बुधवार, 31 अगस्त 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी स्टैंडिंग कमेटी से नाम वापस ले लिया था।
पहारू - और कितनी अपनी फजीहत कराएगा, पहले ही कड़वी जुबान बोलकर मुंह की खा चुका है।


2. समारू - कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य लाभ लेकर आने वाली हैं।
पहारू - अब उन्हें कांग्रेस की बिगड़ी तबियत ठीक करनी पड़ेगी।


3. समारू - मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को 1 लाख का चेक घूस देने भेजा गया है।
पहारू - स्पेक्ट्रम के बाद इन जैसे चेक की जरूरत ही कहां हो सकती है।


4. समारू - राज्यों में लोक सेवा की बहाली करने होड़ मची है।
पहारू - बरसों हो गए कानून लागू हुए, अब तक क्यों सोए बैठे थे।


5. समारू - छग सरकार ने सरकारी शिक्षक के ट्यूशन पर बैन लगा दिया है।
पहारू - और स्कूल पहुंचने, कोताही बरतने पर कब लगाम लगेगी।

टेढ़ी नजर

1. समारू - बस्तर दशहरे पर 25 लाख का कर्ज की खबर है।
पहारू - छत्तीसगढ़ में होने वाले अधिकांश महोत्सव का यही हाल है।


2. समारू - छग में भाजपा सरकार विधानसभा में घिर रही है।
पहारू - सुस्त विपक्ष को बैठे-ठाले मुद्दे जो मिल जाते हैं।


3. समारू - राजीव गांधी की हत्या की सजा प्राप्त तीन व्यक्तियों की पैरवी राम जेठमलानी कर रहे हैं।
पहारू - ऐसी रिस्क वे लेते रहते हैं, भले ही भाजपा से फटकार ही मिलें।


4. समारू - शांति भूषण मामले की सीडी में छेड़छाड़ नहीं होने का खुलासा जांच में हुआ है।
पहारू - वे ‘शांति’ से यही कह रहे हैं, यह किसी की साजिश है।


5. समारू - डाक्टर बन गए हैं, भारतीय क्रिकेट को उंचाई तक पहुंचाने वाले महेन्द्र सिंह धोनी।
पहारू - उपलब्धि के पीछे कौन नहीं भागता, तभी तो बिना पढ़े बन गए डाक्टर।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - पाकिस्तान की विदेश मंत्री ‘हीना रब्बानी’ भारत यात्रा पर आई हैं।
पहारू - ऐसा लगता है, मीडिया में बहार आ गई है।


2.समारू - खबर है, बंगलौर में प्लास्टिक से सड़क बनाई गई है।
पहारू - यहां तो सड़कें नहीं, गड्ढों में प्लास्टिक पड़ी मिलती हैं।


3.समारू - फिल्म अभिनेता ओमपुरी ने सांसदों को अनपढ़ व गंवार कहा।
पहारू - अब सांसद, इसे उनकी सनक करार दे रहे हैं।


4.समारू - अन्ना, अब चुनाव सुधार पर आंदोलन करने वाले हैं।
पहारू - पहले अवाम को वोट की अहमियत बतानी पड़ेगी।


5.समारू - स्वामी अग्निवेश की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं।
पहारू - मुश्किलें भी आती हैं तो चारों ओर से।

