शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

‘जितना मन चाहे, उतना खोद डालो’

जिले में संचालित दर्जनों खदानों में सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों की चौतरफा धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खदान संचालक इतनी मनमानी पर उतर आए हैं कि वे जितना चाह रहे, उतना खोदे जा रहे हैं। कहीं कोई पाबंदी नहीं है और ही, उन्हें सेप्टी माइंस की कार्रवाई का डर है, क्योंकि खदान संचालकों को पता है कि उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जिस विभाग को कार्रवाई करना है, वहां के अफसर गहरी निद्रा में हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बेतहाशा गहराई वाली खदानों पर कब की पाबंदी लग गई होतीं, मगर उन्हें किसी बड़ी घटना का इंतजार है। जाहिर है, जो खदान मापदंड को दरकिनार कर संचालित की जा रही हैं और वहां से उत्खनन कर पत्थर निकाले जा रहे हैं, उससे तो ऐसा ही अंदेशा व्यक्त किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ऐसी खदानों की सूची नहीं बनी है, पिछले साल खनिज विभाग के अधिकारियों ने जिले की अधिकांश खदानों की जांच की थी। इसमें आधे से अधिक खदानें, सेप्टी माइंस खान सुरक्षा के नियमों के विरूद्ध पाई गईं। जांच में खदानों के बेधड़क संचालन में लगाम लगाने का हवाला देते हुए जिला खनिज अधिकारी डा. दिनेश मिश्रा ने सेप्टी माइंस खान सुरक्षा विभाग, रांची को भेज दी। साथ ही विष्फोटक सामग्री का भी प्रयोग किए जाने की बात सामने आने के बाद इसकी भी जानकारी दी गई है। दिलचस्प बात यह है कि रांची में मुख्य कार्यालय होने के कारण कार्रवाई में लेटलतीफी होने की बात कही जा रही है, किन्तु यह तो पूरी तरह से लफ्फाजी ही प्रतीत होती है, क्योंकि जहां हर पर मौत मंडराती हो, यदि वहां लगाम लगाने के बजाय, छूट दे दिया जाए और कार्रवाई करने से हाथ खींचे जाएं, ऐसी स्थिति में कानून-कायदों का मखौल ही उड़ेगा ?
इस मामले में जिला खनिज अधिकारी डा. मिश्रा का कहना है कि उन्होंने पिछले साल अकलतरा क्षेत्र के तरौद, किरारी, अकलतरा की खदानों की जांच की थी। वैसे इसके पहले भी उनके पहले पदस्थ अधिकारियों ने भी जिले की अन्य खदानों की जांच की थी। हालांकि, उसके बाद भी किसी भी खदान पर रोक नहीं लग सकी। खनिज अधिकारी ने बताया कि खदानों की गहराई व विष्फोटक मामले में उन्हें जांच का अधिकार तो है, लेकिन खदान बंद करने का अधिकार नहीं है। इसी के चलते जांच के बाद खदानों की स्थिति का विवरण देते हुए सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा विभाग को पत्र प्रेषित कर अवगत करा दिया गया है। उनका कहना है कि इसके बाद उन्हें स्मरण पत्र भी भेजा गया है, फिर भी उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है। ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है ? उन्होंने बताया कि विष्फोटक के प्रयोग करने व खान की गहराई अधिक होने के मामले में नोटिस जारी किया गया था, इसके बाद खदान संचालकों द्वारा पेनाल्टी की राशि भी जमा कराई जा रही है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि खदानों में कहीं न कहीं, घटनाएं होती रहती हैं, कुछ मामलों को अपने स्तर पर दबा लिया जाता है और कुछ मामले उजागर हो जाते हैं। उसमें भी लीपापोती कर खदान पर होने वाली कार्रवाई पर पलीता लगा दिया जाता है। छह महीने पहले बाराद्वार क्षेत्र के एक डोलामाइट खदान में ट्रैक्टर से दब कर एक ड्राइवर की मौत हो गई थी। यहां तो हद ही हो गई थी, रात में ही पत्थर उत्खनन व परिवहन कार्य हो रहा था। डोलोमाइट का यह खदान इतनी गहरी है, उसके बाद इस खदान पर बंद करने जैसी सख्त कार्रवाई नहीं हो सकी। अकलतरा क्षेत्र में भी जो खदानें संचालित हैं, वहां की गहराई काफी अधिक है। पूरी तरह नियमों को दरकिनार कर कार्य किया जा रहा है, जिसके चलते कभी भी अनहोनी घटना होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। महीने दो महीनों में किसी न किसी पर मौत का बादल मंडराता है, लेकिन इन सब बातों से अफसरों को भला क्या लेना-देना हो सकता है ? खदानों में गहराई अधिक होने से जमीन धसकने की संभावना भी बनी रहती है और ऐसी स्थिति में कोई बड़ा हादसा हो सकता है। जिन खदानों की गहराई, सेप्टी माइंस व खान सुरक्षा की शर्तों से अधिक हो गई हैं, निश्चित ही इन्हें बंद करने कड़े कदम उठाए जाने चाहिए। अब तो आने वाला समय ही बताएगा कि गहरी निद्रा में सोए अफसरों के कानों में जूं रेंगती है कि नहीं ?


