गुरुवार, 31 मार्च 2011

यही है सही कदम

छत्तीसगढ़ में शराब की अवैध बिक्री एवं दुकानें बंद कराने को लेकर पिछले कुछ महीनों में अनेक आंदोलन हो चुके हैं। कई जगहों पर शराब के खिलाफ अवाम लामबंद नजर रहे हैं और देखा जाए तो एक तरह से राज्य में शराब बंदी की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। छग सरकार द्वारा बीते माह प्रदेश की 250 शराब दुकानों को बंद करने का जो निर्णय लिया गया है, उसे इसी तरह जोड़कर देखा जा रहा है। शराब की अवैध बिक्री की रही शिकायत तथा दुकानों को बंद कराने की लगातार रही मांग के मद्देनजर, सरकार ने 2 हजार से कम आबादी वाले गांवों में जनहित में दुकानें कम करने का फैसला लिया। वैसे पहले 3 सौ दुकानों को बंद करने की बात सामने आई थी, बाद में राज्य के सरहदी इलाके की 50 दुकानों को अलग रखी गई। जो भी हो, जैसे ही राज्य सरकार ने प्रदेश में एकाएक शराब दुकानों को बंद करने का निर्णय लिया, वैसे ही प्रबुद्ध लोगों ने खूब सराहना की। हालांकि एक सवाल लोगों के जेहन में था कि सरकार ने 250 दुकानें तो बंद कर दी हैं, मगर जिस तरह गांवों की गलियों में अवैध मदिरालय खुल गए हैं, उस पर लगाम कैसे लगेगी और कौन लगाएगा ? यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शराब के कारण अपराध में वृद्धि हो रही है, साथ ही लोगों के पारिवारिक आर्थिक हालात भी बिगड़ रहे हैं।

प्रदेश में बढ़ती अवैध शराब की बिक्री का मुद्दा समय-समय पर उठता रहा और यह बात भी सामने आती रही कि आबकारी अधिनियम में व्याप्त शिथिलता के कारण गांव-गांव में शराब की बिक्री को बल मिल रहा है। एक अरसे से आबकारी अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। यही कारण है कि राज्य सरकार ने जिस तरह सख्ती से 250 शराब दुकानों को बंद करने का फरमान जारी किया है, कुछ उसी तरह हाल ही में छग विधानसभा के बजट सत्र में आबकारी अधिनियम में संशोधन विधेयक पेश किया गया। जानकार कहते रहे हैं कि आबकारी नीति में व्याप्त खामियों के कारण ही अवैध शराब की बिक्री पर तमाम कोशिशों के बाद भी रोक नहीं लग पा रही है। शराब बिक्री को रोकने कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें आने, पुलिस व आबकारी विभाग के अफसरों द्वारा रोना रोया जाता रहा है। जिसका परिणाम यह रहा है कि गांव-गांव में अघोषित रूप से शराब दुकानों की कमी नहीं रही। शराब की बढ़ती अवैध बिक्री के मामले में सरकार, विपक्ष के निशाने पर रही और विपक्ष ने प्रदेश में शराब के गोरखधंधे को अपराध के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण भी गिनाया। सरकार ने शराब की अवैध बिक्री पर लगातार घिर रही थी। सरकार ने जनहित की बात करते हुए प्रदेश की एक हजार से अधिक शराब दुकानों में से 250 दुकानों को बंद कर दिया, किन्तु अवैध बिक्री का मुद्दा, सरकार के गले की हड्डी बन गया। ऐसे में सरकार को कोई बड़ा निर्णय लिया जाना स्वाभाविक था।

सरकार ने इस बजट सत्र में आबकारी अधिनियम में सजा व जुर्माने में और कठोर प्रावधान करने के ध्येय से विधानसभा में विधेयक पेश किया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि अब 25 लीटर के बजाय, 5 लीटर अवैध शराब मिलने पर कड़ी कार्रवाई हो सकेगी। इस मामले में पहले यही व्यवहारिक दिक्कतें सामने आती रहीं हैं कि शराब के कोचियों से 25 लीटर तक शराब नहीं मिलते थे और वे महज कुछ जुर्माना के बाद मामले से छुटकारा पा जाते थे, मगर आबकारी अधिनियम में संशोधन होने से स्थिति कुछ अलग नजर आएगी। साथ ही कार्रवाई में भी अफसरों को प्रकरण बनाते बनेगा, नहीं तो पहले कार्रवाई कहने भर के लिए ही होती थी, क्योंकि शराब कम मिलने से इस गोरखधंधे में लिप्त व्यक्ति को सजा नहीं मिल पाती थी। संशोधन के बाद अधिनियम में जिस तरह के प्रावधान तय किए गए हैं, उससे तो निश्चित ही अवैध शराब की बिक्री पर रोक लगेगी और ऐसे कृत्य में संलिप्त लोगों के मुश्किलें बढेंगी। संशोधित अधिनियम के अनुसार धारा 34 में एक माह से 6 माह की सजा को बढ़ाकर, अब 6 माह से 2 साल एवं जुर्माना 5 हजार से 25 हजार रूपये के बजाय अब 10 हजार से 50 हजार रूपये बढ़ा दिया गया है। साथ ही धारा 34 की उपधारा 1 में 6 माह की सजा के बजाय 1 वर्ष की सजा तथा 10 हजार से 1 लाख रूपये के जुर्माने को बढ़ाकर 20 हजार से 2 लाख रूपये किया गया है। इसके अलावा धारा 36 में 6 माह की सजा के प्रावधान को बढ़ाकर 5 वर्ष तक करने एवं जुर्माना 1 हजार से 1 लाख को भी बढ़ाकर 5 लाख बढ़ाने का मसौदा तैयार किया गया है।

यही नहीं, अब सार्वजनिक जगहों पर बेरोकटोक जाम छलकाने वालों की भी खैर नहीं, क्योंकि संशोधित अधिनियम में ऐसे कृत्य में संलिप्त पाए जाने पर सजा व जुर्माने को बढ़ाया जाएगा। कुल-मिलाकर कहा जा सकता है कि अधिनियम में जिस तरह का बदलाव किया जा रहा है, वह काबिले तारीफ है, क्योंकि इन कड़े प्रावधानों के लागू होने के बाद अवैध शराब बिक्री करने वालों की कुप्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। अब यह देखने वाली बात होगी कि कल तक अधिनियम में खामियों की बात कहने वाले अफसरों के लंबे हाथ शराब के गोरखधंधेबाजों तक पहुंच नहीं पाते थे, वह कहां खड़े नजर आते हैं ? या, यूं कहें कि जैसा चलता था, वैसा ही चलता रहेगा ? यह देखने वाली बात होगी कि सरकार किस तरह कदम उठाती है, लेकिन हां, इतना जरूर है कि प्रदेश की 250 दुकानें बंद हुई हैं तथा अब अधिनियम के मसौदे को बदलने, जितनी सख्ती के साथ निर्णय लिया गया है। निश्चित ही यह प्रदेश की जनता के हितों के लिए सही कदम है।

