गुरुवार, 3 नवंबर 2011

क्या होगा लापता 40 छत्तीसगढ़ियों का ?

छत्तीसगढ़ के 11 बरस होने पर राज्य सरकार जहां प्रदेश के सभी जिलों में राज्योत्सव जैसे आयोजन कर खुशियां मनाने में जुटी हैं, वहीं एक तबका ऐसा भी है, जो अपने सीने में अपनों की मौत का दर्द लिए बैठा है। समय गुजरने के बाद भी उनकी टीस कम होने का नाम नहीं ले रही है। राज्य सरकार की बेरूखी ने उनकी तकलीफों को और बढ़ा दी है।
साल भर पहले 5 अगस्त 2010 को जम्मू के ‘लेह’ में बादल फटने से जिले के दर्जनों गांवों से रोजी-रोटी की तलाश में गए मजदूरों की बड़ी संख्या में मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए, जिसका दर्द प्रभावितों को अब भी सालता है। उधर जैसे ही घटना की जानकारी जिला प्रशासन को जानकारी मिली, उसके बाद यहां से टीम भेजी गई। वहां से करीब हफ्ते भर बाद अधिकारी लौटे। लेह प्रशासन द्वारा 18 लोगों की मौत पुष्टि की गई। बाद में दो अन्य लोगों की पहचान होने के बाद उनका नाम भी सूची में दर्ज किया गया। इन 20 लोगों में 18 जांजगीर-चांपा जिले के थे और 2 रायपुर जिले के गिरौदपुरी के रहवासी थे। इसके अलावा 40 लोगों को लापता बताया गया। इनमें बच्चों की संख्या अधिक रही। इन लापता लोगों में सबसे अधिक बनारी के हैं। प्रशासन द्वारा यहां 13 लोगों को लापता बताया गया है, जबकि ग्राम महंत में इनकी संख्या 08 है। इसी तरह बोड़सरा के 04, नवागढ़ के 03, खैरा के 02, सलखन के 0, तनौद के 01 तथा गिरौदपुरी ( रायचुर ) के 02 लोग लापता हैं।
लेह में हुई हृदयविदारक घटना को हुए दो बरस से अधिक समय हो गया है, लेकिन इनकी न तो राज्य सरकार कोई खोज-खबर ले रही है और न ही जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा कोई जानकारी दी जा रही है। ऐसी स्थिति में जो लोग अपनों से बिछुड़ने का दर्द झेल रहे हैं, उन्हें मुआवजा तक नहीं मिल पा रहा है।
पिछले साल प्रभावितों लोगों के परिजनों ने कलेक्टर ब्रजेश चंद्र मिश्र से मिलकर लापता लोगों की पतासाजी की गुहार लगाई थी। इस दौरान उन्होंने राज्य सरकार को अवगत कराने की बात कही थी। इधर समय बीतने के साथ ही लेह में हुए हादसे का मामला थम गया। इस मसले पर न तो जिला प्रशासन के अधिकारियों ने दोबारा मुड़कर सुध ली और न ही राज्य सरकार की ओर से पहल होती दिखी। यही कारण है कि पिछले साल बादल फटने के बाद लापता हुए लोगों के बारे कोई निर्णय नहीं हो सका।
जिला प्रशासन के अधिकारी कहते हैं कि जब तक जम्मू-कश्मीर की सरकार, मृतकों के नाम नहीं देंगे, तब तक मुआवजा की राशि स्वीकृत नहीं हो पाएगी। दूसरी ओर अधिकारी बताते हैं कि लेह प्रशासन द्वारा शव मिलने के बाद ही मृतकों के नाम भेजने की बात कही जा रही है।
रोजी-रोटी की तलाश में गए मजदूरों को अहसास भी नहीं था कि वहां किसी की मां, किसी का भाई, किसी की पत्नी, किसी की बहन बिछड़ जाएगी। जिंदगी की लड़ाई में कई ने बाजी मार ली और वे वहां से आने के बाद यह कहते नहीं थके कि किसी भी सूरत में पलायन नहीं करेंगे। साथ ही कुछ लोगों को यह भी पता नहीं था कि वे हमेशा के लिए दफन हो जाएंगे।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जिले से हर बरस सैकड़ों की संख्या में लेह मजदूरी के लिए जाते थे। वहां कुछ महीने बिताने के बाद वापस लौटते थे। कुछ लोग बीते 15-20 सालों से लेह जा रहे हैं। उनका कहना रहता है कि गांवों में कम मजदूरी मिलती है और हर दिन काम भी नहीं मिलता, जबकि वहां काम की कोई कमी नहीं रहती। साथ ही छुट्टी के दिन भी मजदूरी मिलती है। यही लुभावनी बातें हैं, जो हर साल गरीबी की मार झेल रहे लोग लेह खींचे चले जाते थे। हालांकि उन्हें क्या पता था कि कभी उनका कोई अपना यहां खो जाएगा।
जब लेह से मजदूर लौटे तो उनकी आंखों में शरीर के जख्मों का दर्द था ही, मगर अपनों से दूर होने का दर्द उन्हें ज्यादा कसक रही थी। वह दर्द आज भी उनकी आंखों में कायम है। सरकार की गैरजिम्मेदाराना रवैया के कारण लेह में प्रभावित हुए कई परिवार के लोगों की परेशानी बढ़ गई है। परिवार के सदस्यों के खो जाने के बाद मुआवजे की आस थी, वह भी छिन गई है। जिसके चलते लोगों के आर्थिक हालात बिगड़ गए हैं। हादसे में जो जख्म मिले थे, उसका भी इलाज कराने में अक्षम साबित हो रहे हैं और गरीबी की चौतरफा मार झेलने के लिए मजबूर हैं। सरकार इस दिशा में पहल करती तो शायद इन मजदूरों की माली हालत में सुधार हो जाती है, लेकिन वह भी अकर्मण्य बनी हुई है।