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना, अनशन और सरकार

भ्रष्टाचार के भस्मासुर को भस्म करने के लिए समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद ऐसा लगता है, जैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में भूचाल गया है और करोड़ों लोग सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं। अन्ना के आंदोलन के बाद केन्द्र की यूपीए सरकार भी बैकफुट पर है। इसके लिए सरकार की नीति-नियंता बने कुछ मंत्री जिम्मेदार माने जा सकते हैं, क्योंकि उनके गलत निर्णय के बाद ही अन्ना हजारे को देश भर में और ज्यादा समर्थन मिलने लगा। अहिंसक आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने जिन नीतियों पर काम किया और अनशन के लिए जाते समय अन्ना हजारे की घर से निकलते ही गिरफ्तारी की, उसके बाद देश भर में सरकार की कार्रवाई की थूं-थूं होने लगी। इसी का परिणाम रहा कि सात दिनों के लिए तिहाड़ जेल भेजे गए अन्ना को महज कुछ घंटे में रिहा करने के आदेश दे दिए गए, मगर अब तो बाजी अन्ना टीम के पाले में चली गई थी। लिहाजा अन्ना ने अपना पैतरा बदलते हुए जेल में ही रहकर अनशन करना शुरू कर दिया और करीब तीन दिन वे जेल में बिताए। जेल प्रशासन ने उन्हें रिहा कर दिया था, मगर सरकार की अनैतिक कार्रवाई के विरोध में वे जेल में भी अनशन करते रहे। अन्ना की जिस तरह की गांधीवादी सरल छवि बरसों से देश में बनी हुई है, उसी के चलते हर वो नागरिक उनके जुड़ते चला जा रहा है, जो भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है।
वैसे अन्ना हजारे का जैसा नाम है, वैसे ही काम व समाज सुधार के लिए वे जाने जाते हैं। कई दशकों के अपने सामाजिक उत्थान के कार्यों के दौरान वे दर्जन भर से अधिक बार ‘अनशन’ कर चुके हैं और उन्हें हर बार सफलता मिली है। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव ‘सिद्ध’ से उनकी समाज सेवा की जो शुरूआत हुई, वह आज भी जारी है। महाराष्ट्र सरकार से इन कई दशकों में उनका कई बार ‘अनशन’ के माध्यम से दो-दो हाथ हो चुका है। सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों की एक ही जगह पर तीन बरसों के भीतर दोबारा पदस्थापना नहीं करने की उनकी मांग पर महाराष्ट्र सरकार झुकी थी, वहीं मंत्रियों की खिलाफत में भी सरकार को मुंह की खानी पड़ी थी। सूचना के अधिकार कानून के लिए भी उन्होंने अनशन किया था।
अन्ना हजारे के अब तक आंदोलनों पर नजर डालें तो पाते हैं कि उनके सभी आंदोलन गांधीवादी व अहिंसक रहे और लाखों-करोड़ों लोगों का उन्हें समर्थन मिला। अब वे मजबूत लोकपाल बिल अर्थात जनलोकपाल बिल लाने के लिए अनशन का सहारा ले रहे हैं, वह भी अहिंसक है। वे बार-बार देश की अवाम को यही कहते रहते हैं कि कोई भी परिस्थिति में हिंसा नहीं करनी है और न ही, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना है। इस बात का समर्थन उन्हें मिल भी रहा है। अन्ना के अनशन को कई दिन हो गए हैं, लेकिन देश में किसी भी जगह से ऐसी किसी हिंसा की बात सामने नहीं आई है। यह किसी भी आंदोलन की सफलती की कहानी कहती है। यही लड़ाई सरकार के लिए फजीहत बन गई और सरकार को न तो खाते बन रही है और न ही उगलते। सरकार ने अन्ना हजारे पर भ्रष्टाचार समेत अन्य गंभीर आरोप लगाए, मगर यह दांव उल्टा पड़ गया और अन्ना की आंधी के आगे सरकार ठिठक कर रह गई। जनता ने अन्ना का पूरा समर्थन किया और सरकार के कारिंदे एक-दूसरे को कोसते रहे कि अन्ना पर व्यक्तिगत हमला नहीं करना चाहिए था।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का भी इस विधेयक को लेकर ढुलमुल रवैया नजर आ रहा है। कभी वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री को भी इसके दायरे में आना चाहिए, फिर कैबिनेट की बैठक में मंत्रियों से मशविरा बाद यह बात कही जाती है कि सरकार को यह मंजूर नहीं कि जो लोकपाल बिल बने, उसके दायरे में प्रधानमंत्री भी आए। यहां हमारा यही कहना है कि आखिर यूपीए सरकार इतनी डरी-सहमी क्यों है ? जब उनके प्रधानमंत्री ईमानदार माने जाते हैं, ये अलग बात है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान आजाद भारत में सबसे अधिक भ्रष्टाचार हुए हैं। सरकार में बैठे मंत्री, खासकर वे जो जन लोकपाल बिल का विरोध कर रहे हैं, शायद उन्हें यह लगता होगा कि टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा ने प्रधानमंत्री की ओर उंगली उठाई है और यहां तक मुंह खोल दिया कि वे जो भी करते रहे, वह पहले से चलता आ रहा था तथा उसकी जानकारी प्रधानमंत्री को थी। इस बात का खुलासा होने के बाद शुतुरमुर्ग की तरह सोया विपक्ष के भी कान खड़े हो गए और वे प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़े करने लगे। विपक्ष के निशाने पर प्रधानमंत्री आ गए। यही बात है, जो शायद सरकार को डरा रही है, नहीं तो प्रधानमंत्री को दायरे में आखिर कैसी हिचक होनी चाहिए।