बुधवार, 23 मार्च 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - फिर चली ममता की मनमानी।
पहारू - क्या करें, हर जगह कांग्रेस की मजबूरी है।

2. समारू - छग में घोड़े, विलुप्ति की कगार पर है।
पहारू - सफेदपोश घोड़े तो पैदा हो रहे हैं, न।

3. समारू - विकीलिक्स ने खुलासा किया है कि प्रणव मुखर्जी पीएम के दावेदार थे।
पहारू - अब भी मन में क्या कम लड्डू फूट रहे हैं।

4. समारू - छग में सबके पास वोटर कार्ड होगा।
पहारू - कुछ उसी तरह, जैसे गरीबी रेखा का राशन कार्ड हैं।

5. समारू - छग सरकार ने 7 नए कालेज खोलने का निर्णय लिया है।
पहारू - फिर भी तो उच्च शिक्षा की बदहाली कायम है।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

टेढ़ी नजर

1। समारू - छग कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष का फैसला होली के बाद होगा।
पहारू - ऐसी न जाने कितनी होली बीत गई है।

2। समारू - सुरेश कलमाड़ी से सीबीआई ने दूसरी बार पूछताछ की।
पहारू - जितनी बार पूछताछ कर ले, कमाई थोड़ी न कम पड़ने वाली है।

3। समारू - पायलटों ने फर्जी मार्कशीट से नौकरी हथिया ली।
पहारू - हर जगह फर्जी ही तो छाए हुए हैं।

4। समारू - जांच के बाद ही जापानी खाद्य वस्तुएं भारत आएंगी।
पहारू - तब तो चाइना के बल्ले-बल्ले।

5। समारू - एक-एक कर भ्रष्टाचार की हांडी फूट रही है।
पहारू - फिलहाल छोटा छेद ही नजर आ रहा है।

सोमवार, 14 मार्च 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - जाटों ने ओबीसी आरक्षण के लिए आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी है।
पहारू - आरक्षण का झमेला तो राजनीतिक पार्टियों ने वोट के लिए पाल रखी है।

2. समारू - टैक्स पर इनकम बटोरने वाला एक और नाम आया।
पहारू - जितनी कमाई, उतनी टैक्स चोरी, खुली छूट है।

3. समारू - छग विधानसभा में कांग्रेस, भाजपा सरकार को घेरने में सफल नजर आ रही है।
पहारू - इतनी एकजुटता दिखाकर चुनाव में मेहनत करते तो विपक्ष में नहीं रहते।

4. समारू - पूर्व राज्यपाल एनडी तिवारी की मुश्किलें कम नहीं हो रही है।
पहारू - इस उम्र में कोई उनका बेटा होने का दावा करे तो फजीहत तो होगी ही।

5. समारू - छह करोड़ भारतीय दिल की बीमारी से ग्रस्त होने शोधकर्ताओं का दावा।
पहारू - कुपोषण की बीमारी की समस्या से बड़ी थोड़ी न है।

शनिवार, 12 मार्च 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - सरकार ने सांसदों की नीधि बढ़ा दी है।
पहारू - देखते हैं, कहां खर्च होगा।

2. समारू - नित्यानंद नपुंसक नहीं था, जांच में सीआईडी को कबूरा।
पहारू - तभी तो नित्य आनंद लेता था।

3. समारू - जापान में सुनामी से तबाही मच गई है, सैकड़ों की मौत हो गई है।
पहारू - भारत में सैकड़ों मौत तो गरीबी व भुखमरी से हो जाती है।

4. समारू - झारखंड में दूसरों से फैसले लिखवाने वाले जज को बर्खास्त कर दिया गया है।
पहारू - राजस्थान में भी तो कई जज परीक्षा में नकल करते पकड़े गए थे।

5. समारू - छग विधानसभा में आस्तिन तानने वाले नेता के कारण सत्ता पक्ष की काफी किरकिरी हुई।
पहारू - ऐसा लगा, जैसे कमल विहार की सियासी जीत के बाद बौरा गया था।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

सांसद निधि बढ़ाना, कितना जायज ?

