ी तो लगातार नशाखोरी की गिरफ्त में आ रही हैं और उनका भविष्य भी तबाव हो रहा है। निश्चित ही समाज में इसका विकृत चेहरा भी सामने आ रहा है। समाज की भयावह स्थिति वह हो सकती है, जब नशाखोरी के मामले में महिलाओं की संख्या बढ़ने की जानकारी सामने आए। वैसे यह बात भी सत्य है कि आज समाज को नशा जैसी कुरीति के गिरफ्त से कोई बाहर निकाल सकता है तो वह है, नारी शक्ति। प्रदेश के कई इलाकों में नशाबंदी की दिशा में महिला समूहों तथा संगठनों द्वारा लगातार प्रदर्शन किए जा रहे हैं, जिससे लगता है कि नशाखोरी के विरोध में उनके जेहन में कुछ बात तो जरूर है। पुरातन समय, या कहंे फिर बरसों पहले नारी शक्ति ने ही समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को खत्म करने भूमिका निभाई थीं, कुछ इसी तरह के प्रयास की जरूरत आज स्वस्थ समाज के निर्माण में बनी हुई है। यह बात भी सामने आ चुकी है कि समाज में जिस तरह अपराध में इजाफा होता जा रहा है, उसका कारण नशाखोरी है। अधिकतर घटनाआंे के बाद जांच में बात सामने आती है कि किसी व्यक्ति ने अपराध घटित करने शराब का सहारा लिया। समाज में वैसे अन्य कई नशाखोरी के लिए प्रयुक्त मादक तत्व हैं, लेकिन शराब का उपयोग बड़े पैमाने पर हर वर्ग द्वारा किया जाता है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि छग सरकार को अरबों रूपये की आय आबकारी ठेके से होती है। हद तो तब होती नजर आती है कि सरकार, खनिज संपदाओं के अवैध उत्खनन और रायल्टी चोरी पर रोक नहीं लगाती, जबकि यदि सरकार ऐसा कर पाती तो हमारा मानना है कि सरकार को अरबों रूपये का मुनाफा हो जाता और समाज को शराब से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। यहां सरकार क्यों कड़े निर्णय नहीं ले पा रही है, यह बड़ा सवाल है ? छत्तीसगढ़ सरकार को आबकारी ठेके से करीब साढ़े 8 सौ करोड़ रूपये राजस्व प्राप्त होने की जानकारी सामने आई है और वह भी, इस वित्तीय साल के केवल बीते छह महीनों में। सरकार यह कहकर भी अपनी पीठ थपथपा रही है कि जो आय शराब से हुई है, वह तय लक्ष्य से सौ प्रतिशत से अधिक है। ऐसे में आंकलन लगाया जा सकता है कि आने वाले छह महीनों में शराब से सरकार का खजाना कितना भर जाएगा और आम जनता के घरों के खजाने कितने खाली हो जाएंगे, क्योंकि यह पैसा उन्हीं लोगों से आता है, जिनके वोट से जनहितैषी होने का दंभ भरने वाली पार्टी, सत्ता में आई है। यह बात भी दुखद है कि आबकारी विभाग द्वारा शराब दुकानों की संख्या बढ़ाने में रूचि दिखाई जा रही है, इससे तो कहीं न कहीं यह आभास होता है कि सरकार को छग की भोले-भाले जनता के सेहत का ख्याल नहीं है ? यदि होता तो सरकार इस तरह प्रयास नहीं करती। प्रदेश में आने वाले दिनों में औद्योगिकरण वृहद स्तर पर किया जाना है और स्वाभाविक है कि छग में दूसरे राज्यों से लोगों और कामगारों का आना होगा। ऐसे में शराब दुकानों की संख्या में वृद्धि की बात सामने आ रही है। यहां प्रश्न यही है कि लाइसेंसी शराब दुकानों के इतर गांव-गांव में जो अवैधानिक रूप से शराब बिक रही है, क्या वह सरकार की नजर में नाकाफी लगती है। सरकार, महज आमदनी की सोच रखकर इस तरह लोगों के सेहत से खिलवाड़ करे तो फिर इसे क्या कहा जा सकता है ? खासकर वह सरकार, जो लोगों की भूख की चिंता करती है और महज 2 और 3 रूपये किलो में हर महीने 35 किलो चावल उपलब्ध कराती है। यहां पर तो हमें सरकार की दोमुंही नीति समझ में आती है, क्योंकि एक तरफ सरकार को लोगों के पेट की चिंता सता रही है, वहीं इसी सरकार को लोगों के शराब से बिगड़ने वाले सेहत का ख्याल क्यों नहीं है ? सरकार यह भी क्यों नहीं सोचती कि जब वह किसी परिवार की खुशहाली की बात करती है और लाखों परिवार के लोगों को रोजगार देने का दावा करती है, यहां सरकार को यह बात क्यों परे लगती है कि जो लोग पूरे दिन उनके दिए रोजगार के तहत काम करते हैं और उस मेहनत की कमाई को अपने परिवार के लोगों के जीवन स्तर सुधारने तथा बच्चों की शिक्षा व्यवस्था करने के बजाय, जब वह अपनी गाढ़ी कमाई का आधे से अधिक हिस्सा नशाखोरी में बर्बाद कर दे। कई बार यह भी देखने में आता है कि परिवार की चिंता किए बगैर कोई व्यक्ति अपनी पूरी कमाई को शराब या फिर नशाखोरी में लुटा देता है। यह बात भी सामने आ चुकी है कि लगातार शराब पीने के कारण किसी व्यक्ति की असमय ही मौत हो जाती है, उस समय उस परिवार के सदस्यों पर किस तरह पहाड़ टूटता होगा, इन बातों को सत्ता और सरकार में बैठे नुमाइंदों को सोचने की फुर्सत कहां, उन्हें तो बस इतनी चिंता हो सकती है कि इस बरस आबकारी ठेके से सरकार की झोली कितनी भरेगी। छत्तीसगढ़ को निर्माण हुए दस बरस होने को है और विकास की दृष्टि से देखें तो अविभाजित मध्यप्रदेश के समय सौतेला व्यवहार के कारण यह राज्य पिछड़ा हुआ था, लेकिन इन बीते दस सालों में विकास के मायने बदले हैं। छग में कई नीतियों के कारण प्रदेश के मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह ने जरूर वाह-वाही लूटी हैं, लेकिन यह बात भी कटु सत्य है कि वे समाज के उत्थान के लिए जो करने की ध्येय रखते हैं, वह कहीं न कहीं अधूरा नजर आता है। सरकार, आम लोगों के प्रति जवाबदेही और कल्याणकारी होने की चाहे बड़े-बड़े दावे कर ले, मगर समाज में जिस तरह नशाखोरी की कुरीति हावी होती जा रही है और सरकार का उस पर किसी तरह का अंकुश नहीं है। उल्ट,े इस कुप्रवृत्ति को बढ़ाने और सर्वसुलभ करने के लगातार प्रयास किए जाएं तो फिर सरकार की वह मंशा समझ में आती है, जिसे सरकार सीधे तौर पर तो नहीं कहती, लेकिन उनकी मौन धारणा से समझ में आ जाती है।