संविधान में कई फेरबदल की बात या अन्य पेचीदगियों का हवाला देकर प्रधानमंत्री को लोकपाल बिल से बाहर रखने की बात पर जोर दे रहे हैं, किन्तु हमारा यही कहना है कि यही वह सरकार है, जो जनतंत्र की नींव मजबूत करने के लिए देश की जनता को 2005 में ‘सूचना का अधिकार’ कानून समर्पित करती है। जो आज हर जागरूक जनता का मजबूत हथियार है, जिसके बदौलत कई घपले भी उजागर हुए हैं और व्यूरोक्रेसी भी तिलमिलाई हुई है। इसे इसी बात से जाना जा सकता है कि इसी साल 8 आरटीआई ( सूचना के अधिकार ) कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। खैर, सूचना का अधिकार के अलावा एक बात और है, जब हम संविधान को सर्वोच्च मानते हैं और चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री या उसके बाद वे अपनी संपत्ति की घोषणा कर एक मिसाल पेश करते हैं तो फिर खुद को लोकपाल के दायरे में लाने, हिचक क्यों ? यह एक ऐसा सवाल है, जिसे देश की जनता पूछ रही है।
अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल तथा संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास पहुंचा सरकारी लोकपाल बिल में वैसे मतभेद कई हैं, मगर तीन बातों पर प्रमुख रूप से मतभेद हैं। इनमें पहला प्रधानमंत्री को लोकपाल बिल के दायरे में लाने की है, जो मांग अन्ना टीम ने की है, मगर सरकार इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती। जनलोकपाल के ड्राफ्ट में ज्यूडिशरी को शामिल करने के साथ सांसदों से लेकर बड़े से छोटे अधिकारियों-कर्मचारियों को दायरे में लाने की अन्ना की टीम कवायद कर रही है। इस मामले में भी सरकार नहीं चाहती कि ज्यूडशरी, लोकपाल के दायरे में आए।
अब तो एक तीसरे लोकपाल बिल का ड्राफ्ट को तैयार किया गया है, वह है समाजसेवी अरूणा राय व उनकी टीम ने। इसे प्राइवेट प्रस्ताव रखकर संसद में पेश कराने की तैयारी है, हालांकि इसमें अन्ना हजारे की तरह जोर नहीं दिया गया है कि सरकार उनकी बात या ड्राफ्ट को स्वीकार करे। दूसरी अन्ना हजारे व उनकी टीम का कहना है कि वे जनलोकपाल बिल से कम कुछ नहीं चाहते। सरकार की ओर से अभी तक स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा रहा है, बस इतना कहा जाता है कि बातचीत के रास्ते खुल हैं और अन्ना टीम का भी बयान आता है कि वे भी बातचीत करने तैयार हैं, लेकिन आखिर यह पहल करने तो कौन ? किसी को तो आगे आना होगा, तभी बिल पर विचार-विमर्श हो सकेगा, नहीं तो ऐसा ही चलता रहेगा।
सरकार अकड़ी बैठी रहेगी और अन्ना, अपना अनशन जारी रखेंगे, जनता भी पल-पल पर नजर बनाए रखी हुई है। मीडिया भी लोगों की आंख-कान बने बैठा है। सवाल यह है कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन ? जनता तो चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, उन्हें यह नहीं मालूम हो कि इसके लिए कारगर ‘लोकपाल बिल’ कौन सा होगा ? अवाम की सोच यही है कि देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो और भ्रष्टाचारियों की कारगुजारियों पर लगाम लगे और कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत तरक्की करे। यह सही भी है कि देश के विकास को भ्रष्टाचार ने लील लिया है। भ्रष्टाचार कर विदेशो में धन जमा कराकर देश को खोखला किया जा रहा है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार मिटाने की एक आवाज पर देश की करोड़ों जनता सड़क पर उतर आई है। उसे यह मतलब नहीं कि कौन क्या चाहता है, सरकार क्या चाहती है। जनता को बस भ्रष्टाचार मुक्त भारत चाहिए, जिसके बाद उनकी खुशहाली व तरक्की की राह खुलती है।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