अचानक कैसे जाग उठा पर्यावरण विभाग ?
वैसे तो जिले में पर्यावरण विभाग का कोई दफ्तर नहीं है। पर्यावरणीय मामले में कार्रवाई की गतिविधि क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर से चलती है। यही कारण है कि जिले में पर्यावरणीय नियमों व शर्तों के उल्लंघन की बातें आम हो चली है और पर्यावरण विभाग के कार्यालय खोले जाने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। यहां विभाग के अफसरों को पर्यावरण संरक्षण व नियमों का कड़ाई से पालन कराने की फुरसत ही नहीं है। इसी के चलते आए दिन जिले में पर्यावरण मापदंडों की खिल्ली उड़ती रहती हैं। जांजगीर-चांपा जिले के कई इलाकों में सैकड़ों क्रशर संचालित हैं, मगर इनकी जांच के लिए विभाग के अधिकारियों ने कभी रूचि नहीं दिखाई। ऐसा नहीं है कि जिले से पर्यावरण नियमों की अनदेखी की शिकायतें नहीं है, लेकिन विभाग के अधिकारी कार्रवाई के मूड बनाए, तब न। एक तो पर्यावरण विभाग के अफसर कुंभकर्णीय निद्रा में सोए रहते हैं, अब जब वह नींद से जागे हैं और जिले के ढाई दर्जन क्रशरों को मापदंडों का पालन नहीं करने की दुहाई देकर बंद करने का फरमान जारी किया गया। इसके बाद उन क्रशरों को कुछ दिनों बाद बहाल कर दी गई। पर्यावरण विभाग के अधिकारियों की इस गुपगुप निर्णय से कई तरह के सवाल उठने स्वाभाविक हैं, क्योंकि जांच में पर्यावरण विभाग ने ही पाया कि क्रशर प्रबंधन नियमों में हिला-हवाला कर रहे थे। ऐसी स्थिति में एकाएक यही क्रशरें भला, कैसे मापदंड में खरे उतर गए ? विभाग के अधिकारी अब यही सफाई दे रहे हैं कि क्रशरों की बिजली काटी नहीं गई और बाद में संचालकों ने, जो मापदंड है, उसे पूरा कर लिया। हालांकि, यह किसी भी तरह से गले नहीं उतरता, क्योंकि जिन क्रशरों में बरसों से पर्यावरण नियमों को कुचलने की बात सामने आती रही हो, जांच में यह साफ तौर पर उजागर हुई हो, उसके बाद भी पर्यावरण विभाग के अधिकारी दरियादिली पर उतर आए, इससे तो उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठना, स्वाभाविक ही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि अधिकारी कहते हैं, वे समय-समय पर जांच करते हैं और कार्रवाई करते हैं, मगर यह बात छिपी नहीं है कि केवल क्रशर संचालकों को नोटिस थमाई जाती है और बाद में मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। ऐसे में विभाग के अधिकारियों की भूमिका को कैसे पाक-साफ बताया जा सकता है ?
यहां बताना लाजिमी है कि कुछ महीनों पहले पर्यावरण विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय बिलासपुर के अधिकारियों की टीम ने जिले के सैकड़ों क्रशरों की जांच की थी। बताया जाता है कि टास्क फोर्स की बैठक में इसकी शिकायत आने के बाद कलेक्टर के निर्देश पर जांच की गई, मगर नोटिस देने के बाद कार्रवाई नहीं किया जाना और न ही किसी तरह का जुर्माना किए बिना, क्रशर को प्रारंभ रहने की छूट दिया जाना, कहां तक सही है ? जांच करने के बाद अभी जून के अंतिम सप्ताह में पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने कई किस्तों में नोटिस जारी किया। इसकी प्रतिलिपि कलेक्टर के साथ खनिज विभाग को भी भेजी गई। चार से पांच बार अलग-अलग खेप में भेजे गए नोटिस में 31 क्रशरों को बंद करने का आदेश जारी किया गया। आदेश में कहा गया कि क्रशरों की पिछले दिनों जांच की गई, जिसमें ये क्रशर पर्यावरण शर्तों के उल्लंघन करते पाए, इसलिए इसे बंद किया जाए। इसके साथ ही विद्युत मंडल के कार्यपालन अभियंता को भी इस आशय का पत्र लिखा गया कि वे इन क्रशरों की बिजली काटी जाए। इसे पर्यावरण विभाग की कार्रवाई कहंे कि खानापूर्ति का ड्रामा, ऐसा कुछ दिनों तक चलता रहा।
जिन 31 क्रशरों को बंद करने के आदेश जारी किया गया था। इनमें बिरगहनी के सबसे अधिक क्रशर थे, इसके बाद तरौद के रहे। पामगढ़ इलाके के भी क्रशरों पर गाज गिरने वाली थी, मगर मजेदार बात यह है कि इन क्रशरों को यह कहकर बहाल कर दिया गया है कि संचालकों ने सभी शर्ताें व मापदण्डों की पूर्ति कर ली है, किन्तु एक सवाल यहां हर किसी के दिमाग में कौंध सकता है कि जिन क्रशरों को महीनों तक मापदण्डों के खिलाफ बताया जाता रहा हो, वही अचानक बिना गड़बड़झाले का डिब्बा बन जाए ? पर्यावरण विभाग के अधिकारी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि विद्युत मंडल द्वारा क्रशरों की बिजली काटने में देरी किए जाने से क्रशर संचालकों को मौका मिल गया और उन्होंने पूरी व्यवस्था दुरूस्त कर ली। साथ ही जो खामी थी, उसे पूरा कर लिया। ऐसे हालात में यही कहा जा सकता है कि क्रशर संचालकों को छूट दे दी गई है, क्योंकि जिन क्रशरों को मापदंडों पर खरे बताकर बख्श दिया गया है, वहां छापामार कार्रवाई कर जांच की जाए तो दूध का दूध व पानी का पानी हो जाएगा। कहने का मतलब, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने जांच महज खानापूर्ति के लिए की, उसके बाद कार्रवाई का नोटिस भी मसखरा करते थमा दिया गया, क्योंकि यह तो समझ में आता है कि इतने कम समय में पर्यावरण की शर्ताें को पूरा करना मुश्किल ही है ? परंतु कागजों में कोई काम मुश्किल नहीं होता, इस बात को सिद्ध कर दिखाया है, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों ने।
पर्यावरण विभाग बिलासपुर के क्षेत्रीय अधिकारी डा. सी.बी. पटेल की मानें तो क्रशरों में धूल, पानी का छिड़काव तथा टिन का ढक्कन लगाने संबंधी कमियां पाई गई थी। उसके बाद क्रशर संचालकों ने कार्रवाई के डर से सभी कमियों को दूर कर लिया। सवाल यहां यही है कि आखिर महीनों-बरसों तक पर्यावरण विभाग की टेढ़ी आंखें क्रशरों पर क्यों नहीं पड़ी ? अब जब, टास्क फोर्स की बैठक में दबाव पड़ा तो कार्रवाई के नाम पर कागज, काले कर दिए गए और बाद में लीपापोती भी कर दी गई। ऐसी स्थिति में पर्यावरण की सुरक्षा कैसे होगी ? यह यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ, क्योंकि जिले में पर्यावरण की अनदेखी सामान्य सी बात हो गई है। जहां क्रशर स्थित है, उन इलाकों में गुजरते ही आंखों में कंकड़ घुस जाता है। इस बात से भी जिले के अधिकारी वाकिफ हैं और पर्यावरण के भी अफसर। नेत्र विशेषज्ञ भी इसे आंखों के लिए खतरनाक मानते हैं, मगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बैठे ठेकेदारों को कौन समझाए ? वे तो क्रेशर संचालकों पर दिल खोले बैठे नजर आते हैं।
क्रशर संचालकों द्वारा ‘सुरक्षा’ का भी ख्याल नहीं रखा जाता, इसीलिए कभी पट्टे में फंसकर मजदूर की मौत होती है तो कभी किसी और कारण से। अकलतरा क्षेत्र के क्रशरों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जिसे हर स्तर पर दबाने की कोशिश की जाती है। जब इन घटनाओं का खुलासा हो जाता है, उसके बाद हर हथकंडे आजमा कर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। जाहिर यह, अफसरों की मिलीभगत का परिणाम होता है।

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

पहले खिलाफ में खबरें दिखाओ, फिर विज्ञापन पाओ !

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तप्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव है और इसकी प्रारंभिक तैयारियां राजनीतिक पार्टियों द्वारा शुरू कर दी गई हैं। मगर दूसरी ओर सूबे में बढ़ते अपराध के कारण मायावती सरकार कटघरे में खड़ी है। मीडिया में भी पिछले कुछ महीनों से उत्तप्रदेश छाया हुआ है, चाहे वह चुनाव की बात हो या फिर कोई अपराध की। उत्तरप्रदेश में किसानों की समस्याएं चरम पर हैं और महिलाओं पर उत्पीड़न व बलात्कार की घटनाएं भी आए दिन घट रही है, लेकिन सरकार कहती है कि प्रदेश में हालात बिगड़े नहीं है, बल्कि पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में इससे भी ज्यादा अपराध होते थे। इसके लिए कुछ मीडिया हाउसों के माध्यम से आंकड़े भी छापकर सरकार को जनता की अदालत से बरी बताया जा रहा है, जो सरासर गलत है। यही सरकार है, जिसने प्रदेश की जनता से 2007 के विधानसभा चुनाव में वादा किया था कि अपराधमुक्त राज्य की परिकल्पना पहली प्राथमिकता होगी। साथ ही महिलाओं पर बढ़ते अपराध पर अंकुश लगाया जाएगा, किन्तु सरकार के सभी दावे खोखले साबित हुए। जिन बातों की दुहाई देकर मायावती सरकार ने सत्ता हथियाई, उसके बाद वह सभी वायदे भूलती नजर आई। अब जब आगामी कुछ महीनों में उत्तप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, उसके बाद प्रदेश की मायावती सरकार जाग गई है, लेकिन सरकार की मुसीबत कम नहीं हो रही है और उसकी कई तरह से फजीहत भी हो रही है। मीडिया भी सरकार के खिलाफ खड़ा नजर आ रहा है और विपक्षी पार्टी भी जैसे-तैसे मुद्दे पाकर उसे भुनाने की कोशिश में लग गई है।
अब बात उत्तरप्रदेश सरकार के मीडिया मैनेजमेंट की कर लें। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से मीडिया में मायावती सरकार के खिलाफ लगातार खबरें आ रही थीं। इसमें एक कदम आगे बढ़कर ‘स्टार न्यूज’ खबरें प्रसारित कर रहा था, उत्तरप्रदेश से जुड़ी हर खबरों को सरकार की खिंचाई करते दिखाया जा रहा था। चाहे वह किसी महिला से बलात्कार की घटना हो या फिर कोई कत्ल का मामला हो। किसानों की समस्याओं को भी ‘स्टार न्यूज’ ने बेहतर कव्हरेज दिया। साथ ही सीएमओ हत्या मामले को अपने स्तर पर ‘स्टार न्यूज’ हर एंगल से कव्हरेज दिया, या कहें कि मायावती सरकार को घेरने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा। देखिए, किसी खबर को प्रसारित करना एक मीडिया हाउस व किसी पत्रकार का धर्म है, मगर जब उसमें सरकार की केवल खिंचाई की सोच हो तो फिर क्या कहा जा सकता है ?
इसे इस बात से जाना जा सकता है कि पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में ‘स्टार न्यूज’ का प्रसारण सरकार द्वारा केबल पर बंद करा दिया गया थ, क्योंकि सरकार के खिलाफ चैनल पूरी तरह जहर उगल रहा था। ऐसे में भला कैसे कोई सरकार चाहेगी कि उसकी खिंचाई होती रहे और वह देखती रहे। चैनल ने राहुल गांधी की यात्रा को पुरजोर से दिखाया। साथ ही मायावती सरकार को किसानों के हितों को दरकिनार कर काम करने वाली बताया, मायावती सरकार को। ऐसे कई खबरें हैं, जिसे स्टार न्यूज से बेहतर समय दिया। हालांकि, खबरें प्रसारित करना चैनल का निजी मामला हो सकता है, मगर यह बात भी समझ आती है कि आखिर कोई चैनल बार-बार किसी सरकार के खिलाफ खबरें क्यों दिखाता है ? जाहिर सी बात है कि सरकार से कुछ तो खटपट रहता है।
दिलचस्प बात यह है कि बीते कुछ दिनों से ‘स्टार न्यूज’ में उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ खबरें दिखाने के बाद चैनल को जनसंपर्क विभाग से विज्ञापन जारी हो गया है, वह भी कई मिनटों का। इस विज्ञापन में उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार के कार्यों के गुणगान करते तैयार किया गया है। प्रदेश में तमाम अपराधिक घटनाओं के बाद भी सरकार को विकासान्मुख सरकार निरूपित किया गया है। स्टार न्यूज में उत्तप्रदेश सरकार की विकास गाथा को विज्ञापन के तौर पर प्रसारित किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है, चैनल प्रबंधन को विज्ञापन के तौर पर मोटी रकम भी मिली होगी।
यहां हमारा यही कहना है कि ‘स्टार न्यूज’ ने खबरों की प्रस्तुति में निश्चित ही कई अन्य चैनलों को अनेक अवसरों को पीछे छोड़ा है। उसके कंटेट भी बेहतर होता है, मगर उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार की बखिया उधेड़ने के बाद अब इसी चैनल पर ‘माया गाथा’ सुनाई जा रही है। ऐसे में कई तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है। अब विज्ञापन प्रसारित होने के बाद क्या स्टार न्यूज का वही तेवर मायावती सरकार के खिलाफ बना रहेगा ? यह तो आने वाला कल ही बताएगा, मगर दर्शकों के बीच स्टार न्यूज की शाख पर बट्टा जरूर लगा है। इसमें कहीं कोई शक नहीं है।
मैं भी इस चैनल का दर्शक हूं और इसके कई कार्यक्रमों का कायल हूं, मगर उत्तरप्रदेश सरकार के गुणगान के मामले में यह चैनल दर्शकों की अदालत में कटघरे में है। ये तो वही हो गया कि पहले दम मारकर खिलाफ में खबरें दिखाओ, फिर विज्ञापन पाओ !