प्रदेश ने विकास पथ पर अभी कदम रखा है, निश्चित ही राज्य को विकास के नाम पर अपनी कई अनूठी पहचान बनानी बाकी है। छग में जिस तरह खनिज संपदा का अपार भंडार है, उससे तो विकास की एक नई गाथा लिखी जा सकती है तो फिर शराब की आय की बैशाखी के सहारे, सरकार क्यों आगे बढ़ रही है ? कहा जाता है कि समाज के व्यापक विकास में नशाखोरी बाधक बनती हैं, लेकिन क्यों यह बात, संवेदनशील माने जाने वाली सरकार और जनता के प्रति विश्वास का भाव जगाने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री के कोमल मन को नहीं हिला पा रही है। समाज में बढ़ती शराबखोरी के कारण लगातार परिवार विघटन तथा समाज में बढ़ते आपराधिक गतिविधियांे के मामले आते जा रहे हैं, बावजूद सरकार की सकारात्मक सोच कहीं दिखाई नहीं देती। प्रदेश के आबकारी मंत्री अमर अग्रवाल ने यह हिदायत बैठकों में कई बार दी हैं कि गांव-गांव में जो अवैध शराब की बिक्री हो रही है, उस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगे और दोषियों पर कार्रवाई हो, लेकिन यह केवल तत्कालिक निर्णय ही नजर आता है, क्योंकि उनके हिदायत के बावजूद लगातार यह खबरें आती हैं कि गांवों में बेरोक-टोक अवैध तरीके से शराब बेची जा रही है। हद तो तब हो जाती है, जब प्रतिबंधित जगह अर्थात् टेंपल सिटी और आदर्श गांवों में भी शराब बिकने के मामले सामने आए। ऐसा नहीं है कि अवैध शराब बिक्री की सरकार को जानकारी नहीं है, क्योंकि जब आबकारी मंत्री इन बातों पर संज्ञान लें तो इस बात को समझी जा सकती है। हाईकोर्ट के आदेश का भी पालन होता नजर नहीं आ रहा है। साथ ही शासन के आदेश का भी कई धार्मिक स्थलों में खिल्लियां उड़ाई जा रहीं हैं।