‘जितना मन चाहे, उतना खोद डालो’

जिले में संचालित दर्जनों खदानों में सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों की चौतरफा धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खदान संचालक इतनी मनमानी पर उतर आए हैं कि वे जितना चाह रहे, उतना खोदे जा रहे हैं। कहीं कोई पाबंदी नहीं है और ही, उन्हें सेप्टी माइंस की कार्रवाई का डर है, क्योंकि खदान संचालकों को पता है कि उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जिस विभाग को कार्रवाई करना है, वहां के अफसर गहरी निद्रा में हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बेतहाशा गहराई वाली खदानों पर कब की पाबंदी लग गई होतीं, मगर उन्हें किसी बड़ी घटना का इंतजार है। जाहिर है, जो खदान मापदंड को दरकिनार कर संचालित की जा रही हैं और वहां से उत्खनन कर पत्थर निकाले जा रहे हैं, उससे तो ऐसा ही अंदेशा व्यक्त किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ऐसी खदानों की सूची नहीं बनी है, पिछले साल खनिज विभाग के अधिकारियों ने जिले की अधिकांश खदानों की जांच की थी। इसमें आधे से अधिक खदानें, सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों के विरूद्ध पाई गईं। जांच में खदानों के बेधड़क संचालन में लगाम लगाने का हवाला देते हुए जिला खनिज अधिकारी डा. दिनेश मिश्रा ने सेप्टी माइंस खान सुरक्षा विभाग, रांची को भेज दी। साथ ही विष्फोटक सामग्री का भी प्रयोग किए जाने की बात सामने आने के बाद इसकी भी जानकारी दी गई है। दिलचस्प बात यह है कि रांची में मुख्य कार्यालय होने के कारण कार्रवाई में लेटलतीफी होने की बात कही जा रही है, किन्तु यह तो पूरी तरह से लफ्फाजी ही प्रतीत होती है, क्योंकि जहां हर पर मौत मंडराती हो, यदि वहां लगाम लगाने के बजाय, छूट दे दिया जाए और कार्रवाई करने से हाथ खींचे जाएं, ऐसी स्थिति में कानून-कायदों का मखौल ही उड़ेगा ?
इस मामले में जिला खनिज अधिकारी डा. मिश्रा का कहना है कि उन्होंने पिछले साल अकलतरा क्षेत्र के तरौद, किरारी, अकलतरा की खदानों की जांच की थी। वैसे इसके पहले भी उनके पहले पदस्थ अधिकारियों ने भी जिले की अन्य खदानों की जांच की थी। हालांकि, उसके बाद भी किसी भी खदान पर रोक नहीं लग सकी। खनिज अधिकारी ने बताया कि खदानों की गहराई व विष्फोटक मामले में उन्हें जांच का अधिकार तो है, लेकिन खदान बंद करने का अधिकार नहीं है। इसी के चलते जांच के बाद खदानों की स्थिति का विवरण देते हुए सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा विभाग को पत्र प्रेषित कर अवगत करा दिया गया है। उनका कहना है कि इसके बाद उन्हें स्मरण पत्र भी भेजा गया है, फिर भी उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है। ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है ? उन्होंने बताया कि विष्फोटक के प्रयोग करने व खान की गहराई अधिक होने के मामले में नोटिस जारी किया गया था, इसके बाद खदान संचालकों द्वारा पेनाल्टी की राशि भी जमा कराई जा रही है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि खदानों में कहीं न कहीं, घटनाएं होती रहती हैं, कुछ मामलों को अपने स्तर पर दबा लिया जाता है और कुछ मामले उजागर हो जाते हैं। उसमें भी लीपापोती कर खदान पर होने वाली कार्रवाई पर पलीता लगा दिया जाता है। छह महीने पहले बाराद्वार क्षेत्र के एक डोलामाइट खदान में ट्रैक्टर से दब कर एक ड्राइवर की मौत हो गई थी। यहां तो हद ही हो गई थी, रात में ही पत्थर उत्खनन व परिवहन कार्य हो रहा था। डोलोमाइट का यह खदान इतनी गहरी है, उसके बाद इस खदान पर बंद करने जैसी सख्त कार्रवाई नहीं हो सकी। अकलतरा क्षेत्र में भी जो खदानें संचालित हैं, वहां की गहराई काफी अधिक है। पूरी तरह नियमों को दरकिनार कर कार्य किया जा रहा है, जिसके चलते कभी भी अनहोनी घटना होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। महीने दो महीनों में किसी न किसी पर मौत का बादल मंडराता है, लेकिन इन सब बातों से अफसरों को भला क्या लेना-देना हो सकता है ? खदानों में गहराई अधिक होने से जमीन धसकने की संभावना भी बनी रहती है और ऐसी स्थिति में कोई बड़ा हादसा हो सकता है। जिन खदानों की गहराई, सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा की शर्तों से अधिक हो गई हैं, निश्चित ही इन्हें बंद करने कड़े कदम उठाए जाने चाहिए। अब तो आने वाला समय ही बताएगा कि गहरी निद्रा में सोए अफसरों के कानों में जूं रेंगती है कि नहीं ?