( बतौर दर्शक मेरी प्रतिक्रिया )




एक मौत, दिन भर खबर !

देखिए, देश व प्रदेश में हर दिन न जानें कितनी मौत होती हैं, कितने ही कत्ल होते हैं और असमय ही काल-कवलित हो जाते हैं, मगर जब किसी इलेक्ट्रानिक चैनल का नजरिया एक ही मौत पर टिक जाए तो फिर इसे क्या कहा जा सकता है। क्या चैनल के पास दर्शकों को दिखाने के लिए खबर नहीं है ? क्या उनमें एक मौत पर ही खबर कंटेट दिखता है, तभी राजधानी रायपुर में एक महिला की हत्या के मामले को ऐसा तूल दिया जाता रहा, जैसे कभी राजधानी में कभी हत्या हुई ही न हों। कोई भी दर्शक दिन भर एक ही खबर देखना नहीं चाहता, यदि वह किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की हत्या तो बात अलग नजर आती है, लेकिन चैनल अपनी मर्जी से दर्शकों को खबरें थोपने लगे तो फिर यह चैनल प्रबंधन की ओछी मानसिकता ही कही जा सकती है। यह नहीं कहा जा सकता है, किसी की मौत, मौत नहीं होती, किन्तु सवाल यही है कि क्या अन्य मौत पर चैनल इतना हो-हल्ला मचाता है ? इस खबर को महत इसलिए दिन भर दिखाया जाता रहा, क्योंकि उस चैनल ने इस खबर को सबसे पहले दिखाना शुरू किया था।
दरअसल, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सड्डू इलाके में एक महिला की हत्या मंगलवार को कर दी गई थी। इसके बाद पुलिस जांच में जुटी थी। एक कॉलोनी में हत्या की खबर को चैनल ने पूरे सिर पर उठा लिया और मंगलवार को आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं होने तथा कॉलोनी के हालात की खबरें दिखाता रहा, उसके बाद बुधवार को सुबह से ही खबरें चैनल पर छाई रहीं। बाद में दो आरोपियों की गिरफ्तारी की सूचना आने के बाद तो इस खबर पर यह चैनल टूट पड़ा।
कहने का मतलब यही है कि चैनल के पास कोई और खबरें नहीं थीं या फिर राजधानी रायपुर में महीनों-सालों बाद किसी की हत्या हुई है ? ऐसे कई सवाल हैं, जो किसी दर्शक के मन में आता है, क्योंकि दर्शक तो चैनल में एक ही खबर देखना नहीं चाहता। खबरों को दर्शकों पर थोपना व अपनी मर्जी से एक ही खबर बार-बार दिखाया जाना कहां तक सही है ? एक दर्शक के नाते तो यह लफ्फाजी नजर आती है।

बतौर दर्शक मेरी प्रतिक्रिया -

बुधवार, 27 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - कामनवेल्थ गुरू सुरेश कलमाड़ी, जांच एजेंसी के सामने मुंह नहीं खोल रहे हैं।
पहारू - मगर, ए. राजा तो जुबान खोलकर सरकार का सिरदर्द बन गया है।


2. समारू - बिलासपुर में आईटीआई का पर्चा लीक होने की खबर है।
पहारू - छग के लिए पर्चा लीक होना कौन सी बड़ी बात है।


3. समारू - ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने सूत की माला से जूता साफ किया।
पहारू - नेता तो जनता को बरसों से जूते के ‘तलवे’ नीचे रखते आ रहे हैं।


4. समारू - छग सरकार ने अब शहरों में ‘सुराज अभियान’ चलाने का निर्णय लिया है।
पहारू - लगता है, ग्रामीण इलाकों में समस्याएं खत्म हो गई हैं !


5. समारू - बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण के लापता होने की खबर है।
पहारू - विदेश तो नहीं जाएंगे, वैसे भी वे गायब होने में माहिर हैं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - छग के जगदलपुर में एसीबी के शिकंजे में आए करोड़पति अफसर।
पहारू - देखते रहो, कुछ और धनपशु का अवतार आने वाले दिनों में होगा।


2. समारू - वारदात को अंजाम देने के बाद नक्सली पश्चाताप कर रहे हैं।
पहारू - उनकी घर वापसी ही पश्चाताप हो सकता है।


3. समारू - वोट के बदले नोट मामले में परत-दर-परत खुलासा हो रहा है
पहारू - अभी तो सूत्रधार का सींखचों के पीछे आना बाकी है।


4. समारू - छग के एसपीओ बेरोजगार नहीं होंगे।
पहारू - ऐसा होता तो कई जुबान से आह भी निकलती।


5. समारू - कृषि राज्यमंत्री डा. चरणदास महंत ने जांजगीर को उन्नत कृषि जिला बनाने की बात कही है।
पहारू - राज्य सरकार की औद्योगिक नीति की भेंट चढ़ने से पहले बचाना होगा।