स्थिति वहां पर बिगड़ती नजर आती है, जब शराब बिक्री के विरोध मंे चारदीवारी से निकलकर महिलाएं प्रदर्शन करने लगंे। प्रदेश के दूसरे इलाकों के हालात की बात ही अलग है, मगर जब राजधानी रायपुर के कई जगहों में शराब दुकान हटाने महिलाएं लामबंद होकर सड़क पर उतर आएं। इसके बाद भी सरकार का सकारात्मक नजरिया इस मामले में सामने नहीं आ पाए तो सरकार की सोच समझी जा सकती है कि उन्हें आबकारी राजस्व की चिंता है या फिर आम जनता की ? नशाखोरी और शराबखोरी के कारण समाज के बिगड़ते माहौल की फिक्र सरकार को करने की जरूरत है, क्योंकि जिस तरह छग ने विकास के नए आयाम इन बहुत ही कम समय में तय किया है, वह और दु्रत गति से बढ़ सके। सरकार को यह समझने की आवश्यकता है कि छग में जो अपार खनिज संपदा है, उसका प्रदेश के विकास में किस तरह दोहन करके लगाया जाए। हमारा मानना है कि यदि सरकार यह निर्णय ले कि प्रदेश में नशाखोरी को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा और नई पीढ़ी को सकारात्मक दिशा में कार्य करने प्रोत्साहित करे, तो ही छग की सरकार, एक विश्वसनीय सरकार साबित हो सकती है। जो सरकार, आमजन की फिक्र करे और उसके बारे में सोंचे, वह सरकार आम जनों के मन में जगह बना पाती है। समाज में बढ़ते नशाखोरी और बिगड़ते हालात को लेकर शिक्षाविदों, समाजशास्त्रियों तथा बुद्धजीवियों को भी मनन किए जाने की जरूरत है, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सके।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