अचानक कैसे जाग उठा पर्यावरण विभाग ?
वैसे तो जिले में पर्यावरण विभाग का कोई दफ्तर नहीं है। पर्यावरणीय मामले में कार्रवाई की गतिविधि क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर से चलती है। यही कारण है कि जिले में पर्यावरणीय नियमों व शर्तों के उल्लंघन की बातें आम हो चली है और पर्यावरण विभाग के कार्यालय खोले जाने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। यहां विभाग के अफसरों को पर्यावरण संरक्षण व नियमों का कड़ाई से पालन कराने की फुरसत ही नहीं है। इसी के चलते आए दिन जिले में पर्यावरण मापदंडों की खिल्ली उड़ती रहती हैं। जांजगीर-चांपा जिले के कई इलाकों में सैकड़ों क्रशर संचालित हैं, मगर इनकी जांच के लिए विभाग के अधिकारियों ने कभी रूचि नहीं दिखाई। ऐसा नहीं है कि जिले से पर्यावरण नियमों की अनदेखी की शिकायतें नहीं है, लेकिन विभाग के अधिकारी कार्रवाई के मूड बनाए, तब न। एक तो पर्यावरण विभाग के अफसर कुंभकर्णीय निद्रा में सोए रहते हैं, अब जब वह नींद से जागे हैं और जिले के ढाई दर्जन क्रशरों को मापदंडों का पालन नहीं करने की दुहाई देकर बंद करने का फरमान जारी किया गया। इसके बाद उन क्रशरों को कुछ दिनों बाद बहाल कर दी गई। पर्यावरण विभाग के अधिकारियों की इस गुपगुप निर्णय से कई तरह के सवाल उठने स्वाभाविक हैं, क्योंकि जांच में पर्यावरण विभाग ने ही पाया कि क्रशर प्रबंधन नियमों में हिला-हवाला कर रहे थे। ऐसी स्थिति में एकाएक यही क्रशरें भला, कैसे मापदंड में खरे उतर गए ? विभाग के अधिकारी अब यही सफाई दे रहे हैं कि क्रशरों की बिजली काटी नहीं गई और बाद में संचालकों ने, जो मापदंड है, उसे पूरा कर लिया। हालांकि, यह किसी भी तरह से गले नहीं उतरता, क्योंकि जिन क्रशरों में बरसों से पर्यावरण नियमों को कुचलने की बात सामने आती रही हो, जांच में यह साफ तौर पर उजागर हुई हो, उसके बाद भी पर्यावरण विभाग के अधिकारी दरियादिली पर उतर आए, इससे तो उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठना, स्वाभाविक ही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि अधिकारी कहते हैं, वे समय-समय पर जांच करते हैं और कार्रवाई करते हैं, मगर यह बात छिपी नहीं है कि केवल क्रशर संचालकों को नोटिस थमाई जाती है और बाद में मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। ऐसे में विभाग के अधिकारियों की भूमिका को कैसे पाक-साफ बताया जा सकता है ?
यहां बताना लाजिमी है कि कुछ महीनों पहले पर्यावरण विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर के अधिकारियों की टीम ने जिले के सैकड़ों क्रशरों की जांच की थी। बताया जाता है कि टास्क फोर्स की बैठक में इसकी शिकायत आने के बाद कलेक्टर के निर्देश पर जांच की गई, मगर नोटिस देने के बाद कार्रवाई नहीं किया जाना और न ही किसी तरह का जुर्माना किए बिना, क्रशर को प्रारंभ रहने की छूट दिया जाना, कहां तक सही है ? जांच करने के बाद अभी जून के अंतिम सप्ताह में पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने कई किस्तों में नोटिस जारी किया। इसकी प्रतिलिपि कलेक्टर के साथ खनिज विभाग को भी भेजी गई। चार से पांच बार अलग-अलग खेप में भेजे गए नोटिस में 31 क्रशरों को बंद करने का आदेश जारी किया गया। आदेश में कहा गया कि क्रशरों की पिछले दिनों जांच की गई, जिसमें ये क्रशर पर्यावरण शर्तों के उल्लंघन करते पाए, इसलिए इसे बंद किया जाए। इसके साथ ही विद्युत मंडल के कार्यपालन अभियंता को भी इस आशय का पत्र लिखा गया कि वे इन क्रशरों की बिजली काटी जाए। इसे पर्यावरण विभाग की कार्रवाई कहंे कि खानापूर्ति का ड्रामा, ऐसा कुछ दिनों तक चलता रहा।