तबाह हुए परिवार के परिवार
लेह के हादसे के बाद कई परिवार तबाह हो गए। कई घरों के चिराग बुझ गए। कुछ घरों में इक्के-दुक्के ही सदस्य बच पाए। चर्चा में ग्राम बनारी की गुरबारी बाई ने बताया कि लेह हादसे ने उनकी सब कुछ छिन लिया। पति, बहु तथा नातीन का अब तक पता नहीं है। साल भर बाद सरकार द्वारा इस दिशा में कोई निर्णय नहीं लिया गया है, जिससे उन्हें मुआवजा भी नहीं मिल पा रहा है। हादसे में जख्मी होने के बाद वह खुद काम नहीं कर पाती। लिहाजा परिवार के समक्ष आर्थिक संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इसी तरह बनारी के ही पंचूराम का परिवार है, जिसने अपनी पत्नी के अलावा एक लड़के को खो दिया। उन्हें भी कोई मुआवजा नहीं मिला है। ऐसी स्थिति के चलते वे दिनों-दिन गरीबी की दलदल में चले जा रहे हैं।

कोई तो सुन ले...
लेह के हादसे में वैसे सैकड़ों लोग प्रभावित हुए और 50 से अधिक लोगों को चोटें आई थीं। कुछ लोगों का इलाज हुआ। उसके बाद केवल 32 लोगों को ही उपचरार्थ सहायता राशि साढ़े सात हजार रूपये दी गई। इसके बाद जिला प्रशासन ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अन्य लोग, जो लोग घायल हुए थे, उन्हें मुआवजा देने क्या किया जाए ? प्रभावित लोग बताते हैं कि लोगों की सूची बनाने में अधिकारियों द्वारा लापरवाही बरती गई, जिसके चलते कई लोग सहायता राशि पाने से अछूते रहे। सोचनीय पहलू यह है कि जिन लोगों को सहायता राशि दी गई है, वह भी नाकाफी है, क्योंकि लेह में जो जख्म मिले हैं, उसका इलाज इतनी राशि से असंभव है। ऐसी स्थिति में उन्हें कई परेशानियां हो रही हैं। लेह हादसे में घायल राजेन्द्र की थोड़े से काम करने पर सांसे फूलने लगती है, वहीं और भी कई लोग हैं, जिनके हाथ-पैर नहीं चलते। जैसे-तैसे वे अपनी जिंदगी लड़ाई लड़ने मजबूर हैं। एक अन्य प्रभावित व्यक्ति लालू यादव ने बताया कि उसे साढ़े सात हजार सहायता राशि तक नहीं मिली है, जबकि उनका अस्पताल में इलाज भी हुआ। इसलिए वे गुहार लगा रहे हैं कि कोई तो उनका सुन ले...।