बलि प्रथा और कटघरे में सरकार

देशबंधु में प्रकाशित लेख।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

राज्यपाल की गरिमा और राजनीतिक उठापटक

भारत के संविधान में देश के राष्ट्रपति और सभी राज्यों के राज्यपालों को ही महामहिम की उपाधि मिली हुई है। इन पदों की गरिमा इसी बात से समझी जा सकती है कि देश की जनता में आज के बिगड़ते राजनीतिक माहौल में भी इन्हीं से ही आस बंधी रहती है और जब कोई नौकरशाह तथा चुनकर भेजे गए उंचे ओहदे पर बैठे नेताआंे द्वारा जनता की किसी बात का अनुसना किया जाता है तो इन बेबस अंतिम पंक्ति के लोगों को देश के इन्हीं महामहिमों से ही न्याय मिलता है, मगर जब इन्हीं संवैधानिक पदों पर बैठे राज्यपालों द्वारा एकपक्षीय राजनीतिक सोच के साथ काम किया जाए तो फिर इसे राजनीतिक कुंठा ही करार दिया जा सकता है। राज्यपालों के बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद पार्टी की विचारधारा से ओत-प्रोत नेताओं की नियुक्ति इस गरिमामय पद पर रोकने नीति नियंताओं और उन राजनीतिक दल के बड़े नेताओं को सोचने की जरूरत है। जब कोई राज्यपाल अनैतिक तरीके से निर्णय लेकर विपक्षी पार्टी को नुकसान पहुंचाने और जिस पार्टी से वह जुड़ा रहा, उसे लाभ पहुंचाने जैसी घिनौना करतूत करे तो फिर ऐेसे में कहीं न कहीं संविधान की गरिमा भी तार-तार होती है, जहां राज्यपाल को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि उस अधिकार का बेजा फायदा उठाया जाए। राजनीतिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसिन करने के बाद किसी भी पार्टी का राजनीतिक पक्ष लेने से बचना चाहिए, लेकिन इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने के बजाय यह फलसफा जैसे चल पड़ा है। हालात यह है कि कई बार ऐसी स्थिति निर्मित होने के बाद भी किसी तरह की कोई लक्ष्मण रेखा अब तक नहीं ख्ंिाची जा सकी है। राष्ट्रपति द्वारा हस्तक्षेप किए जाने से ही इन स्थितियों को निपटने में सहायक हो सकता है। हाल ही में कर्नाटक में जिस तरह राजनीतिक उठापटक चली और उसके बाद जिस तरह सरकार बचाने की कवायद चली, उससे तो पूरे राजनीतिक गलियारे में रस्सा-कस्सी का आलम रहा और मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा ने आलाकमान को आश्वस्त कर रखा था कि किसी भी स्थिति में कर्नाटक में पहली बार बनी भाजपा की सरकार नहीं लुढ़केगी। साथ ही भाजपा के बड़े नेता भी इस हालात से निपटने कर्नाटक में जमे रहे। भाजपा के वरिष्ठ नेता वंेकया नायडू ने मोर्चा संभालते हुए विधायकों के गिले-शिकवे दूर करने की कोशिश की और जब राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के सामने विश्वास मत हासिल करने की बारी आई तो जैसे-तैसे भाजपा की सरकार बचती नजर आई। भाजपा ने विपक्षी पार्टी पर विधायकों को तोड़ने का आरोप लगाया। हालांकि जैसे ही विश्वास मत हासिल हुआ, वैसे ही भाजपा नेताओं ने चैन की सांस ली, लेकिन दूसरी ओर कर्नाटक के राज्यपाल ने विश्वास मत पूरी नहीं होने की बात कहते हुए मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा को दोबारा विश्वास मत हासिल करने कहा गया। इस निर्णय के बाद तो जैसे देश की राजनीति में उफान आ गया, उसका कारण था कि विश्वास मत हासिल होने के बाद भी राज्यपाल ने ऐसा निर्णय लिया। राज्यपाल द्वारा जिस तरह अपने संवैधानिक अधिकार का दुरूपयोग किया गया और जिस विचारधारा से वे जुड़े रहे, उस पार्टी का हिमायती करते नजर आए, इसे किसी भी स्थिति में ठीक नहीं कहा जा सकता। यहा बताना लाजिमी है कि कर्नाटक के राज्यपाल हंसराम भारद्वाज, केन्द्र की यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में विधि मंत्री रहे और कांग्रेस में कई उंचे ओहदे पर रहकर पार्टी के बरसों तक काम किया। कर्नाटक में जिस तरह निर्णय लिया गया, उससे तो ऐसा लगता है कि वे अभी भी कांग्रेस के पदाधिकारी हैं, न कि वे एक संवैधानिक पद पर आसिन हैं, जिसकी अपनी गरिमा है और प्रदेश की जनता को सबसे ज्यादा विश्वास इसी पद से होता है। किसी भी राज्य के राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी दुरागह के नीति के अनुसार निर्णय ले, जिससे प्रदेश का विकास हो और जनता का भला हो, लेकिन कर्नाटक में कुछ दिनों पहले जो हुआ, वह इस गरिमामय पद के लिए एक और काला धब्बा ही कहा जा सकता है। राज्यपाल के निर्णय ने भाजपा को सकते में डाल दिया, क्योंकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पहले रेड्डी बंधुओं के चलते परेशान रहे और बाद में किसी तरह सुलह होने के बाद कई महीनों से कर्नाटक में मचा राजनीतिक भूचाल शांत हुआ, किन्तु बाद में भाजपा के कुछ विधायक, असंतोष जाहिर करते हुए येदुरप्पा सरकार की खिलाफत करने लगे। इन कारणों से भाजपा का पूरा कुनबा हिल गया, क्योंकि कर्नाटक में भाजपा की पहली बार सरकार बनी है, जिसे वे किसी भी तरह से हाथ से जाने देना नहीं चाहते और भाजपा नेताओं द्वारा हर तरह से सरकार बचाने की कवायद की गई। बीते छह माह में कर्नाटक में राजनीतिक उठापटक का दौर चल रहा है, इससे प्रदेश के विकास पर असर पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में जनता भी चाहती है कि किसी तरह यह राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म हो। दिलचस्प बात यह है कि राज्यपाल के आदेश के एक दिन बाद येदुरप्पा सरकार ने निर्धारित विश्वास मत एक बार फिर हासिल कर लिया। इसके बाद राज्यपाल के निर्णय का जिस तरह किरकिरी हुई, उससे लोगों को एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया कि क्या संवैधानिक अधिकार का इसी तरह गलत प्रयोग होगा और इसे आखिर रोकने कोई प्रयास क्यों नहीं हो रहा है। इसके लिए सरकार में बैठे लोगों को ही विचार करना होगा, साथ ही जनता को अपने हितों को लेकर सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है कि किसी भी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े नेता की राज्यपाल के रूप में ताजपोशी न हो। अब तक वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह से एकाएक राज्यपाल बनाया जाता रहा है, उससे तो यही बात पता चलता है कि उन नेताओं को किसी तरह खुश करने की कोशिश की जाती है, लेकिन यहां सवाल यही है कि संवैधानिक पदों पर इस तरह के हालातों से उबरने की जरूरत है। ऐसे में भला किसी को इस तरह खुश करने का क्या औचित्य ? कर्नाटक में राज्यपाल