जिन 31 क्रशरों को बंद करने के आदेश जारी किया गया था। इनमें बिरगहनी के सबसे अधिक क्रशर थे, इसके बाद तरौद के रहे। पामगढ़ इलाके के भी क्रशरों पर गाज गिरने वाली थी, मगर मजेदार बात यह है कि इन क्रशरों को यह कहकर बहाल कर दिया गया है कि संचालकों ने सभी शर्ताें व मापदण्डों की पूर्ति कर ली है, किन्तु एक सवाल यहां हर किसी के दिमाग में कौंध सकता है कि जिन क्रशरों को महीनों तक मापदण्डों के खिलाफ बताया जाता रहा हो, वही अचानक बिना गड़बड़झाले का डिब्बा बन जाए ? पर्यावरण विभाग के अधिकारी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि विद्युत मंडल द्वारा क्रशरों की बिजली काटने में देरी किए जाने से क्रशर संचालकों को मौका मिल गया और उन्होंने पूरी व्यवस्था दुरूस्त कर ली। साथ ही जो खामी थी, उसे पूरा कर लिया। ऐसे हालात में यही कहा जा सकता है कि क्रशर संचालकों को छूट दे दी गई है, क्योंकि जिन क्रशरों को मापदंडों पर खरे बताकर बख्श दिया गया है, वहां छापामार कार्रवाई कर जांच की जाए तो दूध का दूध व पानी का पानी हो जाएगा। कहने का मतलब, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने जांच महज खानापूर्ति के लिए की, उसके बाद कार्रवाई का नोटिस भी मसखरा करते थमा दिया गया, क्योंकि यह तो समझ में आता है कि इतने कम समय में पर्यावरण की शर्ताें को पूरा करना मुश्किल ही है ? परंतु कागजों में कोई काम मुश्किल नहीं होता, इस बात को सिद्ध कर दिखाया है, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने।
पर्यावरण विभाग बिलासपुर के क्षेत्रीय अधिकारी डा. सी.बी. पटेल की मानें तो क्रशरों में धूल, पानी का छिड़काव तथा टिन का ढक्कन लगाने संबंधी कमियां पाई गई थी। उसके बाद क्रशर संचालकों ने कार्रवाई के डर से सभी कमियों को दूर कर लिया। सवाल यहां यही है कि आखिर महीनों-बरसों तक पर्यावरण विभाग की टेढ़ी आंखें क्रशरों पर क्यों नहीं पड़ी ? अब जब, टास्क फोर्स की बैठक में दबाव पड़ा तो कार्रवाई के नाम पर कागज, काले कर दिए गए और बाद में लीपापोती भी कर दी गई। ऐसी स्थिति में पर्यावरण की सुरक्षा कैसे होगी ? यह यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ, क्योंकि जिले में पर्यावरण की अनदेखी सामान्य सी बात हो गई है। जहां क्रशर स्थित है, उन इलाकों में गुजरते ही आंखों में कंकड़ घुस जाता है। इस बात से भी जिले के अधिकारी वाकिफ हैं और पर्यावरण के भी अफसर। नेत्र विशेषज्ञ भी इसे आंखों के लिए खतरनाक मानते हैं, मगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बैठे ठेकेदारों को कौन समझाए ? वे तो क्रेशर संचालकों पर दिल खोले बैठे नजर आते हैं।
क्रशर संचालकों द्वारा ‘सुरक्षा’ का भी ख्याल नहीं रखा जाता, इसीलिए कभी पट्टे में फंसकर मजदूर की मौत होती है तो कभी किसी और कारण से। अकलतरा क्षेत्र के क्रशरों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जिसे हर स्तर पर दबाने की कोशिश की जाती है। जब इन घटनाओं का खुलासा हो जाता है, उसके बाद हर हथकंडे आजमा कर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। जाहिर यह, अफसरों की मिलीभगत का परिणाम होता है।