कृषि व औद्योगिक नीति, बढ़ेगा टकराव

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है और व्यापक धान पैदावार के लिए अभी हाल ही में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह नेछग सरकारको सम्मानित किया है। निश्चित ही यह कृषि क्षेत्र में देश में एक अलग पहचान बनाने वाले राज्य के लिए गौरव की बात है, मगर प्रदेश के कई जिलों में जिस तरह कृषि रकबा को तहस-नहस कर औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह कृषि प्रधान प्रदेश के किसानों के बेहतर भविष्य निर्माण करने वाला साबित नहीं हो सकता ? यही कारण है कि अधिकांश इलाकों में औद्योगीकरण के खिलाफ किसान मुखर हो गए हैं और सड़क पर लड़ाई लड़ने मजबूर हो गए हैं। किसान किसी भी सूरत में अपनी पूर्वजों की जमीन देने राजी नहीं है, कुछ जगहों पर तो दबाव की बातें सामने रही हैं। ऐसे में इसे दमनात्मक नीति ही कही जा सकती है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि छग, सरप्लस बिजली वाला देश का पहला राज्य है, यह कहते प्रदेश सरकार नहीं थकतीं। ऐसी उपलब्धि होने के बाद भी किसानों का अहित कर पॉवर प्लांट लगाने अमादा होना, कहां तक सरकार की नीति को सही कही जा सकती है ?
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री बनने के बाद डा. चरणदास महंत ने प्रदेश की भाजपा सरकार की पॉवर प्लांट लगाने की नीति को सवालों के कटघरे में खड़े किए हैं और पिछले दिनों जांजगीर के एक कार्यक्रम में उन्होंने यहां तक कह दिया कि रमन सरकार, किसानों से छलकर साजिश के तहत जमीनों की खरीदी करा रही है। उन्होंने बेतहाशा पॉवर प्लांट लगाने की औचित्य पर भी उंगली उठाई और कहा कि प्रशासन के अधिकारी जमीन खरीदी कराने के लिए दलाल की भूमिका निभा रहे हैं। कृषि राज्य मंत्री डा. महंत ने जो रूख सरकार की औद्योगिक नीति के खिलाफ अपनाया है, लगता है, उससे सरकार की मुसीबत आने वाले दिनों में बढ़ने वाली है, क्योंकि केन्द्र में सरकार कांग्रेस की है और छग में भाजपा की। डा. महंत, कांग्रेस से छग के इकलौते सांसद हैं, दूसरी ओर प्रदेश कांग्रेस, भाजपा सरकार को घेरने के लिए उसकी औद्योगिक नीति के खिलाफ लगातार आवाज बुलंद कर रही है। अब तो उन्हें डा. महंत के तौर पर एक नई ताकत मिल गई है। जांजगीर में जो बयान उनका आया है, उससे तो निश्चित ही कांग्रेस के आंदोलन को बल मिलेगा, क्योंकि सरकार द्वारा विकास के नाम पर जिस लिहाज से पॉवर प्लांट लगा रही है, खासकर जांजगीर-जिले में, उसकी कहीं भी जरूरत नहीं लगती। सरकार की सोच भले ही विकास की हो सकती है, लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि कृषि रकबा घटने के बाद कृषि उत्पादन प्रभावित होगा ? ऐसा नहीं है कि किसान, पॉवर प्लांटों की स्थापना का विरोध नहीं कर रहे हैं, वे तो राजधानी तक चक्कर लगा रहे हैं, परंतु उनका कोई सुनने वाला नहीं है। किसानों के हित में कार्य करने वाले तथा संवेदनशील होने का दावा करने वाली सरकार के मुखिया डा. रमन सिंह का भी साथ किसानों को नहीं मिल रहा है ? लिहाजा, किसानों में निराशा गहराती जा रही है। कुछ इलाकों में किसानों व प्रबंधन के बीच झड़प व तोड़फोड़ की घटना कई बार सामने आ चुकी है। बावजूद, सरकार ने कड़ा रूख अपनाया हुआ है, उससे तो यही लगता है कि सरकार हर कीमत पर पॉवर प्लांट लगाने की मंशा रखती है ? यदि ऐसा नहीं होता तो जरूर किसानों के हित में कुछ पहल की जाती, जिससे किसानों में छाई निराशा खत्म होती।
कुछ दिनों पहले डा. चरणदास महंत, को केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बनकर आने के बाद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने बधाई दी थी और इस दौरान दोनों ने कदम से कदम मिलाकर प्रदेश को कृषि क्षेत्र में एक नया आयाम दिलाने पर जोर दिया था। साथ ही कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने भी प्रसन्नता जाहिर की थी कि जिन मांगों व किसानों की जरूरतों को केन्द्र सरकार दरकिनार करती रही है, उन मांगों के निराकरण करने में सहायक साबित होगा। राज्य सरकार किसानों को बोनस समेत अन्य मांगों के मामले में केन्द्र सरकार पर ध्यान नहीं देने का आरोप लगाती आई है। एक बात सही है कि डा महंत के कृषि राज्य मंत्री बनने का लाभ प्रदेश के किसानों को मिलेगा और केन्द्र की योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन भी होगा।
दूसरी ओर जो बातें उभरकर आ रही हैं, उससे प्रदेश की भाजपा सरकार की मुश्किलें बढ़ने वाली है और आने वाले दिनों में आद्योगिक नीति के मामले में कांग्रेस-भाजपा में टकराव बढ़ने के आसार से इंकार नहीं किया जा सकता। यह बात भी समझ में आ रही है, क्योंकि भाजपा सरकार की औद्योगिक नीति कांग्रेस को कहीं से रास नहीं आ रहा है, ऐसे में राजनीतिक लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने उन्हें तुरूप का पत्ता मिल गया है। कृषिमंत्री होने के नाते डा. महंत ने कहा भी है कि उनका फर्ज भी है, किसानों के हितों पर कुठाराघात न होने दें। वैसे भी प्रदेश में जांजगीर-चांपा जिले को सबसे अधिक सिंचित जिला माना जाता है, ऐसी स्थिति में यदि सरकार दर्जनों पॉवर प्लांट स्थापित कराने का मन बना ले तो फिर यह किसानों की तबाही का एक मंजर ही हो सकता है। कृषि राज्यमंत्री डा. महंत ने भी सरकार की नीति को गलत बताया है, खासकर जांजगीर-चांपा जिले के लिए तो और, क्योंकि जहां वन क्षेत्र नगण्य हैं और तापमान भी प्रदेश में अधिक रहता है। साथ ही खेती ही जिले के किसानों की आय का प्रमुख जरिया है, बावजूद सरकार कृषि रकबा को उजाड़ने पर उतारू हो जाए तो फिर किसानों के लिए सड़क की लड़ाई लड़ने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं रह जाता।
प्रदेश की औद्योगिक नीति के खिलाफ डा. महंत मुखर नजर आ रहे हैं, वैसे ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ( वर्तमान में ग्रामीण विकास मंत्री ) ने भी कड़ी लकीर खींची थी और उन्होंने कई प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी। इससे भी भाजपा सरकार की परेशानी बढ़ी थी, साथ ही उन उद्योगपतियों की आंखों में पर्यावरण मंत्री खटकते रहे। वैसे श्री रमेश का तेवर केवल छग के पर्यावरणीय स्थिति के हिसाब से ही नहीं था, बल्कि उनका रूख पूरे देश भर में पर्यावरण से खिलवाड़ करने वालों से सीधे तौर पर रहता था।
कुल-मिलाकर बात यही है कि राज्य सरकार की औद्योगिक नीति पर पहले भी उंगली उठती थी, अब तो और कांग्रेस का मुखर होना स्वाभाविक लगता है, क्योंकि कृषि रकबा घटने की बात को लेकर वे सरकार को घेरने में कहीं भी चूक करना नहीं चाहेंगी। केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बनने के बाद डा. चरण महंत के बयान से कांग्रेसियों को बल मिलेगा और सरकार की बेतहाशा पॉवर प्लांट लगाने की नीति के खिलाफ, आने वाले दिनों में सड़क पर उतर आएं तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी। कारण भी है, क्योंकि पॉवर प्लांट के विरोध में अधिकांश इलाकों के किसान आंदोलन कर ही रहे हैं, ऐसी स्थिति में विपक्ष के नाते सरकार की नीति के खिलाफ कांग्रेस खड़ी होकर किसान व जनता के खिदमतगार बनने की कोशिश करेगी। ऐसे हालात में कांग्रेस व भाजपा सरकार के बीच टकराव बढ़ेगा, क्योंकि सत्ता की लड़ाई के लिए कहां कोई मुद्दा छोड़ सकता है और कांग्रेस समझ भी रही है कि सरकार को घेरने इससे बेहतर वक्त नहीं मिलेगा।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - छग के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के नेतृत्व में 12 हजार से अधिक पौधे रोपे गए।
पहारू - अगले बरस तक 12 पौधे नहीं बचेंगे, बस ठंूठ के दर्शन होंगे।