सांसदों की निधि बढ़ाने की मांग पर आखिरकार सरकार ने मुहर लगा ही दी। बरसों से देश के सैकड़ों सांसद यह मांग करते आ रहे थे कि उनकी निधि 2 करोड़ से बढ़ाकर 5 करोड़ रूपये कर दी जाए। सांसदों की इन बहुप्रतीक्षित मांग के लिए एक समिति भी बनाई गई थी, जिसके माध्यम से सांसद निधि बढ़ाने की सिफारिश सरकार से की गई थी और जिसमें अंतिम छोर के गांव-गरीब के विकास की दुहाई दी गई थी। पहले तो इस मुद्दे पर सरकार की दिलचस्पी नजर नहीं आई थी, लेकिन सरकार के अंदर व बाहर तो वही सांसद हैं, जिन्हें संसद में प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है। मजेदार बात यह है कि विचारों के दृष्टिकोण से हर पार्टी के सांसदों की अपनी लॉबी होती है, लेकिन यहां देखने वाली बात यह रही कि सांसद निधि बढ़ाने के मामले में अधिकतर सांसदों की हामी रही तथा पूरी तरह संगठित व एक नजर आए। यही सांसद के हित की बहस में कभी सहमत नहीं होते और आरोप-प्रत्यारोप भी चलता है, मगर बात वही है, जब बात खुद की हित की हो तो भला वे गरम लोहे पर हथौड़ा मारने से कैसे चूक सकते हैं। देर से ही सही, सरकार भी दबाव के कारण धीरे-धीरे नरम पड़ गई और देश के करीब 8 सौ सांसदों को 2 करोड़ के बजाय अब 5 करोड़ रूपये, विकास निधि देने का निर्णय लिया गया है। निश्चित ही सांसदों के चेहरे खिल गए होंगे, लेकिन जिन आम लोगों के रहमो-करम पर वे उंची कुर्सी पर बैठे हैं, उनके कैसे हालात हैं, यह भी जानना आवश्यक है। सीपीआई नेता गुरूदास ने निधि बढ़ाने पर चिंता जाहिर की और कहा है कि इससे जनता के हितों का कोई भला होने वाला नहीं है। कुछ सांसदों ने निधि बढ़ाए जाने को एक तरह से सिरदर्दी करार दिया है।
सांसदों की निधि बढ़ाने से सरकार की सोच, विकास की हो सकती है और देश के सांसदों ने भी ऐसी ही बातों की दुहाई देते हुए अपनी निधि बढ़ाने की जुगत भिड़ाई है। मगर यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सांसदों की निधि बढ़ाया जाना जायज है ? इस बात के कई बिंदुओं पर विचार हो सकता है और हर किसी के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन हमारा यहां मानना है कि देश में अधिकतर सांसदों द्वारा निधि को विकास कार्य में खर्च नहीं किया जाता और जो राशि, विकास के नाम पर दी जाती है, वह भी रेवड़ी की तरह बांट दी जाती है। सांसद यह नहीं देखते कि आखिर जिस संस्था या व्यक्ति को अपनी निधि की राशि दे रहे हैं, वह समाज हित में कितना काम करते हैं ? यह बात आए दिन सामने आती रहती है कि सांसद निधि की राशि का इसलिए खर्च नहीं हो पाता, क्योंकि कमीशन के खेल की उलझन बनी रहती है।
हम यह नहीं कहते कि सांसद निधि का सदुपयोग नहीं होता। देश में अनेक ऐसे सांसद हैं, जो अपनी निधि की पूरी राशि खर्च कर क्षेत्रीय विकास में योगदान देते हैं, मगर इसके दूसरे पहलू भी हैं। देश में ऐसे सांसदों की भी कमी नहीं है, जो सांसद निधि खर्च कर विकास करना मुनासिब नहीं समझते। इस बात खुलासा हर बरस मीडिया रिपोर्ट के माध्यम से होती रहती है, फिर भी सांसद क्यों नहीं जागते ? यह एक यक्ष प्रश्न है, क्योंकि अब तक देश के बहुतायत सांसद अपनी निधि को रेवड़ी की तरह बांटने के बाद भी 2 करोड़ खर्च करने में भी कंजूस साबित होते रहे हैं या कहंे कि वे खर्च करने में ही रूचि नहीं लेते। ऐसे में निश्चित ही क्षेत्रीय विकास थम जाता है।
जब सांसदों ने 2 करोड़ के बजाय 5 करोड़ अपनी निधि तय किए जाने की मांग की, उसी समय कई तरह के सवाल जानकारों ने खड़े किए गए थे, जिनमें प्रमुख रूप से यही बात थी कि जब अधिकतर सांसद 2 करोड़ की राशि खर्च नहीं कर पाते तो क्या वे 5 करोड़ की राशि क्षेत्रीय विकास में खर्च कर पाएंगे ? सरकार द्वारा निधि बढ़ाए जाने के बाद, अब भी यह सवाल आज भी कायम है। सांसदों द्वारा निधि खर्च किए जाते हैं और जैसा कमीशन का खेल चलने की बात सामने आती रहती है, उससे निधि शुरूआत करने की जो मंशा थी, वह पूरी नजर नहीं आती, क्योंकि आम जनता सांसद निधि से दूर ही नजर आती है। यदि ऐसा नहीं होता तो सांसद निधि की राशि गरीबों के उत्थान में खर्च होते, परंतु निधि खर्च किए जाने की स्थिति पर बारीकी से गौर करने के बाद पता चलता है कि निधि की राशि उन संस्थानों व संस्थाओं को रेवड़ी की तरह बांटा जाता है, जिन्हें इसकी जरूरत कम है और जिन गरीबों के विकास के लिए राशि, सरकार देती है, उससे गरीब व आम जनता निधि के लाभ से अछूते ही रहते हैं। आखिर बात वही है कि जब सांसदों की 2 करोड़ की निधि खत्म नहीं हो पाती तो 5 करोड़ की राशि बढ़ाने का भला क्या मतलब ? यहां पर सरकार को सबसे पहले सांसदों पर दबाव बनाते हुए पहल करना चाहिए था कि वे 2 करोड़ की राशि को समय पर खर्च नहीं कर पाते और जिससे विकास कार्य नहीं हो पाते। जब 5 करोड़ दे दिए जाएंगे तो फिर कैसे वे राशि को आम लोगों के लिए हितकारी साबित कर पाएंगे ?
क्या सांसदों ने अपनी निधि बढ़वाने के पहले इस बात की चिंता की कि आजाद भारत में आज भी आधी से अधिक आबादी महज 20 रूपये से कम आमदनी में जीवन जीने मजबूर हैं। देश में जितनी भी सरकार अब तक बनी है, सभी ने यह कहकर वोट बटोरी कि गरीबी, भुखमरी और बेकारी खत्म कर दी जाएगी, लेकिन अफसोस अब तक इन मुद्दों पर कोई कारगर नीति नहीं बनाई जा सकी है। देखा जाए तो गरीबों के नाम पर केवल राजनीति होती आ रही है और गरीब व्यक्ति मुफलिसी से उबर नहीं पा रहे हैं। सरकार केवल इतना दावा करती नजर आती है कि कुछ बरसों में गरीबी, बेकारी खत्म हो जाएगी, लेकिन समस्याएं जस की तस बनी हुई है। दुनिया के किसी भी मुल्क के लिहाज से भारत में युवाओं की संख्या अधिक है, लेकिन आज हम कहां है और देश के भविष्य माने जाने वाले युवा की हालत कैसी है ? यह जानने की फिक्र किसी को नहीं है। अधिकतर युवा बेकारी के शिकार हैं और वे गलत दिशा में मुड़ रहे हैं। इस तरह के हालात के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हो सकता है ? या फिर कोई जिम्मेदारी लेने के लिए हिम्मत जुटा सकता है ? इन बातों पर भी गहन विचार किए जाने की जरूरत है।

बुधवार, 9 मार्च 2011

टेढ़ी नजर -

1. समारू - कांग्रेस व डीएमके में खटास पैदा हो गई है।
पहारू - वर्चस्व की लड़ाई में ऐसा ही होता है।

2. समारू - लड़खड़ा कर जीत रही भारतीय टीम।
पहारू - यह तो पुरानी आदत है।

3। समारू - सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी पद से पीजे थामस को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
पहारू - चलो, भारतीय व्यवस्था में एक और दाग लगने से बच गया।

4. समारू - प्रधानमंत्री ने कहा है कि सीवीसी मामले में उन्हें कुछ पता नहीं था।
पहारू - आखिर, यहां क्या मजबूरी रही होगी।

