मंगलवार, 29 जनवरी 2013

‘घर को आग लगी, घर के चिराग से’

बदलते समय के साथ पारिवारिक रिश्तों में जिस तरह की खाइयां उत्पन्न हो रही है, उसे सशक्त समाज के निर्माण के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। रिश्तों को तार-तार करने की घटनाएं, जब-जब समाज के सामने आती हैं, उसके बाद समाज में यह मंथन भी शुरू हो जाता है कि आखिर, हम और हमारा समाज किस दिशा में जा रहे हैं ? बीते कुछ दशकों के दौरान जिस तरह की नैतिक गिरावट देखी जा रही है, उसी का नतीजा समाज पर भी दिख रहा है, क्योंकि जो घटेगा, उसका असर जरूर समाज पर पड़ता है। मानवीय सोच में भी भारी बदलाव देखा जा रहा है, जिसके कारण ऐसी घटनाएं होती हैं, जिससे पूरा समाज सन्न रह जाता है और फिर सामाजिक व्यवस्था को आघात लगता है।
जांजगीर-चांपा जिले के सिवनी ( चांपा ) में जो हृदय विदारक घटना सामने आई है, उसने सभी को हिलाकर रख दिया है। जिसने भी वारदात के बारे में सुना, उनकी तीखी प्रतिक्रिया रही। एक चचेरे भाई ने 5 साल की मासूम बच्ची को गला दबाकर मौत के घाट उतार दिया, जबकि वह मासूम उसे ‘चहेता’ भैया मानती थी। शराबखोरी ने एक बार फिर मासूम को अपने आगोश में ले लिया और एक घर का चिराग बुझ गई। उस चिराग को बुझाने का कुकृत्य कार्य किया है, उसी घर के और एक चिराग नहीं। इसी को कहा जाता है कि ‘घर को आग लगी, घर के चिराग से’।
इस घटना ने एक बार फिर लोगों को विचार करने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर मानवीय गिरावट क्यों हो रही है, इसकी वजह क्या है ? कैसे कोई रिश्तों को खून के दाग से सन लेता है, जिस दाग को कभी धोया नहीं जा सकता। ऐसी क्या परिस्थितियां निर्मित होती हैं, जब कोई शैतान बन बैठता है ?
समाज में बिगड़ती इस तरह की स्थिति को लेकर समाजशास्त्री भी मानते हैं कि आधुनिक जीवनशैली के साथ नशाखोरी की प्रवृत्ति से ऐसी घटनाओं को बढ़ावा मिल रहा है। कई बार अंधविश्वास की वजह से समाज में कई बार कुरूप चेहरा भी नजर आता है, जिसे मानसिक असंतुलन के तौर पर देखा जाता है। शिक्षा के प्रसार से समाज में सकारात्मक बदलाव भी आया है, लेकिन ऐसे हालात भी बने हैं, जिसके कारण युवा वर्ग अपराध की ओर मूड़ रहे हैं। जिस पर चिंतन आवश्यक है, क्योंकि यही युवा वर्ग हैं, जो समाज व देश के विकास के वाहक माने जाते हैं, जब यही नशाखोरी के चलते गलत दिशा में जाएंगे, तो फिर समाज किस दिशा में जाएगा या फिर कहें समाज का क्या होगा ?
एक समय था, जब संयुक्त परिवार की परिपाटी थी, आज वह कहीं गुम हो गया है। इसके लिए बदलते परिवेश के साथ अन्य कारणों को जिम्मेदार माना जाता है। निश्चित ही संयुक्त परिवार से सामाजिक सुरक्षा की भावना बलवति होती है और उसके बेहतर नतीजे भी रहे हैं, किन्तु ऐसी घटनाएं अब होने लगी हैं, जिसके बाद रिश्ते हर तरह से तार-तार हो रही है। समाज में घटित हो रही घटनाओं के बाद समझा जा सकता है कि रिश्तों की अहमियत को दरकिनार संगीन कृत्यों को अंजाम दिया जाता है, जिसके बाद समाज व परिवार में बिखराव नजर आता है।
रिश्तों को सहेजने और उसे बचाने के लिए नैतिक और सद्विचारों को बढ़ाना देना जरूरी है। साथ ही समाज में आपसी वैमन्स्यता जो बढ़ रही है, उसे दूर कर एक ऐसे समाज का निर्माण करने की जरूरत है, जिसे आने वाली पीढ़ी अपनाए और गर्व की अनुभूति करे। समाज में जो कुछ घट रहा है, कहीं और बढ़ता है तो फिर हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए वह ठीक नहीं होगा। कहीं ऐसा न हो जाए कि भावी पीढ़ी धिक्कारने पर मजबूर हों।