2. समारू - यूपीए के खिलाफ भाजपा का अभियान शुरू होने वाला है।
पहारू - इधर छग कांग्रेस, भाजपा का ‘भ्रष्टाचार पुराण’ बनाने में लगी है।


3. समारू - केन्द्रीय राज्यमंत्री डा. चरणदास महंत 18 जुलाई को रायपुर आएंगे।
पहारू - अब देखना होगा, कितने गुट नदारद रहते हैं, यही तो छग में कांग्रेस की दस्तूर रह गई है।


4. समारू - पीएमटी मामले के 9 परीक्षार्थियों को गिरफ्तार किया गया है।
पहारू - पुलिस के लंबे हाथ, उंची गर्दन वालों तक देर से पहुंचेगा।


5. समारू - डा. चरणदास महंत के रायपुर पहुंचने पर जोरदार स्वागत हुआ।
पहारू - हां, पदपूजा में भीड़ तो जुटेगी ही।

रविवार, 17 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - प्री-पीएमटी की तीसरी बार आयोजित परीक्षा में एक ही प्रश्न दो बार पूछे गए।
पहारू - व्यापमं कुछ भी कारनामा कर ले, बहुत कम है।

2. समारू - अलग बस्तर राज्य मांग का समर्थन करने की आग ठंडी पड़ गई है।
पहारू - बयान देने वाला छग कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष भी तो ठंडा पड़ गया है।

3. समारू - उज्जैन में दिग्विजय सिंह को भाजपाईयों ने दिखाया काला झंडा।
पहारू - बन गया, किसी ने जूता नहीं फेंका, आजकल यही चलन तो चल पड़ा है।

4. समारू - अन्ना हजारे ने कहा - आंदोलन कुचलना चाहती है सरकार।
पहारू - निरंकुशता की पराकाष्ठा पार करते चुनावी नतीजे के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

5. समारू - पुलिस को नकली नोट को पहचान के टेªनिंग देने की खबर है।
पहारू - चलो, चाय-नाश्ता के नाम पर होने वाला टेंशन खत्म हो जाएगा।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - चावल उत्पादन के लिए छग सरकार को पुरस्कार मिला है।
पहारू - छत्तीसगढ़ का कटोरा, अब छग का परात बन गया है।


2. समारू - कल यानी 17 जुलाई को छग में प्री-पीएमटी की तीसरी बार परीक्षा होगी।
पहारू - यहां चौथी बार की नौबत आ जाए तो बड़ी बात नहीं होगी।


3. समारू - राहुल के मुंबई हादसे पर दिए बयान पर भाजपा ने पहाड़ सिर पर उठा लिया।
पहारू - क्या, एनडीए की सरकार के समय भारत अपराध मुक्त देश बन गया था ?


4. समारू - उत्तरप्रदेश की मुख्य सचिव शशांक शेखर की योग्यता पर सवाल ?
पहारू - पिछलग्गुओं की कहां योग्यता होती है।


5. समारू - मुंबई हमले में जांच दल के हाथ कुछ नहीं आ रहे हैं।
पहारू - इससे पहले भी कौन सा पहाड़ फोड़े हैं।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

परत-दर-परत फर्जीवाड़ा ?

छत्तीसगढ़ में पर्चा लीक होने के कारण पिछले महीने दूसरी बार आयोजित की गई प्री-पीएमटी परीक्षा के फर्जीवाड़े की जांच में खुलासे पर खुलासे होते जा रहे हैं। राज्य सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फर्जीवाड़े की जांच के लिए सीआईडी को जिम्मेदारी दी है और करीब एक माह से जारी जांच में अब तक कई अहम राज सामने आए हैं। जांच में जो खुलासा जांच में हुआ है, उससे किसी की भी नींद उड़ना स्वाभाविक लगता है। दरअसल, पीएमटी फर्जीवाड़े के मामले की जांच कर रही सीआईडी को व्यावसायिक परीक्षा मंडल ( व्यापमं ) द्वारा पिछले बरसों में आयोजित परीक्षाओं में गड़बड़झाले के तार जुड़े होने का सबूत मिलने की खबर मीडिया में आ रही है। ऐसे में समझा जा सकता है कि व्यापमं की साख पर किस तरह बट्टा लग रहा है, साथ ही एक बड़ा गिरोह कई सालों से प्रदेश में किस तरह सक्रिय रहा होगा ? जिनके द्वारा गहरी पैठ जमाकर राज्य की शिक्षा व्यवस्था को तार-तार करने की सुनियोजित रणनीति बनाई गई रही होगी ? शिक्षा में ऐसी करतूत की उजागर होने के बाद व्यापमं की परीक्षा व्यवस्था की पोल परत-दर-परत खुल रही हैं और जाहिर सी बात है कि इतने बरसों से हो रहे फर्जीवाड़े में महज कोई गिरोह सक्रिय नहीं रहा होगा, बल्कि इन्हें शह देने निश्चित ही प्रदेश में कोई न कोई, विभीषण रहा होगा, जिन्होंने पूरे सिस्टम को चरमराने में सहयोग दिया होगा ? हालांकि, यह सब तो जांच में खुलासा होगा, मगर इतने बड़े फर्जीवाड़े को सहज ही अंजाम नहीं दिया जा सकता है ? यह भी विचारणीय पहलू है।
छग के बिलासपुर जिले के तखतपुर में जब पीएमटी फर्जीवाड़े का पर्दाफाश हुआ, उसके बाद प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर उंगली उठनी शुरू हो गई। छत्तीसगढ़ में वैसे तो फर्जीवाड़े की लंबी दास्तान है। विकास के नए सोपान गढ़ रहे इस राज्य के लिए फर्जीवाड़ा, पहचान बनता जा रहा है, क्योंकि यहां शिक्षा क्षेत्र में एक गड़बड़झाले को लोग भूले नहीं रहते, उससे एक काली करतूत उजागर हो जाती है। छग राज्य लोक सेवा आयोग अर्थात पीएससी जैसी परीक्षा में जिस प्रदेश में गफलत हो जाए, वहां अन्य फिर कोई अन्य फर्जीवाड़ा कहीं नहीं ठहरता, क्योंकि पीएससी की परीक्षा प्रणाली की अपनी साख है और यह भी किसी से नहीं छिपी है कि छग पीएससी की परीक्षा में जिस तरह गड़बड़ी उजागर हुई है, वैसी स्थिति देश के किसी अन्य राज्यों की पीएससी में सामने नहीं आई है। आलम यह है कि यहां की परीक्षा व्यवस्था से छात्राओं का विश्वास उठता जा रहा है और मेहनती व प्रतिभावान छात्रों का भविष्य ही तबाह हो रहा है, क्योंकि वे एक-एक पल, परीक्षा के लिए देते हैं और परीक्षा के बुखार में साल भर तपते रहते हैं, मगर जिस तरह कोई दूसरा, रसूख व पैसे के दम पर परीक्षा प्रणाली को अंगूठा दिखाने में कामयाब हो जाता है, वह प्रदेश व देश के भविष्य निर्माण के लिए ठीक नहीं है ? यह माना जाता है कि जब नींव ही कमजोर होगी तो निश्चित ही उसका धरातल पर टिकना मुश्किल है। फर्जीवाड़े कर पिछले दरवाजे से एंट्री करने वाले जब तंत्र में रहेंगे, उस तंत्र का कैसे मटियामेट होगा, यह सीधे तौर पर समझा जा सकता है। ऐसा तंत्र न तो देश के लिए ठीक हो सकता है, न ही समाज के लिए। इस बात को सरकार को समझना चाहिए और सख्ती के साथ ऐसे गिरोह से निपटने नीति बनानी चाहिए।
छग में हुए पीएमटी फर्जीवाड़े की जांच सतत हो रही है और व्यापमं द्वारा जहां 17 जुलाई को तीसरी बार परीक्षा लेने की तैयारी जोर-शोर से की जा रही है, वहीं यह भी चर्चा कायम है कि फर्जीवाड़े के लिए एक गिरोह फिर सक्रिय है ? ऐसी बात पुलिस जांच में मीडिया के माध्यम से सामने आ रही है। ऐसे में अभी से सवाल खड़ा हो गया है कि कहीं इस बार फिर पर्चा लीक न हो जाए ? और यदि परीक्षा जैसे-तैसे निपट भी जाए तो क्या गारंटी कि फर्जीवाड़े का गिरोह अपने कारनामे करने पर उतारू नहीं होगा ? पुलिस जांच में कई तरह से व्यापमं की परीक्षा पर उंगलियां उठी हैं। सरकार द्वारा कुछ अधिकारियों को व्यापमं से हटाकर अपना हाथ जलने से बचने की कोशिश की गई है, किन्तु यह नाकाफी है, क्योंकि फर्जीवाड़े का कलंक, सरकार को भी कटघरे में खड़ा करता है ? दूसरी ओर सीआईडी जांच में व्यापमं के अफसर भी लपेटे में आते नजर आ रहे हैं, इससे भी चर्चा का बाजार गर्म होना स्वाभाविक है। हालांकि, पीएमटी फर्जीवाड़े मामले में अभी किसी बड़े अफसर को आरोपी नहीं बनाया गया है। साथ ही अभी पुलिस के लंबे हाथ भी उन छात्रों तक नहीं पहुंचा है, जो तखतपुर में पर्चा हल करते पकड़ाए थे। पर्चा लीक मामले में ऐसे छात्रों पर कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है ? यह भी सवाल लोगों के जेहन में है। पुलिस ने फर्जीवाड़ा गिरोह के आरोपियों को गिरफ्तार किया है, मगर मुख्य आरोपी फरार बताया जा रहा है। इसके इतर, पीएमटी के फर्जीवाड़े में तो मेडिकल कॉलेज रायपुर के दर्जनों छात्र, शक के दायरे में आ गए हैं और उनसे पूछताछ भी की गई है।
पीएमटी परीक्षा में फर्जीवाड़ा उजागर होने के बाद यह बात सामने आई है कि एक-एक छात्रों ने लाखों रूपये में सौदा किया था, इसमें निश्चित ही इन छात्रों के अभिभावकों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि बेरोजगार छात्र, भला कहां से लाखों रूपये ला पाते ?
मजेदार बात यह है कि सीआईडी की जांच, जैसी-जैसी आगे बढ़ती जा रही है, दिलचस्प खुलासे भी होते जा रहे हैं। साथ ही छग व्यापमं की परीक्षा व्यवस्था, बरसों से कैसे चरमराई हुई है, उसकी मोटी परत भी घिस-घिस पतली होती जा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि पीएमटी फर्जीवाड़े की जांच में अभी कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं ? सीआईडी की जांच में यह भी पता चला है कि शिक्षाकर्मी, पटवारी समेत अन्य परीक्षाओं में भी गिरोह सक्रिय रहा है और इसमें भी फर्जीवाड़े की बात कही जा रही है, यदि यह बात पुख्ता तौर पर सामने आ जाएगा, उसके बाद तो यही कहा जा सकता है कि ऐसे परीक्षा लेने का महत्वपूर्ण दायित्व रखने वाले ‘व्यापमं’ को ही खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि भ्रष्ट परीक्षा तंत्र का भला किसे जरूरत हो सकती है ?
छत्तीसगढ़ में परीक्षा व फर्जीवाड़े की दस्तूर आखिर कब रूकेगा, इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है ? लोगों के मन में यह सवाल इसलिए कायम है कि क्योंकि राज्य बनने के इन दस बरसों में परीक्षा संबंधी कई गड़बड़झाले उजागर हुए हैं, जिनमें से एक है, बारहवीं व दसवीं की मेरिट सूची में फर्जीवाड़ा। इस मामले के खुलासे के बाद तो शिक्षा मंडल की परीक्षा प्रणाली ही शर्मशार होती नजर आई। उसके बाद भी छग का फर्जीवाड़ा से नाता नहीं टूट पाया है। अब देखना होगा, आखिर कब, छग इस दाग को धो पाएगा और कलंक को मिटा पाएगा ? इसके लिए निश्चित ही सरकार को शिक्षा में व्यापक नीति बनाने की जरूरत है।