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

पहले खिलाफ में खबरें दिखाओ, फिर विज्ञापन पाओ !

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तप्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव है और इसकी प्रारंभिक तैयारियां राजनीतिक पार्टियों द्वारा शुरू कर दी गई हैं। मगर दूसरी ओर सूबे में बढ़ते अपराध के कारण मायावती सरकार कटघरे में खड़ी है। मीडिया में भी पिछले कुछ महीनों से उत्तप्रदेश छाया हुआ है, चाहे वह चुनाव की बात हो या फिर कोई अपराध की। उत्तरप्रदेश में किसानों की समस्याएं चरम पर हैं और महिलाओं पर उत्पीड़न व बलात्कार की घटनाएं भी आए दिन घट रही है, लेकिन सरकार कहती है कि प्रदेश में हालात बिगड़े नहीं है, बल्कि पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में इससे भी ज्यादा अपराध होते थे। इसके लिए कुछ मीडिया हाउसों के माध्यम से आंकड़े भी छापकर सरकार को जनता की अदालत से बरी बताया जा रहा है, जो सरासर गलत है। यही सरकार है, जिसने प्रदेश की जनता से 2007 के विधानसभा चुनाव में वादा किया था कि अपराधमुक्त राज्य की परिकल्पना पहली प्राथमिकता होगी। साथ ही महिलाओं पर बढ़ते अपराध पर अंकुश लगाया जाएगा, किन्तु सरकार के सभी दावे खोखले साबित हुए। जिन बातों की दुहाई देकर मायावती सरकार ने सत्ता हथियाई, उसके बाद वह सभी वायदे भूलती नजर आई। अब जब आगामी कुछ महीनों में उत्तप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, उसके बाद प्रदेश की मायावती सरकार जाग गई है, लेकिन सरकार की मुसीबत कम नहीं हो रही है और उसकी कई तरह से फजीहत भी हो रही है। मीडिया भी सरकार के खिलाफ खड़ा नजर आ रहा है और विपक्षी पार्टी भी जैसे-तैसे मुद्दे पाकर उसे भुनाने की कोशिश में लग गई है।
अब बात उत्तरप्रदेश सरकार के मीडिया मैनेजमेंट की कर लें। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से मीडिया में मायावती सरकार के खिलाफ लगातार खबरें आ रही थीं। इसमें एक कदम आगे बढ़कर ‘स्टार न्यूज’ खबरें प्रसारित कर रहा था, उत्तरप्रदेश से जुड़ी हर खबरों को सरकार की खिंचाई करते दिखाया जा रहा था। चाहे वह किसी महिला से बलात्कार की घटना हो या फिर कोई कत्ल का मामला हो। किसानों की समस्याओं को भी ‘स्टार न्यूज’ ने बेहतर कव्हरेज दिया। साथ ही सीएमओ हत्या मामले को अपने स्तर पर ‘स्टार न्यूज’ हर एंगल से कव्हरेज दिया, या कहें कि मायावती सरकार को घेरने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा। देखिए, किसी खबर को प्रसारित करना एक मीडिया हाउस व किसी पत्रकार का धर्म है, मगर जब उसमें सरकार की केवल खिंचाई की सोच हो तो फिर क्या कहा जा सकता है ?
इसे इस बात से जाना जा सकता है कि पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में ‘स्टार न्यूज’ का प्रसारण सरकार द्वारा केबल पर बंद करा दिया गया थ, क्योंकि सरकार के खिलाफ चैनल पूरी तरह जहर उगल रहा था। ऐसे में भला कैसे कोई सरकार चाहेगी कि उसकी खिंचाई होती रहे और वह देखती रहे। चैनल ने राहुल गांधी की यात्रा को पुरजोर से दिखाया। साथ ही मायावती सरकार को किसानों के हितों को दरकिनार कर काम करने वाली बताया, मायावती सरकार को। ऐसे कई खबरें हैं, जिसे स्टार न्यूज से बेहतर समय दिया। हालांकि, खबरें प्रसारित करना चैनल का निजी मामला हो सकता है, मगर यह बात भी समझ आती है कि आखिर कोई चैनल बार-बार किसी सरकार के खिलाफ खबरें क्यों दिखाता है ? जाहिर सी बात है कि सरकार से कुछ तो खटपट रहता है।
दिलचस्प बात यह है कि बीते कुछ दिनों से ‘स्टार न्यूज’ में उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ खबरें दिखाने के बाद चैनल को जनसंपर्क विभाग से विज्ञापन जारी हो गया है, वह भी कई मिनटों का। इस विज्ञापन में उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार के कार्यों के गुणगान करते तैयार किया गया है। प्रदेश में तमाम अपराधिक घटनाओं के बाद भी सरकार को विकासान्मुख सरकार निरूपित किया गया है। स्टार न्यूज में उत्तप्रदेश सरकार की विकास गाथा को विज्ञापन के तौर पर प्रसारित किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है, चैनल प्रबंधन को विज्ञापन के तौर पर मोटी रकम भी मिली होगी।
यहां हमारा यही कहना है कि ‘स्टार न्यूज’ ने खबरों की प्रस्तुति में निश्चित ही कई अन्य चैनलों को अनेक अवसरों को पीछे छोड़ा है। उसके कंटेट भी बेहतर होता है, मगर उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार की बखिया उधेड़ने के बाद अब इसी चैनल पर ‘माया गाथा’ सुनाई जा रही है। ऐसे में कई तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है। अब विज्ञापन प्रसारित होने के बाद क्या स्टार न्यूज का वही तेवर मायावती सरकार के खिलाफ बना रहेगा ? यह तो आने वाला कल ही बताएगा, मगर दर्शकों के बीच स्टार न्यूज की शाख पर बट्टा जरूर लगा है। इसमें कहीं कोई शक नहीं है।
मैं भी इस चैनल का दर्शक हूं और इसके कई कार्यक्रमों का कायल हूं, मगर उत्तरप्रदेश सरकार के गुणगान के मामले में यह चैनल दर्शकों की अदालत में कटघरे में है। ये तो वही हो गया कि पहले दम मारकर खिलाफ में खबरें दिखाओ, फिर विज्ञापन पाओ !