5. समारू - महिला आरक्षण की मांग जोर-शोर से एक बार फिर उठी।
पहारू - क्या मतलब, आरक्षण का लाभ तो महिला के पति ही उठाते हैं।

सोमवार, 7 मार्च 2011

एक बार फिर विवादों में केएसके महानदी पावर प्लांट

छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिला अंतर्गत ग्राम नरियरा में स्थापित किए जा रहे 36 सौ मेगावाट के केएसके महानदी पावर प्लांट का जैसे लगता है, विवादों से ही नाता है। अतिरिक्त मुआवजा दिए जाने की मांग को लेकर कुछ दिनों पहले हुई किसानों की भूख-हड़ताल तथा धरना-प्रदर्शन का विवाद जैसे-तैसे थम पाया था, उसके बाद अब रोगदा बांध को बेचे जाने के मामले विधानसभा में गूंज उठा। हालात यहां तक बन गए कि विपक्षी पार्टी के विधायकों को विधानसभा में हंगामा करना पड़ा और कार्रवाई तक स्थगित करनी पड़ी। अंततः पांच सदस्यीय समिति द्वारा जांच कराने सरकार को ऐलान करना पड़ा, तब कहीं जाकर सदन का गतिरोध खत्म हो सका। विधानसभा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक ने अगले सत्र में समिति की रिपोर्ट अंतिम दिन पेष करने की बात कही है। यहां दिलचस्प बात यह है कि विधानसभा में रोगदा बांध बेचे जाने का मुद्दा उठने तथा पांच सदस्यीय समिति द्वारा जांच किए जाने की घोशणा के बाद, मामले में संलिप्त अफसरों के हाथ-पांव फूलने लगे हैं, क्योंकि इससे पहले एक और मामले में बनी समिति की जांच में कई अफसर दोषी करार दिए गए थे। वैसे देखा जाए तो केएसके महानदी पावर प्लांट, षुरूआत से ही किसी न किसी मामले को लेकर विवादों से घिरा हुआ है।
रोगदा बांध के बारे मंे बताया जाता है कि तरौद-नरियरा क्षेत्र में सिंचाई असुविधा के कारण, फसल अच्छी नहीं होने के कारण 1963 में जल संसाधन विभाग द्वारा रोगदा बांध का निर्माण कराया गया था। 131 एकड़ क्षेत्र में फैले बांध से करीब 5 सौ एकड़ खेतों में सिंचाई होती थी और किसानों के लिए यह बांध किसी वरदान से कम नहीं था। बांध की 70 एकड़ से अधिक जमीन किसानों की है और यह भी बात उल्लेखनीय है कि क्षेत्र के किसान लगान पटाते आ रहे हैं।
इधर नरियरा समेत क्षेत्र के आधा दर्जन गांवों की जमीन पर स्थापित किए जा रहे 36 सौ मेगावाट के पावर प्लांट को राज्य सरकार द्वारा रोगदा बांध सौंप दिया गया। इसके एवज में शासन को महज 7 करोड़ मुआवजा दिए जाने की बात सामने आई है। क्षेत्र के ग्रामीणों ने बांध को पाटकर पावर प्लांट बनाए जाने की ष्श्किायत जिला प्रशासन तथा राज्य शासन के अफसरों को की थी, लेकिन साल बीतते गए, परंतु किसी तरह की कार्रवाई नहीं हो सकी और देखते ही देखते बांध का अस्तित्व खत्म हो गया। ग्रामीणों ने बांध के पाटे जाने से आवागमन की समस्या से भी अवगत कराया था। उनका कहना था कि बांध के पार से क्षेत्र के नरियरा, रोगदा, मुरलीडीह समेत अन्य गांवों के लोगों का आवागमन होता था। अब बांध को पाटे जाने से तथा सड़क का हस्तांतरण हो जाने से क्षेत्र के ग्रामीणों को 10 किमी अतिरिक्त दूूरी तय करनी पड़ रही है। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि जब बांध को पावर प्लांट को कथित तौर पर बेचे जाने का मामला सामने आया तो ग्रामीणों ने षिकायत की, तब जल संसाधन विभाग के अफसरों ने राज्य षासन को पत्र भेजकर समस्या से अवगत कराया था, लेकिन उस दौरान क्यों कोई कार्रवाई नहीं हुई ? या फिर अफसरों ने किसी तरह कार्रवाई करना, मुनासिब नहीं समझा ? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिसका जवाब, जब पांच सदस्यीय समिति की जांच रिपोर्ट आएगी तो खुलासा होगा। निष्चित ही यह इतना बड़ा मामला है कि लोगों की निगाह इस रिपोर्ट पर लगी रहेगी।
दूसरी ओर विपक्षी विधायकों ने विधानसभा में यह आरोप लगाया है कि अफसर, सरकार को भ्रामक जानकारी दे रहे हैं, जिसके चलते स्थिति स्पश्ट नहीं हो पा रही है। विपक्ष ने विधानसभा में बांध बेचने की अनुमति निरस्त करने तथा मामले में संलिप्त अफसरों को बर्खास्त करने की मांग की है। अब देखने वाली बात होगी कि जांच में किन बातों का खुलासा होगा और उसके बाद दोशी अफसरों पर किस तरह की कार्रवाई की जाएगी ?