इन्हें तो दे दो मुआवजा !
जिला प्रशासन व सरकार कहते हैं कि लेह प्रशासन ने जिनकी मौत की पुष्टि की है, उन्हें 1 लाख रूपये मुआवजा दिया जाएगा, मगर अहम बात यह है कि जिले के जिन 18-20 लोगों की मौत को जम्मू-कश्मीर सरकार ने माना है, उन्हें तक सरकार ने मुआवजा नहीं दिया है। केवल 8 लोगों को मुआवजा दिया गया है, जिसमें 4 महंत, 3 बनारी तथा 1 खैरा के हैं। ऐसे में सोचने वाली बात है कि अन्य लोगों को आखिर क्यों मुआवजा नहीं दिया जा रहा है ? मुआवजा जिन्हें दिया गया है, वहां एक बात और सामने आ रही है कि कुछ बिचौलिएनुमा लोगों ने 1 लाख रूपये में से 25-30 हजार रूपये हजम कर लिए। प्रभावितों को रूपये चेक से दिए गए हैं, मगर कुछ लोगों द्वारा मुआवजा दिलाने के एवज में उनसे राशि ऐंठ ली गई। फिलहाल यह जांच का विषय है और इस बारे में हर कोई कुछ भी कहने से बच रहा है।

जहां जन्म, वहीं दफन
बनारी निवासी राजेन्द्र की 16 साल की बेटी पिंकी का जन्म ‘लेह’ में हुआ था। लेह के हादसे में पिंकी की भी मौत हो गई। मृतकों की सूची में नाम होने के कारण पिंकी के पिता राजेन्द्र को 1 लाख रूपये मुआवजा मिला है, मगर उनके परिवार के अन्य दो सदस्य अब भी लापता हैं। जिनका उन्हें मुआवजा नहीं मिल सका है। वैसे मृतकों में अधिकतर बच्चे रहे, मजदूरों का कहना है कि देर रात जब बादल फटने की घटना हुई, उस दौरान बच्चे अपनी मां के साथ थे।

नहीं है पलायन की जानकारी
पिछले साल जब लेह में हादसा हुआ था, उसके बाद जिला प्रशासन जागा था और कलेक्टर ब्रजेश चंद्र मिश्र ने जिले की सभी पंचायतों को पलायन संबंधी जानकारी रखने के निर्देश दिए। साथ ही रजिस्टर में मजदूरों के नाम दर्ज करने कहा गया था। बाद में लेह में हुए हादसे की आग ठण्डी पड़ गई और वह आदेश भी ठंडे बस्ते में चला गया। जिले के अधिकारी-कर्मचारी तथा पंचायत प्रतिनिधियों ने ‘एक कान ढोल-एक कान पोल’ की तर्ज पर आदेश को दरकिनार कर दिया। हालात यह है कि पंचायतों में पलायन संबंधी कोई जानकारी नहीं है और न ही इस बारे में जिला पंचायत को भी कोई सूचना दी गई है। इस तरह जब घटना हो जाती है, उस दौरान प्रशासन के अधिकारी, प्यास लगने पर कुआं खोदने का काम करते हैं। लेह में हुए हादसे के बाद मजदूरों की संख्या जानने में काफी दिक्कतें आई थीं, फिर सबक नहीं सीखा गया है।