सोमवार, 28 जनवरी 2013

बातों-बातों में...

ये ‘आस’ है बड़ी
शिक्षा महकमा से जुड़े एक अफसर को राजनीति का बड़ा ही चस्का चढ़ा है। वे हर बार टिकट की कतार में खुद को पाते हैं और हर बार उन्हें ‘सांत्वना पुरस्कार’ ही मिलता है। उन्हें पंजे से खासी आस है, तभी तो गाहे-बगाहे राजनीतिक गलियारे में नजरें इनायतें करते दिख जाते हैं। कहते हैं, जब तक सांस है, तब तक आस है, शायद इसी सूत्रवाक्य को लेकर वे टिकट की दौड़ में होते हैं। कतार में हमेशा नीचे के पायदान में होते हैं, बड़े नेताओं को वे नजर ही नहीं आते। वे कहते नहीं थकते कि बड़े नेताओं से खासी पहचान है। हो सकता है, वे नेताओं को जानते होंगे, मगर नेता उन्हें नहीं...। टिकट की दौड़ फिर शुरू हो गई है, उनकी आस कायम है, देखते हैं कि क्या होता है ?

याद आ गए वो दिन...
कमल फूल वाले एक नेता हैं, जिनकी ठाठ देखते बनती थी। जहां जाते पूरे लाव-लश्कर के साथ जाते। कहीं भी जाते, प्रथम पंक्ति में कुर्सी तय रहती थी और उनकी रामकथा का भी लोग आनंद लेते। आज परिस्थितियां कुछ बदली हुई नजर आ रही है। मंचों में इतने बड़े जाने-पहचाने चेहरे भी बेगाने हो जाते हैं। जो टूटपुंजिए उनके पगचाप को प्रणाम करते थे, वही पहली पंक्ति में सवार होते हैं। उनकी ऐसी हालत देखकर उनकी ठाठ-बाट के दिन याद आ गए। वो दिन भी, क्या दिन थे। कोई भी सुबह, कहीं भी जाना हो, बस एक आवाज दो और हर मुराद पूरी हो जाती थी।

पनिशमेंट या गिफ्ट
एक साहब हाल में ‘काली छाया’ की वजह से लुप लाइन में आ गए थे, लेकिन कुछ ही दिनों बाद ही उनकी पनिशमेंट, गिफ्ट में बदल गई। ये माजरा किसी को समझ में नहीं आ रहा है। कहने वाले, कह रहें कि साहब की ‘वहां’ बड़ी पहुंच है, जिसके कारण बड़े साहब को भी पछताना पड़ा होगा। इनके जैसे और भी कई हैं, जिन पर उनकी मेहरबानी नहीं दिखी है। जरूर, दाल में कुछ तो काला है। इसे समझने के लिए पतले नहीं, मोटे दिमाग की जरूरत हो सकती है, क्योंकि चक्कर कहीं, ‘मोटा माल’ का तो नहीं...।