( बतौर दर्शक मेरी प्रतिक्रिया )




एक मौत, दिन भर खबर !

देखिए, देश व प्रदेश में हर दिन न जानें कितनी मौत होती हैं, कितने ही कत्ल होते हैं और असमय ही काल-कवलित हो जाते हैं, मगर जब किसी इलेक्ट्रानिक चैनल का नजरिया एक ही मौत पर टिक जाए तो फिर इसे क्या कहा जा सकता है। क्या चैनल के पास दर्शकों को दिखाने के लिए खबर नहीं है ? क्या उनमें एक मौत पर ही खबर कंटेट दिखता है, तभी राजधानी रायपुर में एक महिला की हत्या के मामले को ऐसा तूल दिया जाता रहा, जैसे कभी राजधानी में कभी हत्या हुई ही न हों। कोई भी दर्शक दिन भर एक ही खबर देखना नहीं चाहता, यदि वह किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की हत्या तो बात अलग नजर आती है, लेकिन चैनल अपनी मर्जी से दर्शकों को खबरें थोपने लगे तो फिर यह चैनल प्रबंधन की ओछी मानसिकता ही कही जा सकती है। यह नहीं कहा जा सकता है, किसी की मौत, मौत नहीं होती, किन्तु सवाल यही है कि क्या अन्य मौत पर चैनल इतना हो-हल्ला मचाता है ? इस खबर को महत इसलिए दिन भर दिखाया जाता रहा, क्योंकि उस चैनल ने इस खबर को सबसे पहले दिखाना शुरू किया था।
दरअसल, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सड्डू इलाके में एक महिला की हत्या मंगलवार को कर दी गई थी। इसके बाद पुलिस जांच में जुटी थी। एक कॉलोनी में हत्या की खबर को चैनल ने पूरे सिर पर उठा लिया और मंगलवार को आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं होने तथा कॉलोनी के हालात की खबरें दिखाता रहा, उसके बाद बुधवार को सुबह से ही खबरें चैनल पर छाई रहीं। बाद में दो आरोपियों की गिरफ्तारी की सूचना आने के बाद तो इस खबर पर यह चैनल टूट पड़ा।
कहने का मतलब यही है कि चैनल के पास कोई और खबरें नहीं थीं या फिर राजधानी रायपुर में महीनों-सालों बाद किसी की हत्या हुई है ? ऐसे कई सवाल हैं, जो किसी दर्शक के मन में आता है, क्योंकि दर्शक तो चैनल में एक ही खबर देखना नहीं चाहता। खबरों को दर्शकों पर थोपना व अपनी मर्जी से एक ही खबर बार-बार दिखाया जाना कहां तक सही है ? एक दर्शक के नाते तो यह लफ्फाजी नजर आती है।

बतौर दर्शक मेरी प्रतिक्रिया -