क्या होगा कोसाबाड़ी का ?
पामगढ़ क्षेत्र के ग्राम डोंगाकोहरौद में केएसके महानदी पावर प्लांट द्वारा 300 एकड़ क्षेत्र में एक बांध बनाया जा रहा है। डोंगाकोहरौद में 11 बरस पहले 80 एकड़ क्षेत्र में कोसाबाड़ी बनाई गई थी। आज यहां हजारों की संख्या में साजा व अर्जुन के पेड़ लहलहा रहे हैं और कोसाबाड़ी से महिला समूह को प्रतिमाह 40 से 50 हजार रूपये की आमदनी हो रही है। जैसे ही समूह की महिलाओं को बांध निर्माण की जानकारी मिली, उन्होंने मुख्यमंत्री के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सौंपकर समस्या से अवगत कराया और कोसाबाड़ी को किसी तरह बचाने की गुहार लगाई। हालांकि, इस मामले में अब तक कोई पहल नहीं हो सकी है और यही कारण है कि महिलाओं की चिंता बढ़ गई है। इधर बांध न बनाए जाने की शिकायत के बाद अफसर यह बातें कह रहे हैं कि डोंगाकोहरौद की कोसाबाड़ी को जिस जगह पर बननी चाहिए थी, वह नहीं बनी है। ऐसे में सवाल यही है कि आखिर 11 बरस बाद इस बात का खुलासा क्यों किया जा रहा है ? इससे पहले अधिकारी-कर्मचारी क्यों चुप रहे ? कई बड़े अफसरों ने भी कोसाबाड़ी पहुंचकर मुआयना करते हुए तारीफ की थी, उस दौरान क्यों किसी ने इस बात से अवगत नहीं कराया कि कोसाबाड़ी, एलाट जगह के बजाय दूसरी जगह बन गई है ? अब जब मामला केएसके महानदी पावर प्लांट से जुड़ गया है तो तमाम तरह से लीपापोती का प्रयास किया जा रहा है। एक बात और है, जब कोसाबाड़ी, गलत जगह पर बनी बताया जा रहा है तो क्या उन अधिकारियों-कर्मचारियों पर कार्रवाई की जाएगी, जिन्होंने ऐसा कृत्य किया ?डोंगाकोहरौद की कोसाबाड़ी को प्रभावित न करने संबंधी रेषम विभाग के अधिकारियों ने भी राज्य शासन को पत्र लिखा है और कोसाबाड़ी से महिलाओं को होने वाली आय से अवगत कराया गया है। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि किस तरह कोसाबाड़ी के अस्तित्व को बचाया जाएगा ? वैसे भी केन्द्र सरकार की योजना के तहत बनी कोसाबाड़ी को किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता, लेकिन प्रषासन द्वारा गलत जगह में कोसाबाड़ी बनने की बात कहकर मामले से पल्ला झाड़ने की कोषिष की जा रही है। इस मामले में कलेक्टर ब्रजेष चंद्र मिश्र ने चर्चा में कहा कि कोसाबाड़ी में पेड़ की स्थिति के बारे में जानकारी ली जाएगी। यदि पौधे बड़े हो गए हैं तो कोसाबाड़ी को बचाने का हर संभव प्रयास किया जाएगा।

सड़कें व नहर भी चपेट में
डोंगाकोहरौद में बनने वाले बांध के कारण दो पीएमजीएसवाई की सड़कें तथा एक माइनर नहर प्रभावित हो रही हैं। साथ कोसाबाड़ी के अस्तित्व पर भी संकट के बादल गहराने लगे हैं। ग्रामीणों ने इसकी षिकायत दर्ज कराई है और कहा गया है कि इससे आवागमन की समस्या होगी। नहर प्रभावित होने से क्षेत्र के कई गांवों में सिंचाई की विकट स्थिति उत्पन्न होगी। किसानों को भी इस बात की चिंता सताने लगी है कि उनकी फसलों में सिंचाई कैसे होगी ? इधर मामले में पामगढ़ के एसडीएम बी.सी. एक्का का कहना है कि ग्रामीणों की शिकायत मिली है। मामले में जांच की जा रही है और मौका-मुआयना से ही स्थिति स्पश्ट हो सकती है। मामले में नियमानुसार कार्रवाई व पहल की जाएगी।

औने-पौने दाम पर जमीन खरीदी का आरोप
नरियरा समेत आधा दर्जन क्षेत्र में स्थापित किए जा रहे केएसके महानदी पावर प्लांट प्रबंधन पर किसानों की जमीन औने-पौने दाम में खरीदी किए जाने का आरोप है। इस बात को लेकर किसानों ने पिछले दिनों डेढ़ माह से अधिक समय तक भूख हड़ताल व धरना-प्रदर्शन किया था। हालांकि बाद में करीब 17 लाख रूपये प्रति एकड़ मुआवजा देने, समझौता किया गया। अभी भी किसानों की समस्या कम नहीं हुई है और इस तरह की आग धधक रही है। पिछले बरस गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों की जमीन औने-पौने दाम पर खरीदे जाने को लेकर आंदोलन भी किया था, लेकिन इस मामले में न तो प्रशासन ने सुध ली और न ही राज्य शासन ने। इन परिस्थितियों में किसानों के समक्ष मन मसोसने के सिवाय कुछ नहीं बचा।

‘अभी तो अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है’

वैसे तो महिलाएं सड़क पर उतरकर बहुत कम ही लड़ाई लड़ती हैं, मगर अपनी मांग को लेकर जब नारी-शक्ति अपने पर उतर आती हैं, तो फिर किसी को भी झुकना पड़ जाता है। ऐसा ही कुछ आंदोलन कर रही हैं, नगर पंचायत नवागढ़ की सैकड़ों महिलाएं। ब्लाक मुख्यालय में संचालित शराब दुकान को हटाने नवागढ़ समेत क्षेत्र के कई गांवों की महिलाएं लामबंद हो गई हैं और वे पखवाड़े भर से तहसील कार्यालय के सामने भूूख-हड़ताल करते हुए धरना प्रदर्शन कर रही हैं। अफसरों को हर दिन मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के नाम ज्ञापन सौंपा जा रहा है, लेकिन अब तक न तो जिला प्रषासन ने कोई पहल किया है और न ही राज्य षासन ने। हालांकि नवागढ़ की महिलाओं में आस कायम है कि सरकार उनके पक्ष में निर्णय लेगी और नवागढ़ की शराब दुकान बंद होंगी।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 25 किमी दूूर नगर पंचायत नवागढ़ में देषी शराब की दुकान संचालित होने के कारण पुरूषों के अलावा बच्चे भी शराब पीने के आदी हो रहे हैं और इसके चलते पारिवारिक माहौल बिगड़ता जा रहा है। घरों में अशांति कायम हो रही है। साथ ही शराब पीने के कारण लोगों की आर्थिक स्थिति भी खराब हो रही है। इसी बात से बौखलाई महिलाओं ने भूख-हड़ताल के पहले जिला मुख्यालय जांजगीर में नषामुक्ति अभियान के तहत रैली निकाली, जिसमें सैकड़ों महिलाएं शामिल हुईं। यहां कलेक्टर ब्रजेष चंद्र मिश्र को ज्ञापन सौंपकर षराब दुकान बंद कराने की मांग की गई। कलेक्टोरेट पहुंचे महिलाओं से कलेक्टर श्री मिश्र ने कहा कि वे उनकी मांग व समस्या से राज्य षासन को अवगत कराएंगे। इस दौरान महिलाओं का कहना था कि वे हर हालत में नवागढ़ में शराब दुकान संचालित होने नहीं देंगी और वे वृहद स्तर पर आंदोलन के लिए बाध्य होंगी।
इधर नवागढ़ में शराब दुकान हटाने किसी तरह की पहल नहीं होते देख महिलाओं ने एक बार फिर मोर्चा खोल दिया और भूख-हड़ताल करते हुए धरना-प्रदर्शन षुरू कर दिया। तहसील कार्यालय के सामने नवागढ़ समेत आसपास गांवों सिउंड़, किरीत, पोड़ी, ठाकुरदिया, हरदी की महिलाएं धरना-प्रदर्शन में रोजाना षामिल हो रही हैं। इनमें कई महिला जनप्रतिनिधि भी हैं। इनका भी यही कहना है कि क्षेत्र में हो रही शराब बिक्री पर ही प्रतिबंध लगना चाहिए।
महिलाओं के आंदोलन का समर्थन करते हुए राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य श्रीमती शकंुतला सिंह भी धरना-प्रदर्षन स्थल पहुंची और शराब दुकान हटाने की मांग को जायज ठहराया। उन्होंने बातचीत में कहा कि महिलाएं अपनी तकलीफों के कारण आज घर की चाहर-दीवारी से निकल कर धरना-प्रदर्शन कर रही हैं, क्योंकि शराब या फिर किसी भी तरह की नशाखोरी का दंष महिलाएं ही झेलती हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार निष्चित ही पहल करेगी, क्योंकि राज्य सरकार संवेदनशील है और महिलाओं की मांग को ध्यान में रखते हुए सरकार को ‘महिला-दिवस’ पर नवागढ़ की महिलाओं को यह उपहार सरकार को देनी चाहिए। शराब दुकान हटाने महिलाओं के आंदोलन को भाजपा के किसान मोर्चा के जिलाध्यक्ष राजशेखर सिंह समेत अन्य लोगों का भी समर्थन मिल रहा है।