तेल का महाखेल
रेत से तेल निकालने की कहावत बड़ी कठिन लगती हो, लेकिन सेहत बनाने के बड़े-बड़े दावे करने वाले विभाग के नुमाइंदों को ‘तेल के महाखेल’ में महारत हासिल है। वे तो उसे भी तेल पिला दे, जो चल भी न सकता हो। जो चले, उसकी तो बात ही अलग है। उसके पेट में तेल भरने के भले ही उतनी जगह न हो, जितना वो ‘तेल का खेल’ खेलना चाहते हैं, किन्तु इतना सब जानते हैं कि कागजों की बाजीगरी में सब संभव है। न जाने, ये खेल कब तक चलेगा, कोई ब्रेक लगाने वाला भी नहीं है। सभी ब्रेक फेल ‘जुगाड़ की गाड़ी’ में रफ्तार से दौड़ रहे हैं।      

सोमवार, 21 जनवरी 2013

छग कांग्रेस और गुटबाजी का दीमक

इसमें कोई शक नहीं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता से बाहर है तो उसकी वजह वह खुद है, क्योंकि गुटबाजी का दीमक, छग कांग्रेस को इस कदर चट कर रहा है कि उसके हाथ से सत्ता साल-दर-साल खिसकती जा रही है। कांग्रेस नेताओं के मुंह से यह बात अधिकतर सुनने को मिलती है कि कांग्रेस एक परिवार है और सभी नेता एक धड़े से जुड़े हैं और उनके नेता सोनिया गांधी व राहुल गांधी हैं। छग में कांग्रेसी नेताओं के कहे में कितना दम है, यह तो इसी से जाना जा सकता है कि प्रदेश में जितने बड़े नेताओं के कुनबे हैं, उतने फाड़ हैं। कहीं ‘त्रिफला’ खुद को ताकतवार बताती है तो कहीं ‘चमनप्राश’ को खुद दमदार बताने से नहीं चूकता। कुछ अनुभवी नेता भी जरूरत पड़ने पर सत्ता संभालने के लिए खुद के कांधे को मजबूत बताने से भी नहीं हिचकते।
अहम मसला है, कैसे छग में सत्ता हासिल की जाए, लेकिन इसे कांग्रेस के लिए विडंबना ही कही जा सकती है कि सत्ता मिलने के पहले ही नेताओं को सत्ता सुख के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी नजर आती है ? कांग्रेस के नेताओं के पहले सत्ता हासिल करने ‘गुटबाजी’ भुलाकर जोर लगानी चाहिए, बाद में फिर कुर्सी की लड़ाई में ताकत झोंकनी चाहिए, परंतु इसके उलट ही सोच नजर आती है।
छग कांग्रेस में बीते 10 साल से यही कुछ चल रहा है। जब से कांग्रेस के हाथ से सत्ता खिसकी है, उसके बाद हालात बन गए हैं कि कांग्रेस के नेताओं में ही जुबानी लड़ाई चलती रहती है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि जो खुद ही लड़ते रहें, उनमें दूसरे को हराने का माद्दा कहां से आएगा ? दूसरे को हराने के लिए पहले गुटबाजी को वास्तविक तौर पर भुलानी होगी। केवल बयानों में ही गुटबाजी की बात नकारने से बात नहीं बनने वाली। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जिस बेबाकी के साथ बात कहते हैं और अपनी कमियां गिनाकर उसे दूर करने पर विचार करते हैं। कुछ ऐसा कर दिखाना होगा, छग कांग्रेस के नेताओं को। ‘मतभेद’ को पूरी तरह से खत्म करना होगा। ‘मनभेद’ होने की बात कहकर खुद को तसल्ली देने से काम नहीं चलेगा। यही ढर्रा चलता रहा तो तीसरी बार सत्ता ‘हाथ’ से फिर फिसल जाएगी।