की भूमिका को देखते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवानी ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने उन्हें वापस बुलाने की मांग भी की, लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है। इधर भाजपा की सरकार ले-देकर बच गई, लेकिन यह भी चर्चा है कि क्या कर्नाटक की भाजपा सरकार में स्थिरता अब कायम हो पाएगी ? जो अब तक मुमकिन नहीं हो सका है। एक अरसे से प्रदेश में राजनैतिक रूप से जो काला बादल छाया हुआ है, वह जितना जल्दी हटेगा, उतना ही कर्नाटक के विकास में सहायक साबित होगा। राज्य में भाजपा काबिज तो हो गई है, लेकिन जिन बागी विधायकों ने मोर्चा खोला था, वे फिर कब पटखनी दे जाए, कहा नहीं जा सकता। पहले भाजपा में सरकार बचाने को लेकर घमासान मचा था, जब जैसे कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं। पहले कर्नाटक की येदुरप्पा सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया, इसके बाद अब कांग्रेस के विधायक इस्तीफे दे रहे हैं, वह कांग्रेस के लिए संगठनात्मक दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। यहां पर यही कहा जा सकता है कि जो कलह, पिछले कई महीनों से भाजपा में जारी था, लगता है कि वह अब कांग्रेस के विधायकों और नेताओं तक घर कर लिया है। पहले भाजपा, कांग्रेस पर यह आरोप लगा रही थी कि वे पार्टी के विधायकों को तोड़ने का प्रयास कर रही है, लेकिन अब सरकार के विश्वास मत हासिल होने के बाद कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे देने से स्थिति कर्नाटक में उलट नजर आ रही है। कर्नाटक की राजनीति से इतर यहां फिर उसी मुद्दे पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें राज्यपालों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकार का बेजा इस्तेमाल किए जाने के मामले आए दिन सामने आते जा रहे हैं। कर्नाटक में जो हुआ, उससे पहले के हालात देखें तो साल भर पहले झारखंड में विधानसभा चुनाव के बाद खंडित जनादेश सामने आया और उसके बाद जेएमएम के मुखिया शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री बनने की नियत से सरकार बनाने की पेशकश की। यहां अल्प सीट के बाद भी तात्कालीन राज्यपाल सिब्ते रजी ने शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्यौता दिया, उसके बाद तो राज्यपाल की गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकार तथा हस्तक्षेप को लेकर एक बार देश में बहश छिड़ गई। इस बीच राज्यपालों द्वारा इससे पहले किए गए ऐसे कृत्यों की चर्चा होनी शुरू हो गयी। जानकार बताते हैं कि आंध्रप्रदेश में राज्यपाल द्वारा पहले भी राजनीतिक विचारधारा के तहत या फिर कहें कि अपने व्यक्तिगत रूचि के आधार पर ऐसे निर्णय दिए जा चुके हैं। फिलहाल झारखंड में शिबू सोरेन को सरकार बनाने बहुमत साबित करने का समय मिला, लेकिन तय समय में राजनीतिक पार्टियों में किसी तरह का गठजोड़ नहीं हुआ और हालात यह बन गए कि बहुमत साबित करने में शिबू सोरेन नाकाम रहा। इस दौरान राज्यपाल के अधिकारों का दुरूपयोग को लेकर बहस का दायरा और बढ़ गया। झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का संकट इस तरह गहराया कि वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। बाद में एक बार फिर चुनाव हुआ, लेकिन फिर वही, खंडित जनादेश। इस बार झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा की जुगलबंदी के बाद सरकार बारी-बारी से चलाने पर सहमति बनी, मगर बाद में यह गठजोड़ टूट गया। आखिरकार भाजपा और जेएमएम ने मिलकर फिर सरकार बनाई। यहां केवल यही बात है कि आखिर क्यों राज्यपालों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकार का बेजा इस्तेमाल किया जाता है, जिसके बाद उस गरिमामय पद पर दाग लगता है। कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज तो कानून मंत्री रहे हैं और उन्हें संविधान से मिले अधिकार बखूबी पता है, लेकिन उनके द्वारा जो निर्णय दिया गया, वह तो केवल राजनीतिक ही लगता है, वह कहीं से भी संवैधानिक नहीं लगता,। आखिर यहां सवाल यही उठता है कि कानून का ज्ञान होने के बाद भी उन्होंने ऐसा कदम क्यों उठाया, जिससे किसी सम्मानजनक पद की गरिमा को आघात लगे। इस तरह देखें तो कर्नाटक में भी अन्य राज्यों की तरह राज्यपालों के अधिकारों के दुरूपयोग के मामले में काला अध्याय जुड़ गया। ऐसे में अब चिंता का विषय यही है कि ऐसे कृत्यों पर कैसे लगाम लगाया जाए। जाहिर सी बात है कि अधिकांश राज्यों के राज्यपाल, इस संवैधानिक पद पर आने के पहले राजनीतिक दल के पदाधिकारी और उसकी सरकार में बड़े ओहदे पर रहे हैं। राज्यपालों की नियुक्ति में उन वरिष्ठ नेताओं को चुना जाता है, जो या तो पार्टी और संगठन में पहले से काम करते रहे, या फिर उन नेताओं को राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर आसिन कर दिया जाता है, जिन्हें सरकार में कहीं जगह नहीं मिलती। यह भी अक्सर देखने में आता है कि जब भी केन्द्र में सरकार बदलती है तो राज्यपालों के राज्यों की जवाबदारी बदल दी जाती है। अपने मन के मुताबिक राज्यपालों को राज्यों में भेजा जाता है। यूपीए सरकार के पहले एनडीए गठबंधन की सरकार में कुछ इसी तरह सरकार बनते ही राज्यपालों को दूसरे राज्यों में भेज दिया गया। यह सिलसिला यहां कहां थमने वाला था, जैसे ही यूपीए की सरकार बनी, कई राज्यपाल इधर से उधर किए गए। बाद में कुछ राज्यपालों की नियुक्ति समय का कार्यकाल पूरा हो गया तो फिर उन्हीं लोगों की ताजपोशी कर दी गई, जो पार्टी के लिए बरसों जुटे रहे। यहां एक बात और है कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बाद जिस तरह से नेता सक्रिय राजनीति में वापसी कर लेता है, उसके कारण भी इस पद की गरिमा प्रभावित होती है। राज्यों में जब किसी तरह, हालात बिगड़ते हैं तो शासन व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी किसी भी राज्य के राज्यपाल की होती है। उन्हें संविधान से अधिकार मिले हुए हैं, ऐसे में संविधान सम्मत कार्य करने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। देश की जनता का जिस तरह से नेताओं से भरोसा उठ गया है, कहीं वैसे हालात इस पद के लिए पैदा न हो जाए। इस पर गहन विचार की जरूरत है, नही ंतो ऐसी स्थिति आने वाले दिनों में फिर निर्मित हो जाए, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