किसी भी सूरत में नहीं खुलेंगी शराब दुकान: कीर्ति
चर्चा में नगर पंचायत नवागढ़ की अध्यक्ष श्रीमती कीर्ति केशरवानी ने कहा कि षराब के कारण महिलाओं को हो रही दिक्कतों व समस्याओं से जिला प्रषासन के अधिकारियांे तथा राज्य शासन को अवगत कराया गया है। उन्होंने कहा कि शराब एक सामाजिक बुराई है, जिससे सबसे ज्यादा महिलाएं ही प्रभावित होती हैं और यही कारण है कि आसपास गांवों की महिलाओं का भी समर्थन मिल रहा है और वे भी धरना-प्रदर्शन में शामिल होकर आंदोलन भागीदारी निभा रही हैं। श्रीमती केशरवानी का कहना है कि फिलहाल अभी शांति-पूर्ण ढंग से शराब दुकान हटाने की मांग की जा रही है, यदि शासन षराब दुकान हटाने कोई पहल नहीं करता तो फिर महिलाएं सड़क पर उतरकर लड़ाई लड़ेंगी और किसी भी सूरत में शराब दुकान संचालित होने नहीं दी जाएगी। उनका कहना है कि ‘अभी तो अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है’।

कई संगठनों का मिल रहा समर्थन
शराब दुकान हटाने की मांग व आंदोलन को कई संगठनों व जनप्रतिनिधियों ने समर्थन दिया है और धरना-प्रदर्शन में षामिल होकर महिलाओं के प्रयास को सार्थक बताया। महिलाओं ने बताया कि गायत्री परिवार, तहसील अधिवक्ता संघ तथा कई गांवों के लोगों का समर्थन मिल रहा है। पिछले दिनों चांपा के पूर्व विधायक मोतीलाल देवांगन ने भी महिलाओं की मांग को जायज ठहराया और महिलाओं से कहा कि वे अपनी मांग पर अडिग रहें।

शराब की अवैध बिक्री रूके कैसे ?
राज्य शासन ने प्रदेश की 250 शराब दुकानों को बंद करने का निर्णय लिया है। इसके कारण 2 हजार से कम जनसंख्या वाले गांवों में संचालित जिले की 30 दुकानें आगामी वित्तीय वर्ष से बंद हो जाएंगी, लेकिन सवाल यहां यही है कि आखिर शराब की अवैध बिक्री गांव-गांव में रूकेगी, कैसे ? आबकारी विभाग जहां स्टाफ की कमी का रोना रोता है तो पुलिस यही कहती है कि वे भी कहां-कहां कार्रवाई करे। साथ ही आबकारी अधिनियम भी खामियों के कारण कुछ बोतल शराब के साथ पकड़ाए जाने पर वह शराब बेचने वाला व्यक्ति बच निकलता है। ऐसे में कोई विशेश पहल सरकार को करनी चाहिए।