देखिए, छग कांग्रेस के नेताओं में जो आपसी द्वंद चल रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस हाईकमान भी जानती है कि छग में कांग्रेस को मजबूती की जरूरत है। वह यह भी जानती है कि कांग्रेस की कमजोरी के लिए सबसे जिम्मेदार कारण है तो, वह गुटबाजी है। पिछले साल रायपुर आकर राहुल गांधी ने भी कांग्रेस नेताओं को गुटबाजी भूलने का पाठ पढ़ाया था और हिदायत भी दी थी कि ऐसा नहीं हुआ तो सत्ता कभी नहीं मिलेगी और आगे भी ‘वनवास काल’ ही झेलना पड़ेगा। आज जिन राहुल गांधी के उपाध्यक्ष की ताजपोशी के बाद इन नेताओं में उत्साह है या एक तरह से नेताओं के साथ कार्यकर्ताओं में नई उर्जा का संचार हो गया है, लेकिन चिंता यह भी है कि जिन नेता की कही बातांे को ये नेता नहीं मानते या उनकी रायशुमारी को दरकिनार कर ‘एकला-चलो’ की नीति को अपनाते हैं ? फिर ऐसे नेताओं से राहुल गांधी को क्या उम्मीद हो सकती है ?
अभी खबर आई है कि जयपुर के चिंतन शिविर में छग कांग्रेस के कामकाज को सराहा गया है। निश्चित ही बीते कुछ साल की अपेक्षा छग कांग्रेस काफी मजबूत हुई है, कुछ मुद्दों में भाजपा सरकार को घेरने में कामयाब भी रही, किन्तु कांग्रेस के नेताओं में ‘जितने नेता, उतने फाड़’ की बात नहीं होती तो फिर कांग्रेस और भी अधिक शक्ति के साथ काम कर पाती। छग कांग्रेस की दुर्दशा इसी बात से समझी जा सकती है कि यहां जितने नेता हैं, उनके अपने ‘गुट’ हैं। हर बड़े नेता के साथ, छोटे नेताओं को उनके अपने गुट के नाम से जाना जाता है। हालांकि, जब भी गुटबाजी का सवाल आता है तो इन्हीं नेताओं की जुबान गुटबाजी को नकार जाती है और कहा जाता है, हम तो ‘सोनिया-राहुल’ तथा गांधी परिवार के सिपाही हैं। यहां प्रश्न यही है कि जब ऐसी बात है तो बयानों में कांग्रेस के नेताओं के जुबानी तीर से अपनों की टीस बढ़ाने वाली बात क्यों निकलती है ? या कहें सभी नेताओं ने अपने तरकश में एक-दूसरे को ढेर करने तीर जोड़ रखे हैं। एक-दूसरे से कोई खुद को कमतर के समझने के मूड में नहीं दिखता।
हमारा यही कहना है कि कांग्रेस के नेताओं की आपसी नोंक-झोंक तथा रस्सकस्सी के कारण ही कांग्रेस, सत्ता से बाहर गई है और यही स्थिति बनी रही तो आगे भी यही हाल होने वाला है ? यह भी किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस खुद से हारती है। जितनी उर्जा खुद के घर जलाने में कथित कांग्रेसी लगाते हैं, यदि उतना ही जोर कांग्रेस की मजबूती के लिए लगाएं तो कांग्रेस व कांग्रेसियों का भला हो जाए। मन में किसी ‘नेता’ के बजाय, कांग्रेस का हित होने की मंशा हो, उसके बाद कांग्रेस को सत्ता में वापसी से कोई नहीं रोक सकता।
अभी भी समय है, चुनावी नाव में बैठने के पहले छग के कांग्रेसी नेताओं के साथ बड़े नेताओं को समझने की जरूरत है। जो सोच राहुल गांधी रखते हैं, उस दिशा में कांग्रेस कदम बढ़ाती है तो निश्चित ही कांग्रेस को लाभ ही होगा। इससे पहले, कांग्रेस को गुटबाजी का जो दीमक चट कर रहा है और चेहरों की राजनीति हो रही है, उससे बचना होगा, तब कहीं जाकर ‘खोई सत्ता’ हासिल हो पाएगी।

बातों-बातों में...