लोकतंत्र के रावण को कौन मारेगा ?

देश में हर साल करोड़ों रावण मारे जाते हैं। अभी तो जैसे रावण मारने की होड़ सी मच गई है। लोगों में रावण मारने का इस तरह जूनून सवार है कि दशहरा पर्व के पहले रावण मारे। इसके बाद भी रावण मारने का सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है। ऐसा लगता है जैसे एक दिन रावण मारने के बाद लोगों का जी नहीं भरता की दशहरा के कई दिनों बाद भी रावण मारे जा रहे हैं। आज के कलयुग के लोग उस प्रगांड पंडित की एक गलती की सजा इस तरह देने में उतारूँ हैं तो इन लोगों की नजर उन लोकतंत्र के रावणों पर क्यों नहीं है, जो हर दिन देश को बेचने की गलती कर रहे हैं। जब एक गलती की सजा इस तरह हो सकती है तो देश को खोखला करने वाले लोकतात्र के रावणों की क्या सजा हो सकत है, सोचने का विषय है। हम तो हर साल रावण मारते हैं और असत्य पर सत्य की जीत बताते हैं, लेकिन जिनके पूरा जीवन असत्य पर ठहरा हुआ है, उन जैसों का क्या होगा? जरा सोचिये ।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

आँखों में लेह का दर्द

जम्मू-कश्मीर के लेह में बीते ५ अगस्त को हुए बादल फटने के हादसे को जांजगीर-चाम्पा के मजदूर भुलाये नहीं भूल पा रहे हैं। लेह कमाने-खाने गए मजदूरों की आँखों में अब भी वह दर्द और दहशत कायम है। जिन्दगी तबाह कर देने वाले हादसे के बारे में मजदूर यादकर सिहर उठते हैं। जांजगीर-चाम्पा जिले से लेह वैसे तो सैकड़ों मजदूर हर बरस कमाने-खाने जाते हैं, लेकिन इस साल लेह के हादसे ने उनके कई अपनों से जुदा कर दिया। इस दर्दनाक हादसे में किसी ने अपनी मांखो दिया तो किसी ने अपनी पत्नी को। किसी के परिवार ही इस खौफनाक घटना में प्रभावित हो गया। इस हादसे को हुए दो माह से अधिक हो गए गए हैं, लेकिन मजदूरों की आँखों में व मंजर अब भी समाया हुआ है। जिसे याद कर ही वे लोग सिहर उठते हैं। लेह की बादल फटने की घटना में वैसे तो दो दर्जन से अधिक लोगों की मौत की जानकारी उन मजदूरों के परिजन और लौटने वाले मजदूर दे रहे हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर सरकार ने जिले से महज १६ मज्दोरों की मौत होने की पुष्टि की है। इन्हें सरकार ने १ लाख रूपये आर्थिक मदद भी दे दिया है, लेकिन उन मजदूरों के बारे में अब तक पहल होती नहीं दिखाई दे रही है, जो हादसे के बाद से लापता हैं। जांजगीर जिला प्रशासन ने ४० मजदूरों के लापता होने की जानकारी दी है, जिनमें अधिकांश बच्चे हैं। लेह के हादसे में करीब ५० से ज्यादा मजदूर और उनके परिवार के लोग घायल हुए थे, इनमें से केवल २६ मजदूरों को हाल ही में ७-७ हजार की आर्थिक मदद दी गई। लेकिन न तो जम्मू-कश्मीर सरकार को उन लापता मजदूरों और उनके बच्चों की चिंता है और ना ही छात्तिस्स्गढ़ की सरकार को। ऐसे में लेह हादसे के बाद प्रभावित परिवार के लोगों के सामने अपने जख्म लेकर सिसकने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। जो ओग लापता हैं, उनके परिवार वाले उन्हें अपने से अलग होना, मानकर उनकी चित्रों के सामने स्व तक लिख दिया है, लेकिन सरकार तो केवल पुष्टिके बाद ही आर्थिक मदद देने के पक्ष में है। इन विपरीत परिस्थिति में उन परिवारों की बेचारगी समझी जा सकती है, जिनके घर का चिराग भी अब जिन्दा नहीं है, जो घर को संभालता था।
जांजगीर-चाम्पा जिले से लेह में केवल २ सौ मजदूर कमाने-खाने जाने की जानकारी जिया प्रशासन की ओर से आई थी, लेकिन जो मजदूर यहाँ से लेह गए थे, उनकी माने तो जिले से जाने वाले मजदूरों की संख्या ५ सौ से ज्यादा थी, उनका तो यहाँ तक कहाँ है की हादसे में ५० से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। इस बात पर मुहर भी इसलिए लगता है क्योंकि जम्मू-कश्मीर सरकार ने १६ मजदूरों की मौत की पुष्टि की है, वहीँ ४० मजदूर लापता बताये जा रहे हैं।