रविवार, 6 मार्च 2011

नकल का कलंक और नकेल

कई तरह के माफिया की बातंे जिस तरह अक्सर होती हैं, कुछ उसी तरह छत्तीसगढ़ में पिछले बरसांे मंे षिक्षा माफिया भी सक्रिय रहे। छत्तीसगढ़ के कई जिले नकल के लिए ही बदनाम हुए और नकल के कलंक को आज भी ढो रहे हैं। हालांकि आज स्थिति कुछ बदली हुई नजर आती हैं। सरकार और षासन की नीतियांे में बदलाव का ही परिणाम है कि फिलहाल इस बरस की बोर्ड कक्षाआंे में नकल पर नकेल होना, नजर आ रहा है। पिछले दो बरस में हुई परीक्षा की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रही। इस सख्ती का सीधा असर छात्रांे की संख्या पर देखी जा सकती है। कई जिलांे में दूसरे जिलों से आकर नकल के भरोसे पढ़ने वाले छात्रांेे की संख्या हजारांे में होती थी, उनकी संख्या भी अब नगण्य हो गई है।
देखा जाए तो एक दषक पहले से ही कई जिलों मंे षिक्षा माफिया ने अपनी दुकानदारी षुरू कर दी थी, इससे निष्चित ही छग की प्रतिभाएं दम तोड़ रही थी और यही लगने लगा था, जैसे नकल से ही छात्रों का बेड़ागर्क हो रहा है। जो भी हो, बेहतर षिक्षा की नींव तैयार करने कड़े कदम की जरूरत एक अरसे से महसूस की जा रही थी और षासन ने आखिरकार सख्ती दिखाई है। नकल का कलंक धोने के लिए आगे भी इसी तरह नकल पर नकेल कसा जाना चाहिए, क्योंकि भावी पीढ़ी के लिए यह प्रयास मील का पत्थर साबित होगा।
छत्तीसगढ़ में कुछ बरसों पहले तक षिक्षा माफिया इस तरह सक्रिय रहे, जैसे राज्य की षिक्षा नीति उनकी जेब में हो। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि किस तरह षिक्षा को व्यवसाय का रूप दे दिया गया और कई चेहरे रहे, जो नकल के भरोसे अपनी दुकानदारी चलाते रहे और अपनी तिजोरी भरकर प्रदेष की षिक्षा की नींव को खोखला करने तूले रहे। राज्य में कोई भी जिले में स्कूल खुलवाना जैसे षिक्षा माफिया के बाएं हाथ का खेल रहा है, तभी तो देखते ही देेखते स्कूलों की संख्या में कुछ ही बरस में एकाएक हजारों का इजाफा हो गया। आलम यह रहा कि कुछ एक जिलांे में दूसरे जिलांे से आकर पढ़ने वालों की संख्या बढ़ गई। इसका सबसे बड़ा उदाहरण, जांजगीर-चांपा तथा सरगुजा जिला है, जहां छग के सभी जिलांे के छात्रों की घुसपैठ थी और इसका कारण केवल यही माना जाता था कि इन जिलों में नकल के भरोसे आसानी से परीक्षा की वैतरणी पार लगाई जा सकती है। यही कारण रहा कि ये जिले नकल के लिए चारागाह बन गया और नकल माफिया भी बेबाकी से सक्रिय रहे। इसका परिणाम उन छात्रों को आज भी भोगना पड़ रहा है, जो अपनी प्रतिभा और पढ़ाई के दम पर परीक्षा देते हैं, लेकिन षिक्षा माफिया की कारस्तानियांे के कारण उनकी मंषा पर पानी फिर जाता था और परीक्षा में ऐसे छात्र बाजी मार लेते थे, जिसे केवल नकल का सहारा होता।
नकल के कारण 2008 का वह काला धब्बा षायद ही कोई भूला होगा, उन छात्रों के लिए यह किसी सदमा से कम नहीं मानी जा सकती, जब होनहार छात्र के बजाय नकल के बूते कोई मेरिट मंे परचम लहरा दे। बारहवीं की मेरिट सूची में पोरा के टाप किए जाने के बाद, जिस तरह षिक्षा मंडल ने मामले की जांच कराई और जो कुछ खुलासा हुआ, उसके बाद तो जैसे अफसरों के माथे पर बल पड़ गया। छग में षिक्षा की बदहाली और बदनामी का दौर यहीं थमता नजर नहीं आया, क्यांेकि दसवीं की मेरिट सूची में धांधली की बात सामने आई। इसके बाद जैसी किरकिरी राज्य की षिक्षा व्यवस्था तथा मंडल की नीतियांे की हुई, उससे नित विकास करता नया राज्य छग के कई जिले नहीं उबर पाए हैं। उस कलंक को अब भी धोने का प्रयास जारी है, लेकिन यहां गौर करने वाली बात है कि षिक्षा मंडल की लचर नीतियांे के कारण ही ऐसी स्थिति निर्मित होती रही, क्योंकि पहले से ही नकल के लिए बदनाम रहे स्कूलांे को परीक्षा केन्द्र बनाया जाता रहा। दिलचस्प बात यह है कि जिला प्रषासन द्वारा केन्द्रांे की संख्या नहीं बढ़ाए जाने के अभिमत पर षिक्षा मंडल का रवैय नकारात्मक होता था और परीक्षा के एक दिन पहले तक रेवड़ी की तरह केन्द्र बांटने का सिलसिला चलता था। आलम यह होता था कि परीक्षा केन्द्रों में व्यवस्था चरमरा जाती और एक-एक कमरे में छात्रों की संख्या इतनी होती, जहां किसी भी तरह बैठना मुमकिन नहीं होता था। लिहाजा, कौन छात्र कहां बैठा है, यह भी पता नहीं चलता था। मीडिया में इस बात को लेकर खबरें भी प्रसाारित होती रहती थी, लेकिन व्यवस्था बनाने किसी को कोई गुरेज नहीं होता। इन्हीं जैसी और भी परिस्थितियां नकल को बढ़ावा देने निर्मित होती थीं, लेकिन उस पर लगाम लगाने की साफगोई नीयत किसी में नजर नहीं आती थी। यहां वही कहावत चरितार्थ होती थी, आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?
जांजगीर-चांपा जिले को ही ले लें, जिस बरस पोरा मेरिट प्रकरण सामने आया, उस साल जिले में 172 केन्द्र बनाए गए थे तथा करीब 70 हजार परीक्षार्थियांे ने दसवीं-बारहवीं की परीक्षा दिए थे। इनमें से कई केन्द्रांे को बंद करने की बात जिला प्रषासन द्वारा कही गई थी, मगर षिक्षा मंडल के कर्ता-धर्ताओं को इन बातांे की फिक्र कहां कि नकल की प्रवृत्ति, किस तरह प्रदेष की षिक्षा की नींव को सुरसा की तरह लील रही है ?
छग के कई जिलों में तीन बरस पहले तक नकल की जो परिपाटी थी, निष्चित ही उस पर लगाम लगी है, लेकिन प्रदेष की षिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। एक समय था, जब छात्रों का रेला परीक्षा के समय लगता था, ऐसे नकल के लिए बदनाम जिलों में राज्य षासन द्वारा परीक्षा केन्द्रों की संख्या कम की गई है और नकल रोकने तमाम उपाय किए जाने तथा जिला प्रषासन के हस्तक्षेप बढ़ने से इस कुप्रवृत्ति पर काफी हद तक रोक लगी है। नकल नहीं होने से पिछले दो बरसांे में परीक्षा का रिजल्ट का आंकड़ा जरूर कम हुआ है, लेकिन षिक्षा की नींव मजबूत करने आगे भी नकल पर नकेल कसा जाना जरूरी होगा, तभी हम अपनी नई पीढ़ी की प्रतिभाओं को गुणात्मक षिक्षा से लबरेज कर सकते हैं। साथ ही इस कुप्रवत्ति को रोकने से हम नकल के कलंक को धोने कामयाब होंगे और नई पीढ़ी की पौध का षैक्षणिक स्तर भी बेहतर होगा।

राजनीति का शिकार ‘शबरी महोत्सव’