किसे लगे झटके
हाल में कांग्रेस व भाजपा की राजनीति गरमा गई। यू-टर्न ने ऐसा रूख बदला, तब कहीं जाकर राजनीति में आया उबाल शांत हुआ। बाद में सियासत में किसे झटके लगे, इस पर बहस शुरू हो गई। कमल फूल वाले कहने लगे कि पंजे के खेवनहार को झटके लगे, दूसरी ओर पंजे वाले तर्क देने में पीछे नहीं रहे कि हमने खिलते हुए फूल को, खिलने के पहले ही मसल दिया। किनकी बातों में कितना दम है, ये तो वही जानें, लेकिन इतना जरूर है कि झटके तो लगे हैं, लेकिन किसे...? ये भी किसी से छिपा नहीं है।

चक्कर पर चक्कर
एक नेता की साढ़ेसाती चरम पर है, तभी तो एक बार अभयदान मिलने के बाद भी सबक नहीं सीख पाया। आलम यह है कि अब उसे चक्कर पर चक्कर काटना पड़ रहा है। कभी वहां, कभी यहां। चक्कर काटने के फिराक में कहीं बन न जाएं..., इसकी भी चर्चा जोरों पर है। बड़े साहब से खासी जान-पहचान का हवाला देकर चक्कर चलाने में भी माहिर है, लेकिन दूसरी बार अपनों ने उन्हें सीतम देने की ठानी है, उसके बाद ये चक्कर कितने काम आएंगे, यह तो कुछ दिनों में ही पता चल जाएगा। सत्ता के रसूख के आगे पिछली बार हवा का रूख मुड़ गया था, लेकिन इस बार तो उनके सामने आंधी है। कहने वाले कह रहे रहे हैं कि ज्यादा मलाई खाएंगे तो हश्र, ऐसा ही होगा ?

ये सुधरने वाले कहां...
जो लगातार सिमटती जा रही है, उसकी चिंता तो जरूरी है। देर से ही सही, जागरण काल तो आया है। साहब ने जब से फरमान जारी किया है, उसके बाद धंधे में जुड़े लोगांे की नींद हराम हैं। बाजार में इस बीमारी की दवा भी नहीं मिल रही है। नींद की दवा भी काम नहीं आ रही है। स्थिति फिर भी नहीं सुधर रही है, जानकर भी अंधे कुंए में कूदने की कोशिशंे जारी है, वह भी दोनों ओर से। लाइलाज हो चुकी बीमारी की इलाज ढूंढने तो निकले हैं, लेकिन ये ऐसी बीमारी है, जो पूरे शहर को आगोश में ले रखी है, उससे तो बीमारी संक्रामक होगी है, चाहे ट्रीटमंेट कुछ भी हो। इसीलिए तो कहा जा रहा है कि लाख कोशिश कर लो, ये सुधरने वाले कहां...?

मान गए साहब आपको
सुरक्षा की दुहाई की जवाबदेही रखने वाले विभाग में कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। लगता है, यहां भी ग्रह-नक्षत्र सही नहीं है। जैसा मंत्री कहते हैं, यहां भी हवन-पूजन की जरूरत तो नहीं है ? एक तो अमला नहीं है, जो हैं, वह भी अपनी करतूत से ‘ऑफ-लाइन’ में हैं। स्थिति यह है कि जिन्हें चौकी न मिले, वह थाने का दरोगा बन बैठा है। इतना ही नहीं, साहब की कृपा इतनी कि एक्स्ट्रा प्लेयर की तरह बैठाए गए को भी, कुछ ही दिन में बड़ी जिम्मेदारी दे दी, वह भी रेंज के बड़े साहब के हुक्म को दरकिनार कर। यही वजह है कि कहना पड़ रहा है, मान गए, साहब आपको। इतनी दरियादिली की क्या कहें...।