यहाँ सोचने वाली बात यह भी है की जब लेह में घटना होने की जानकारी आई तो जिला प्रशासन के पास इसकी जानकारी नहीं थी की जिले से कहाँ-कहाँ मजदूर कमाने-खाने गए हैं। इसे विडम्बना ना कहें तो और क्या कहें, क्योंकि घटना के बाद पूरा प्रशासन सकता में था तथा कोई जानकारों कहीं से नहीं मिल रही थी। इस हादसे के बाद जिला प्रशासन के साथ छत्तीसगढ़ सरकार को भी सबक लेनी चाहिए।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

मालदार गरीब का मुखौटा

इतवारी अखबार रायपुर में प्रकाशित व्यंग्य लेख।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

पथरीली होती धरती

कांक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे हैं और धरती की हरियाली लगातार कम हो रही है। पेड़ कट रहे हैं, जंगल घाट रहे हैं। ऐसे में नुक्सान इन जंगलों में रहने वाले पशु-पक्षियों को ही नहीं, इंसान को भी है। कहीं ऐसा ना हो की एक दिन हमें पेड़ लगाने के लिए मिटटी युक्त जमीन ही नसीब ना हो और पत्थर पर पेड़ उगाने पड़ें। इस तस्वीर पर एक नजर

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

भारत की गरीबी और महंगाई

देश में महंगाई आम जनता के ऊपर इस कदर हैवी है की उनको कई ऐसी चीजों से दूरी बनानी पद रही है, जिसे वे खरीद सकने में अक्षम है। दूसरी ओर महंगाई को लेकर ऊँची कुर्सी में बैठे नेताओं को इसकी कोई चिंता नहीं है। तभी तो महंगाई के नाम पर कृषि मंत्री शरद पवार आये दी ऐसे-ऐसे बयान दे जाते हैं, जिससे देश की आम जनता को आघात लगता है। बावजूद ये नेता जनता की चिंता कम करते हैं। ऐसा नहीं होता तो, वे आये दी महंगाई बढ़ने के लिए बयान नहीं देते। कृषि मंत्री तो जब भी मुंह खोलते हैं, उस दिन उनका बयान आम जनता के लिए शामत बनकर आता है। बीते कुछ सालों से देश जनता महंगाई से ऐसी पीस रही है, लेकिन आम आदमी के साथ हाथ होने का दावा करने वाली पार्टी के नेता केंद्र में सरकार बनते ही इन बातों को भूल गए हैं। इस तरह बेचारी आम जनता जाए तो जाए कहाँ।
अभी हाल ही में कृषि मंत्री शरद पवार ने एक बार फिर जिस तरह से गैर जिम्मेदाराना बयान दिए हैं, उससे तो जनता की कोई अहमियत ही नहीं रह गई है। जिस जनता के पैसे से वह कृषि मंत्री को सभी सुविधाएँ नसीब हो रही हैं, उन्ही के बारे में जब सरकार और उसके मंत्री सोचना बंद कर दे तो भला इसे क्या कहा जा सकता है। महंगाई के कारन लोग जैसे-तैसे अपना जीवन जी रहे हैं, वहीँ इन्हीं जनता के पैसे से ये नेता ऐश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें उस जनता की फिक्र करने की जरुरत नहीं है, जिन्होंने इन जैसों को कुर्सी पर बीती है। उसी जनता को किनारा करके कृषि मंत्री शरद पवार जैसे नेता मजे कर रहे हैं। महंगाई को लेकर आम जनता में हाय-तौबा मची है, लेकिन नेता है की बयान देने से बाज नहीं आते। शरद पवार ने अह कहा है की भारत में जितनी महंगाई है, उससे कहीं ज्यादा दुनिया के कई देशों में है। यह बात भी सही है, लेकिन कृषि मंत्री जी जिन देशों में महंगाई भारत से अधिक होने की बात कह रहे हैं, का वहां भारत जैसी गरीबी है ? निश्चित ही ऐसा नहीं है, जी देशों में महंगाई अधिक है, वहां आम लोगों की आय इतनी अधिक है की उन्हें महंगाई का कोई फर्क ही नहीं पड़ता, जबकि भारत में गरीबी इस कदर है की आम जनता की महंगाई के कारन हालत खराब है। रोज जनता महंगाई से पिस रही है। जनता की बेबसी का अंदाजा सुरेश तेंदुलकर की रिपोर्ट से पता चलता है, जिसमें बताया गया है की कैसे भारत की गरीब जनता महज २० रूपये में गुजारा करती है। यहाँ पर हमारा यही काना है की भारत में महंगाई बढती जा रही है और इस देश के नेता अपनी जवावदेही से बचने के लिए अनाप-शनाप बयान दे तो फिर ऐसे नेताओं की मनसिकत को दिवालियापन ही कहा जा सकता है।
महंगाई को लेकर ऐसा पहली बार बयान कृषि मंत्री ने नहीं दिया है, इससे पहले वे कुछ ऐसा कह जाते थे, जिसके बाद महंगाई बढती थी और इसका सीधा लाभ माल दबा कर रखने वालों को मिलता था। अह सिलसिला अब भी जारी है। महंगाई बढ़ रही है और जनता उसके निचे रह कर सब सहन कर रही है। हल्लंकी नेताओं के बयानबाजी को आम जनता समझ रही है, आने वाले दिनों में इस आम आदमी के साथ होने का दवा करने वाली सरकार को जरुर सबक सिख्येगी।