टेढ़ी नजर

1. समारू -छग पुलिस के मुखिया बदले गए।
पहारू - गृहमंत्री से मनमुटाव का परिणाम लगता है।


2. समारू - मुंबई फिल दहल उठी है।
पहारू - कसाब जैसों को और पालो।


3. समारू - डा. चरणदास महंत केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बन गए हैं।
पहारू - पता है, छग के भाजपा मंत्री की मंद-मद मुस्कान देखा।


4. समारू - पीएमटी के अलावा छग व्यापमं की सभी परीक्षा में गड़बड़झाले की खबर आ रही है।
पहारू - मोटी परत है, धीरे-धीरे खुलेगी ही।


5. समारू - केन्द्रीय मंत्रिमंडल से सात मंत्रियांे की छुट्टी हो गई।
पहारू - दस जनपथ को उन्हें खुश करके रखना चाहिए था।

रविवार, 10 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजग पर भी उंगली उठी।
पहारू - भ्रष्टाचार के हमाम में सभी नंगे हैं।


2.समारू - केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल होने वाला है।
पहारू - काले कारनामे वाले कुछ जाएंगे, कुछ आएंगे।


3.समारू - अन्ना हजारे लाठी ही नहीं, गोली खाने को तैयार हैं।
पहारू - जरा संभलकर, दिल्ली पुलिस की तरह सरकार बौखलाई हुई है।


4.समारू - किसानों की जमीन के लिए उत्तरप्रदेश में जंग छिड़ी हुई है।
पहारू - जमीन के नाम पर राजनीति कर वोट की खेती की जा रही है।


5.समारू - प्रधानमंत्री जी मंत्रिमंडल में फेरबदल में देरी क्यों कर रहे हैं।
पहारू - दस जनपथ से इजाजत मिलने में समय तो लगता है, न।

टेढ़ी नजर

1. समारू - छग कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल ने अलग बस्तर राज्य बनने पर सहमति जताई है।
पहारू - लगता है, दिग्गी राजा की बीमारी इन्हें भी लग गई है, मीडिया में छाए रहने की।


2. समारू - राहुल गांधी की किसान महापंचायत को नौटंकी बताया जा रहा है। पहारू - आखिर, राजनीति में होता क्या है ?


3. समारू - यूपी के फतेहपुर में ट्रेन हादसा हुआ है।
पहारू - सरकार श्रद्धांजलि देगी और कर देगी, मौत की कीमत का ऐलान।


4. समारू - राहुल गांधी ने कहा कि उत्तरप्रदेश में दलालों की सरकार है।
पहारू - केन्द्र में तो इसी दल के समर्थन में कांग्रेस सरकार चला रही है।


5. समारू - छग के पीएमटी फर्जीवाड़ा का परत-दर-परत खुलासा हो रहा है।
पहारू - साथ ही, सफेदपोशों के चेहरों पर कालिख भी पुत रही है।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

क्यों नहीं किसानों की चिंता ?