सोमवार, 14 जनवरी 2013

सिसकती आंखों का दर्द और नजरिया

दिल्ली की घटना ने जिस तरह पूरे देश को हिलाकर रख दिया, उससे कहीं दर्दनाक वाकया छत्तीसगढ़ के कांकेर में घटित हुआ है। झलियामारी गांव के आश्रम में छात्राओं से दुष्कर्म के मामले उजागर हुए, उसके बाद निश्चित ही सरकार, गहन विचार के लिए मजबूर हो गई है कि आखिर व्यवस्था में कहां खामियां रह गई हैं ? छग के आश्रम शालाओं के साथ ही कन्या छात्रावासों की बदहाली व समस्या की बातें सामान्य ही मानी जाती रही है, लेकिन जो घटना सामने आई है, वह सरकार के साथ, समाज की भी नींद खोलने के लिए काफी है। शिक्षित व विकासपरक का चोला ओढ़े समाज में जिस तरह की मानसिकता व्याप्त है, उसकी परिणति है कि इस तरह की घिनौनी करतूत घटित हो रही है। ऐसे में इस मसले में विचार कर समस्या को खत्म करने की कोशिश के बजाय, जैसी राजनीति हो रही है और बयानों की बयार चल रही है, उससे जरूर उन सिसकती आंखों का दर्द बढ़ना स्वाभाविक है। राजनीति ऐसी होनी चाहिए, जिससे किसी का भला हो, न कि किसी के जख्म को नासूर बनाने का काम हो। जब किसी का नजरिया ही खराब हो, वहां व्यक्ति की सोच में बदलाव की जरूरत होती है, तब कहीं जाकर समाज को सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए संस्कारित शिक्षा का अहम योगदान हो सकता है, क्योंकि शिक्षा का मानव जीवन पर सकारात्क प्रभाव दिखता भी है।
देश में चहुंओर एक ही मुद्दे पर चर्चा हो रही है। यह जरूरी भी है, क्योंकि जब समाज गलत दिशा में जाता हुआ दिखता है तो उसके निदान के लिए मंथन भी आवश्यक माना जाता है। दिल्ली में गैंगरेप की घटना के बाद अवाम ने एक ही आवाज बुलंद की और कानून में बदलाव पर जोर दिया। निश्चित ही यह आवश्यक है, किन्तु उससे पहले समाज में व्याप्त ओछेपन की मानसिकता को दूर करनी होगी। पुरूष व नारी को लेकर मन में बनी संकीर्णता की खाई को पाटनी होगी। शिक्षा व विकास के बढ़ते आयाम ने काफी हद तक इस अंतर को घटाया है, लेकिन आज भी हालात पूरी तरह बदले नहीं हैं। इसी का परिणाम है कि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब यह सुनाई न पड़े कि ‘अनाचार’ की घटना नहीं हुई है। नारी पूजा व नारी शक्ति की बात कहते, समाज नहीं थकता। साथ ही समाज में रहने वालों की जननी ‘नारी’ ही होती है, लेकिन जब घृणित करतूत सामने आती है, उसके बाद नारीत्व भावना की सोच तार-तार हो जाती है।
नारी उत्थान की जब बात हो रही है, उसमें सबसे पहले नजरिया में बदलाव की जरूरत है। जब नजरिया बदलेगा, उसके बाद कहीं न कहीं, नारी की छवि, देवी के रूप में नजर आएगी। शास्त्रों में भी नारी की महत्ता का बखान है, लेकिन आज जो स्थिति नारियों की प्रस्थिति के साथ बन रही है, उसे एक शिक्षित व सभ्य समाज के लिए हितकर नहीं माना जा सकता। किसी परिवार या समाज के विकास में नारी का हर तरह से योगदान होता है, यदि वही दबी-कुचली रहेगी तो फिर जैसा प्रगतिशील समाज की संकल्पना की जाती है, वह साकार हो पाएगा, बड़ा सवाल है ?
अनाचारियों के खिलाफ देश भर के लोगों ने सड़क पर शक्ति दिखाई है, कुछ ऐसी शक्ति, हमें उन विकृतियों को दूर करने लगानी होगी, जो समाज के अंदर व्याप्त है। जो भी व्यक्ति ऐसे घृणित कृत्य को करता है, वह भी समाज का ही हिस्सा होता है। ऐसी स्थिति में सशक्त समाज के निर्माण के लिए यह भी चिंतन का विषय है कि आखिर हम और हमारा समाज, किस दिशा में जा रहे हैं ? एक युग था, जब मातृशक्ति की पूजा होती थी, लेकिन अब उन्हीं मातृशक्ति के प्रतिरूप को कुचला जा रहा है। इस अन्याय के खिलाफ लड़ाई जारी है, इसे आगे भी जारी रखना होगा। सरकार को भी सख्त कदम उठाने होंगे, तब कहीं जाकर प्रगतिशील समाज की मंशा साकार रूप ले सकेगी।

बातों-बातों में...