टेम्पल सिटी शिवरीनारायण में हर बरस माघी पूर्णिमा से आयोजित होने वाले मेले की छत्तीसगढ़ ही नहीं, वरन् दूसरे राज्यों में भी पहचान है। छत्तीसगढ़ के इस सबसे पुराने व पुरातन मेले ने अपनी छाप छोड़ी है, मगर राज्य सरकार की उदासीनता के कारण शिवरीनारायण मेले की प्रसिद्धि पर असर पड़ रहा है। शासन के मनमाने रवैये के कारण शबरी महोत्सव का आयोजन पिछले तीन बरसों से नहीं हो पा रहा है। संस्कृति विभाग के छलावा से क्षेत्रवासी निराश हैं। शबरी महोत्सव की राशि कई वर्षों से नहीं मिलने के कारण आयोजन समिति ने अपना पल्ला झाड़ लिया है, यह स्वाभाविक भी है कि आखिर कब तक शासन के सहयोग बिना महोत्सव हो पाएगा। शबरी महोत्सव का आयोजन नहीं होने से मेले में फीकापन महसूस किया जा रहा है। शायद इस बात को संस्कृति विभाग के नुमाइंदे समझ नहीं पा रहे हैं। अंततः यही कहा जा सकता है कि शिवरीनारायण का शबरी महोत्सव राजनीति का शिकार हो गया है, यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार महोत्सव से मुंह क्यों मोड़ लेती ?
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद शिवरीनारायण को टेम्पल सिटी का दर्जा दिया गया और यहां करोड़ों रूपये के निर्माण कार्यों की स्वीकृति भी दी गई। उस दौरान यह भी निर्णय लिया गया कि शिवरीनारायण में माघी पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाले मेले के साथ ही सात दिवसीय ‘शबरी महोत्सव’ का आयोजन किया जाए। उस दौरान यह परिपाटी शुरू हो गई और इस तरह करीब पांच-छह बरसों तक शबरी महोत्सव का आयोजन होता रहा।
पांच बरस पहले आयोजन समिति के सदस्यों ने किसी तरह शबरी महोत्सव का आयोजन कराया और संस्कृति विभाग द्वारा निर्धारित राशि देने की बात कही गई, लेकिन समिति को राशि नहीं मिल सकी। इस तरह पूरा साल बीत गया और एक बार फिर शबरी महोत्सव की तैयारी की जाने लगी। यहां दिलचस्प बात यह है कि आयोजन समिति को संस्कृति विभाग से तब महोत्सव के लिए राशि मिली, जब महज एक-दो दिन ही माघी पूर्णिमा को बचा था। अब यहां सवाल उठता है कि आखिर इतनी देर से राशि क्यों जारी की गई ? इस साल शबरी महोत्सव का आयोजन नहीं हो सका। इसके बाद जैसे यह परिपाटी ही आगे बढ़ गई और संस्कृति विभाग का नकारात्मक रवैया ही सामने आया।
शिवरीनारायण में पिछले तीन बरस से शबरी महोत्सव का आयोजन बंद है, इसका मूल कारण समय पर राशि का नहीं मिलना बताया जा रहा है, जिसके कारण समिति के सदस्यों का आयोजन से मोह भंग हो गया है। शबरी महोत्सव के माध्यम से स्थानीय लंोक कलाकारों को मंच मिलता था, वहीं छत्तीसगढ़ समेत अन्य जगहों के ख्यातिलब्ध कलाकारों की प्रस्तुति देखने को मिलती थी। शबरी महोत्सव की शुरूआत के बाद शिवरीनारायण की भव्यता बढ़ गई थी, लेकिन राज्य शासन व संस्कृति विभाग के मनमाने रवैये के कारण अब क्षेत्रवासी निराश हैं। शिवरीनारायण मेले की अनदेखी की बात भले ही संस्कृति विभाग के कर्ता-धर्ता न स्वीकारें, लेकिन धरातल में जाकर देखने से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि किस तरह संस्कृति विभाग का रवैया, राशि जारी करने टाल-मटोल है।
शबरी महोत्सव के लिए राशि जारी नहीं करने को राजनीति के चस्में से भी देखा जा रहा है, क्योंकि महोत्सव की शुरूआत जब हुई थी, तब मुख्यमंत्री अजीत जोगी कांग्रेस के थे और उस दौरान शिवरीनारायण मठ के मठाधीश राजेश्री महंत रामसुंदर दास, पामगढ़ से विधायक थे। फिलहाल वे जैजैपुर से विधायक हैं। ऐसा नहीं है कि भाजपा की सत्ता में आने के बाद शबरी महोत्सव नहीं हुआ, लेकिन एक-दो साल। इसके बाद तो राज्य सरकार द्वारा शबरी महोत्सव के प्रति ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यही कारण है कि क्षेत्र में चर्चा का विषय है कि शबरी महोत्सव, राजनीति का शिकार हो गया है और सरकार, महोत्सव तथा शिवरीनारायण मेले को आगे बढ़ाने में रूचि नहीं ले रही है।

सरकार की अनदेखी का परिणाम: राजेश्री
शिवरीनारायण के मठाधीश एवं जैजैपुर के कांग्रेसी विधायक राजेश्री महंत रामसुंदर दास ने बताया कि सरकार की अनदेखी के कारण शिवरीनारायण में शबरी महोत्सव पिछले तीन बरसों से नहीं हो पा रहा है। आयोजन के लिए राज्य शासन द्वारा राशि जारी नहीं की जा रही है। तीन साल पहले समिति के लोगों ने जैसे-तैसे आयोजन कराया, लेकिन संस्कृति विभाग से राशि नहीं मिली। उन्होंने बताया कि शबरी महोत्सव आयोजन समिति के अध्यक्ष के नाते, राज्य शासन को समस्या से अवगत कराया। साथ ही विधानसभा में भी इस मुद्दे को उठाया, तब सकारात्मक पहल की बात कही गई थी, लेकिन बाद में वहीं ढाक के तीन पात की स्थिति रही। राजेश्री ने कहा कि शबरी महोत्सव नहीं होने से क्षेत्रवासियों में निराशा है और कहीं न कहीं राज्य शासन द्वारा धार्मिक नगरी की महत्ता को दरकिनार किया जा रहा है।

विभाग भूला महोत्सव की परिपाटी
चार साल पहले ऐतिहासिक और धार्मिक नगरी की महत्ता को बताने तथा उसका प्रचार-प्रसार किए जाने को लेकर छत्तीसगढ़ के कई जिलों में महोत्सव की परिपाटी की शुरूआत की गई थी, जो महज एक बरस ही चल पाई, इसके बाद कई जगहों पर आयोजन राशि के अभाव में थम गया। संस्कृति विभाग द्वारा छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात लक्ष्मणेश्वर की नगरी में ‘लक्ष्मणेश्वर महोत्सव’ का आयोजन किया गया था। इस आयोजन से लोगों में खासा उत्साह था, लेकिन विभाग द्वारा महोत्सव की परिपाटी भूल जाने से, वह मंशा साकार नहीं हो सकी, जिसे लेकर महोत्सव जैसे आयोजन की शुरूआत की गई थी।