भारत एक कृषि प्रधान देश है और अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि को ही मानी जाती है। बावजूद, अन्नदाताओं की चिंता कहीं नजर नहीं आती। देश में भूमिपुत्रों की माली हालत बद्तर से बद्तर होती जा रही है और सरकार द्वारा महज नीतियां बनाने की बात की जाती है और जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं, वैसे ही किसानों से जुड़े मुद्दे भी रद्दी की टोकरी में डाल दिए जाते हैं। सरकार की ओर से कृषि बजट को बढ़ाने तथा किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के बारे में जैसा प्रयास होना चाहिए, वैसा अब तक नहीं हो सका है। यही कारण है कि देश के कई राज्यों में सैकड़ों किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। कृषि ऋण के आगोश में किसानों की पूरी जिंदगी समा जाती है, उसके बाद उनके समक्ष सिवाय मौत को गले लगाने के कुछ नहीं बचता ? हर बरस अन्नदाताओं के मरने के दसियों मामले सामने आते हैं, मगर सरकारी तंत्र का कठोर दिल नहीं पझीसता। सरकार भी ऐसे मूकदर्शक बनी नजर आती है, जैसे देश में कुछ हुआ ही नहीं है। उन्हें लगता है, देश व अवाम की हालत बिल्कुल अच्छी है, भले ही किसानों की आत्महत्या के मामले में इजाफा होता जा रहा हो ? हर साल किसानों की आत्महत्या करने का सिलसिला बढ़ रहा है, जाहिर सी बात है, इसके लिए सरकार की कृषि नीति ही जिम्मेदार हो सकती है।
देश के महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक समेत कई राज्यों में किसानों के मरने के सरकारी रिकार्ड सामने आते हैं, उसके अनुरूप किसानों की आत्महत्या के मामले कहीं अधिक होते हैं। कई बार ऐसा देखने में आता है कि किसानों की आत्महत्या को केवल इसीलिए छुपाया जाता है, सरकार की बदनामी न हो और विपक्ष को घेरने का मुद्दा न मिल जाए। यह बात तो है, जब विपक्ष, सरकार के खिलाफ खड़ा होगा तो फिर सत्ता भी हाथ से जाने का डर, सत्ता के मदखोरों में बना रहता है। इसी के चलते अधिकतर किसानों के दर्द को दबाने की कोशिश की जाती है, मगर फिर भी लोगों की जागरूकता तथा मीडिया की सक्रियता के कारण, सरकार की पोल खुल ही जाती है। बीते दस साल में महाराष्ट्र में सैकड़ों किसानों की ईहलीला समाप्त हो चुकी है और आज कब्रगाह ही उनकी पहचान है। महाराष्ट्र का विदर्भ तो इसीलिए चर्चा में अक्सर रहता है कि वहां किसानों की मौत को गले लगाना आम बात हो गई है, लेकिन सरकारी तंत्र में बैठे अफसरों तथा एसी कमरों में नीति बनाने वाले कारिंदों को इस बात की फुर्सत कहां कि वे किसानों की मुश्किलों व समस्याओं से अवगत होंवे ? सरकार की उंची कुर्सी में बैठे जनता के सेवक की चाहत रखने वाले भी, किसानों की दिक्कतों से इसकदर दूरी बनाते हैं कि उनका जैसे कोई दायित्व ही नहीं है ? उनके द्वारा ऐन चुनाव के पहले किसानों के हितों की हर वो दुहाई देने गुरेज नहीं की जाती, मगर जैसे ही चुनाव खत्म हुआ, फिर कहां का किसान और कौन किसान, कैसा किसान की बात रह जाती है ? किसानों की परेशानियों तथा त्रण के कारण उनके तबाह होते परिवार से ऐसे वोट के भोगी कारिंदे भी सरोकार नहीं रखते। लिहाजा, भूमिपुत्रों की समस्याएं कम होने के बजाय और बढ़ती जा रही हैं।
मध्यप्रदेश में भी किसानों की हितों की चाहें सरकार जितनी भी भलाई करने की वाहवाही लूट ले, मगर किसानों की आत्महत्या की घटना के बाद सरकार की कृषि नीति और उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगता है ? सरकार, यदि किसानों के विकास और उन्हें कृषि क्षेत्र में आगे बढ़ाने का प्रयास करती तो क्या ऐसा हो सकता है कि किसान आत्महत्या करने मजबूर होंगे ? हमारा तो यही कहना है कि जब किसान ऋण से ग्रस्त नहीं होगा, खेती में अच्छी पैदावार होगी और आय अधिक होगी तो किसानों की निश्चित ही उन्नति होगी और किसी भी सूरत में आत्महत्या के बारे में नहीं सोच सकता, क्योंकि उनका भी परिवार होता है, उनकी जिम्मेदारी होती है। यहां अफसोस इसी बात की है कि सरकार, किसानों के हितों को दरकिनार कर नीति बनाती है, जबकि पूरी अर्थव्यवस्था का खेवनहार यही अन्नदाता होते हैं। बावजूद इनकी फिक्र नहीं की जाती और इसी का परिणाम यह होता है कि ऋण से ग्रसित किसान, खुद तो मौत को गले लगाता ही है, साथ में अपने परिवार के लोगों भी मौत के गहरे कुएं में डूबो देता है। प्रभावित किसान को लगता होगा कि उनके जाने के बाद आबाद परिवार का क्या होगा, वह तो बर्बादी की कगार पर पहुंच जाएगी। ऐसी कई परिस्थितियों के कारण किसानों की न तो आर्थिक दशा सुधर रही है और न ही उनकी मौत से नाता टूट रहा है। बस, टूट रहा है तो सरकार के आश्वासन से उनका सब्र का बांध ? सरकारी तंत्र द्वारा किसानों को मिलने वाले बीज, खाद का ऐसे बंदरबाट किया जाता है, जिसके चलते किसानों को बाजार से अधिक दर पर ये सब खरीदनी पड़ती है, जिससे खेती करना महंगा पड़ जाता है और फिर किसान कर्ज के बोझ से लद जाता है। इसके बाद जब कर्ज देने वाला, किसानों के घर ऋण वसूली के लिए पहुंचता है तो उनके समक्ष अपनी जमीन बेचने के अलावा कोई चारा नहीं बचता या फिर उन्हें गुलामी झेलनी पड़ती है।
छत्तीसगढ़ में भी किसानों की हालात कुछ अच्छी नहीं है। सरकार भले ही तमाम तरह की नीतियां बनाने का राग अलाप ले, मगर राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड व्यूरो ने प्रदेश में आत्महत्या के जो आंकड़े दिए हैं, वह निश्चित ही सरकार की आंखें खोल देने वाली है। उनके मुताबिक वर्ष 2009 में छत्तीसगढ़ में 1802 किसानों ने आत्महत्या कर ली। जानकार यहां तक कहते हैं कि यह आंकड़ें और भी ज्यादा हो सकते हैं, मगर सरकार की यह कोशिश नहीं है कि कैसे भी किसानों को ऐसे कदम उठाने से रोका जाए, जिससे पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है। आंकड़ें के लिहाज से देखें तो छत्तीसगढ़ की हालत अन्य कई राज्यों से बद्तर है, जहां किसानों की आत्महत्या के मामले बहुत अधिक है। आंकड़ें के इतर देखें तो किसानों की जब भी आत्महत्या की घटना सामने आती है तो फिर पूरा तंत्र उसे छिपाने व दबाने में लग जाता है। प्रदेश में कई बार किसानों की आत्महत्या के मामले में राजनीति गरमाई है, मगर नतीजा सिफर ही रहा, क्योंकि सरकार की कृषि नीति जब तक सुदृढ़ नहीं बनेगी, तब तक भूमिपुत्रों का भला होने वाला नहीं हैं। इतना जरूर है कि किसानों की आत्महत्या के जितने मामले बढ़ेंगे, उससे कहीं न कहीं सरकार की साख भी गिरती है, ऐसे में सरकार को चेतना चाहिए। छग में राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड व्यूरो द्वारा आंकड़े का खुलासा करने के बाद विपक्षी पार्टी कांग्रेस के विधायकों ने विधानसभा के सत्र में इस मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की और किसानों की आत्महत्या रोकने कारगर नीति बनाने की मांग की गई। हालांकि, प्रदेश में किसानों के हित में कोई बेहतर कार्य नहीं हो सका है, मगर इस बार कृषि के लिए अलग बजट रखने की बात कहकर छग सरकार ने किसानों को कुछ राहत जरूर दी है। मगर यहां भी सवाल कायम है कि क्या किसानों को उनका हक मिल पाएगा ? क्योंकि जिस तरह का बंदरबाट, कृषि यंत्रों, बीज व खाद के वितरण में होता है, उससे सरकार को किसानों का भरोसा जीतने की जरूरत है। नहीं तो वही होता रहेगा, सरकार अपना काम करती रहेगी और चटखोर अपना और बीच में पिसता रहेगा, मजबूर व बेबस किसान।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