खाक तो छाननी पड़ेगी
मिशन 2013 के नजदीक आते ही जनता से मेल-मिलाप का ‘मिशन’ भी शुरू हो गया है। गांवों के खाक छानने के साथ ही गिले-शिकवे भी दूर करने की कोशिशें हो रही हैं। हालांकि, पिछले चुनाव होने के कई साल तक सोने के बाद, अब जागने का कितना फल मिलेगा, यह तो जनता ही बताएगी, लेकिन चुनावी चक्कर में क्या ‘चक्कर’ चलेगा, यह भी देखने वाली बात होगी।

‘अर्जी’ देने का दर्द...
हाल ही में जिले से लेकर राजधानी रायपुर तक गरजने वालों का दर्द की क्या कहें, एक तो सरकार ने अड़ियल रहकर उनकी मांगों पर सहमति नहीं जतायी। कुछ लालीपॉप देने की कोशिश हुई, उस पर बात नहीं बनी। आलम यहां तक आ गया कि रण छोड़ना पड़ा, मगर मन की टीस खत्म नहीं हुई। सरकार पर चुनाव में भड़ास निकालने की चुनौती कायम है, किन्तु खुद की नौकरी वापस पाने की जद्दोजहद के बीच, अब उन्हें वापसी की ‘अर्जी’ देने का दर्द भी सालने लगा है। सरकारी नीति की आग में ऐसे जले कि छांछ को भी फूंक-फंूक कर पीते नहीं बन रहा है।

साहब बनने की ‘खुशनसीबी’
एक विभाग का अधिकारी ऐसा है, जिन्हें प्रभार का ‘साहब’ बनने का ही नसीब हासिल हुआ है। जब भी विभाग का कोई साहब कुर्सी संभालता है, उसके बाद, वे खुद को कतार में पाते हैं। कुछ महीने तक ‘साहब’ की कुर्सी खाली हो जाती है, फिर अधिकारी की बांछें खिल जाती हैं। साहब बनने का उनका सपना एक बार फिर साकार हो जाता है। ऐसा ही सिलसिला कई साल से चल रहा है और उन्हें ‘साहब’ बनने की ‘खुशनसीबी’ हासिल हो रही है। इतना ही नहीं, किसी भी बड़े साहब को साधना उन्हें बखूबी आता है, तभी तो वे उनके खास माने जाते हैं।

ग्रामीण ‘नेतागीरी’ का चस्का
एक नेता ऐसे हैं, जिन्हें पार्टी संगठन ने बड़े ओहदे पर बिठा तो दिया है, लेकिन उनकी ग्रामीण ‘नेतागीरी’ करने का चस्का खत्म ही नहीं हुआ है। लिहाजा, संगठन में जो सक्रियता नजर आनी चाहिए, वह दिखती नहीं है। इस तरह आने वाले चुनाव में संगठन की सुस्ती का कहीं खामियाजा, उन नेताओं को न भुगतना पड़ जाए, जो चुनावी वैतरणी पार लगाने की जुगत में लगे हैं। संगठन ने जो बड़ी जिम्मेदारी सौंपी, उसके बाद ग्रामीण नेतागीरी ने जरूर जोर पकड़ी, क्योंकि जहां से पकड़ है, वहीं तो जुगत की तलाश होती है। आखिर, वे करें तो क्या करें, आदत में जो शुमार हो गई है, ग्रामीण नेतागीरी। अब संगठन को ही सोचना होगा...