यहाँ दिलचस्प बात यह है की महंगाई पर अन्किश हमारे अर्थशात्री प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह भी नहीं लगा सके, वे केवल इतना दिलासा जनता को देते आ रहे हैं की जल्दी ही महंगाई से निजात पा ली जायेगे, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। आलम यह है की इस महंगाई से केवल व जनता ही पीस रही है, जिनके पैसे से सरकार चल रही है और उसके मंत्री मजे की जिंदगी जी रहे हैं।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

कामनवेल्थ और कलमाड़ी का बडबोलापन

कामनवेल्थ गेम्स से जैसे विवादों और भ्रस्टाचारका नाता पूरी तरह से जुड़ गया है। आयोजन के कर्ताधर्ता सुरेश कलमाड़ी चौतरफा घिरे है। बावजूद उनके द्वारा जिस तरह के बयान दिए जा रहे है, उसे उनकी गैर जवाबदेही ही करार दी जा सकती है। कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन को महज एक दिन ही बचे हैं और खेलगांव में जिस तरह अव्यवस्था की बात सामने आ रही है, वह खिलाडियों के हित में कदापि नहीं है। खेलगांव में साँपों ने भी सिरदर्दी बाधा दी है, क्योंकि ऐसा शायद ही कोई दी गुजर रहा है, जब वहां सांप न निकल रहे हों। सुरेश कलमाड़ी पर अब तक चौतरफा आरोप ला चुके हैं। पूर्व खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर ने जैसा आरोप खेल की व्यवस्थाओं तथा गड़बड़ियों को लेकार गलाया है, उस पर ना तो केंद्र सरकार ने संज्ञान लिया और ना ही दिल्ली की शिला दीक्षित सरकार ने। कुल -मिलकर कलमाड़ी का बल्ले है। देश की कमान संभल रहे प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जैसे साफ छवि के व्यक्ति ने भी भ्रस्टाचार की शिकायत के बाद भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया, ऐसे में केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं। देश के खेलमंत्री श्री गिल ने भी चुप्पी साध रखी है। साथ ही कई बड़े नेता भी क्यों इन भ्रस्टाचार के खुलासे के बाद भी मुंह नहीं खोल रहे हैं, इसे समझा जा सकता है।
कामनवेल्थ गेम्स में तमाम भ्रस्टाचार के आरोप के बाद भी कलमाड़ी का यह कहना की खेल के समापन के बाद हालत सुधर जायेंगे और उनके कार्य को समझ लिया जायेगा। भला इतने आरोप और घटिया निर्माण की पोल खुलने के बाद भी आखिर कलमानी ने इतनी आश किसके शाह पर राखी है। जनता के पैसे को इस तरह पानी की तरह बहाया जा रहा है और जनता है की महंगाई के कारन परेशां है। खिलाडियों के विकास के कामनवेल्थ गेम्स का आयोजन करने की बात सरकार और उसके नुमैन्दे करते आ रहे हैं, ऐसे सवाल यही है की इतने भ्रस्टाचार के बाद भी क्या लगता है की खेलों का विकास होगा और खिलाडियों इस आयोजन से लाभ होगा। हमारा तो मन्ना है की इस आयोजन से केवल सुरेश कलमानी तथा उसके जैसे अजगर का ही पेट भर सकता है। ऐसा नहीं होता तो वे भारत के गौरव के लिए आयोजित किये जा रहे कामनवेल्थ गेम्स जैसे आयोजन में जनता के पैसे का बंदरबाट नहीं होता।
भले ही प्रधानमंत्री चुप हों। लेकिन उसी सरकार के मंत्री और आई सी सी अध्यक्ष शरद पवार ने भी सुरेश कलमानी की कार्यप्रणाली को आड़े हाथों लिया है और भार्स्ताचार पर रिक लगाने की बात कही है। मीडिया में भी रोज कामनवेल्थ गेम्स को लेकार कई रिपोर्ट आ रही है। बावजूद सरकार इन कमियों को दूर करने कोई कदम उठते नहीं दिख रही है। ऐसे में सरकार पर ही ऊँगली ना उठे तो कैसे।
अभी टी ऐसा लगता है, जैसे कामनवेल्थ गेम्स के नाम पर विवादों की यह तो एक शुरुआत भर लगता है, क्योंकि जब खेल ख़त्म हो जायेगा तो एक फिर कामनवेल्थ के नाम पर हुए भ्रस्टाचार का विवाद एक बार फिर गहराने के आसार हैं।