हारा रसूखदार फरेबी, जीते आदिवासी किसान

छत्तीसगढ़, राज्य वैसे तो सरप्लस बिजली के लिए पूरे देश में जाना जाता है। बावजूद प्रदेश की रमन सरकार पॉवर प्लांट लगाने के लिए एमओयू पर एमओयू करती जा रही है। खासकर, कृषि प्रधान जांजगीर-चांपा जिले के लिए सरकार का यह निर्णय विनाशकारी साबित हो रहा है, क्योंकि अकेले इसी जिले में सरकार ने 34 पॉवर प्लांट कंपनियों को निवेश का न्यौता दिया है। ऐसे में जांजगीर-चांपा जिले में प्रदूषण की समस्या कितनी भयावह हो सकती है, इसे सोचकर ही यहां के रहवासी सिहर उठते हैं। यही कारण है कि जिले में कई जगहों में लगने वाले पॉवर प्लांटों के लिए विरोध का स्वर मुखर हैं, फिर भी सरकार की मंशा किसानों के हितों के खिलाफ ही नजर आती है। जिले में अभी तक कई पॉवर प्लांटों की जनसुनवाई हो चुकी है, उसी दौरान से ही किसान विरोध करते आ रहे हैं, लेकिन इन बातों से सरकार को कहां परवाह हो सकती है ? इसी के चलते पॉवर प्लांट प्रबंधन, मनमानी पर उतर आए हैं।
पॉवर प्लांट लगाने के नाम पर घपलेबाजी की एक बानगी कुछ दिनों पहले सामने आई है। दरअसल, विडियोकॉन कंपनी द्वारा नवागढ़ विकासखंड के आधा दर्जन गांवों गाड़ापाली, अकलतरी, भादा, केवा तथा गौद में 12 सौ मेगावाट का पॉवर प्लांट लगाने जा रही है, इसके लिए जमीन की खरीदी की जा रही है। पॉवर प्लांट के लिए 960 एकड़ जमीन की जरूरत है, इसमें कंपनी, करीब आधे से अधिक भूमि की खरीदी कर चुकी है। इसी बीच गृहमंत्री ननकीराम कंवर के बेटे संदीप कंवर द्वारा विडियोकॉन कंपनी को भूमि हस्तांक्षरित करने की नीयत से आदिवासियों की 13.65 एकड़ जमीन बहुत ही कम दर पर छल करते हुए खरीदी की गई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि गृहमंत्री का बेटा संदीप, विडियोकॉन कंपनी में बतौर जनसंपर्क अधिकारी काम करता है। कंपनी प्रबंधन के अफसरों ने शातिराना दिमाग दौड़ाते हुए संदीप के नाम पर आदिवासी किसानों की जमीन खरीदने की जुगाड़ जमाई और इसमें वे सफल भी हो गए और नवागढ़ विकासखंड के ग्राम गाड़ापाली, गौद तथा भादा आदि गांवों के आदिवासी किसानों से 13.65 एकड़ जमीन खरीदी की गई थी। संदीप कंवर ने शासन के एक नियम का फायदा उठाते हुए यहां ऐसा किया था, जिसके तहत कोई आदिवासी ही किसी आदिवासी की जमीन खरीद सकता है। आदिवासी किसानों की कीमती जमीन को औने-पौने दाम पर छलकर खरीदे जाने की चर्चा, महीनों पहले से थी, मगर इस बात का किसी तरह खुलासा नहीं हो पा रहा था। आखिरकार देर से ही सही, इस कारनामे का खुलासा हो ही गया।
बताया तो यहां तक जाता है कि संदीप कंवर को उनके पिता के ओहदे के चलते, कुछ जिले के अफसर सहयोग भी कर रहे थे, हालांकि इस बात का खुलासा नहीं हुआ है, मगर इतना जरूर है कि जैसे ही संदीप द्वारा आदिवासी किसानों की जमीन विडियोकॉन कंपनी के लिए गलत तरीके से खरीदे जाने का मीडिया में खुलासा हुआ, उसके बाद फिर वे अपना हाथ खींचते नजर आए। खुद, गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने मीडिया को अपने बयान में कहा कि उनका बेटा संदीप, लंबे अरसे से उनसे अलग रह रहा है और वह जिस कंपनी में कार्य करता है, उसके नाते जमीन खरीदी होगी। साथ ही उन्होंने उनके नाम घसीटे जाने पर कहा कि विपक्ष द्वारा उन्हें बदनाम किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासी की जमीन आदिवासी खरीद सकता है और जब किसी को आपत्ति है या फिर कोई बात हो तो सक्षम अधिकारी को इसकी शिकायत की जा सकती है, फिर वे ही तय करेंगे कि गलत क्या है ?
मगर सवाल यहां यह है कि क्या, किसानों की जमीन को हड़पने की तर्ज पर कम दाम पर खरीदने की हिम्मत, कोई बिना रसूख या उंची पहुंच के जुटा सकता है ? भले ही कोई कितनी भी सफाई दे दे, किन्तु विडियोकॉन कंपनी प्रबंधन ने अपने स्वार्थ के लिए और उनके बड़े नाम को देखते हुए, संदीप को आदिवासी की जमीन खरीदने की जिम्मेदारी दी। दिलचस्प बात यह भी सामने आ रही है कि आदिवासियों की जो जमीन खरीदी की गई थी, उसका भुगतान चेक से विडियोकॉन कंपनी द्वारा किया गया है। ऐसे में यह तो तय हो गया कि संदीप कंवर के नाम पर विडियोकॉन कंपनी, आदिवासियों की जमीन खरीद रही थी।
इधर जून के अंत में जैसे ही गृहमंत्री के बेटे संदीप कंवर द्वारा आदिवासियों से छल कर पॉवर प्लांट के लिए जमीन खरीदने की बात उजागर हुई, उसके बाद राजनीतिक हल्कों में खलबली मच गई और फिर सरकार तक को जवाब देना पड़ गया। इस मामले को लेकर विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने भी सरकार व गृहमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और गृहमंत्री को बर्खास्त करने की मांग करते हुए राजधानी रायपुर में पैदल मार्च भी किया। इसके बाद कांग्रेस नेताओं ने राज्यपाल को ज्ञापन भी सौंपा, जिसमें आदिवासी किसानों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज तो बुलंद की गई, साथ ही आदिवासी हितों को ध्यान में रखते हुए मामले में उचित कार्रवाई की मांग की गई।
दूसरी ओर मामले को बढ़ते देख मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने मीडिया के माध्यम से कहा कि किसानों का कहीं कोई अहित नहीं होने दिया जाएगा और प्रदेश में जहां भी ऐसी शिकायतें मिलेंगी, वहां किसानों को जमीन वापस लौटाने की पहल की जाएगी। मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद जिले के कलेक्टर ब्रजेश चंद्र मिश्र ने तत्काल कार्रवाई करते हुए सभी पक्षों को नोटिस जारी किया और जवाब देने के निर्देश दिए। इसके बाद संबंधित आदिवासी किसानों के बयान के बाद कलेक्टर ने छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता की धारा 165 (6) के तहत आदेश पारित किया कि जिन आदिवासियों की जमीन, संदीप कंवर द्वारा खरीदी की गई है, उन्हें वापस लौटाया जाए। इस तरह एक रसूखदार फरेबी की हार हुई और आखिरकार आदिवासी किसान जीत ही गए। हालांकि, अब देखना होगा कि आगे भी उन्हें जमीन का वाजिब दाम मिल पाता है कि नहीं ?
अब, जब कलेक्टर की कार्रवाई के बाद यह बात प्रमाणित हो गया है कि गृहमंत्री के बेटे संदीप कंवर द्वारा गलत तरीके से आदिवासियों की जमीन खरीदी की गई थी, उसके बाद तो फिर कांग्रेस का हल्लाबोल होना ही था। कांग्रेसी भी हाथ आए मुद्दे को भुनाने से कैसे चुक सकते थे, लिहाजा प्रदेश कांग्रेस नेताओं का दल प्रभावित गांवों गाड़ापाली, गौद तथा भादा तक आदिवासी किसानों की समस्या से रूबरू होने पहुंच गया। दल में कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार पटेल, नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे समेत अन्य नेता शामिल थे। कांग्रेस नेताओं सेे आदिवासियों किसानों ने उनसे छलकर जमीन खरीदे जाने की बात कही और बताया कि उन्हें किस तरह आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है।

आदिवासी हुए थे छलकपट के शिकार : सरपंच
ग्राम अकलतरी के सरंपच अश्विनी कश्यप ने बताया कि ग्राम गाड़ापाली, उनकी पंचायत का आश्रित ग्राम है। यहां के आदिवासी किसानों को बहला-फुसलाकर महज दो, चार तथा छह लाख रूपये प्रति एकड़ में जमीन खरीदी की गई थी। आदिवासी किसानों को नियम कायदों की जानकारी थी नहीं, इसी का फायदा दलालों द्वारा उठाया गया है और फिर औने-पौने दाम पर आदिवासी अपनी जमीन बेच दिए। हालांकि, आदिवासी किसानों को प्रशासन ने जमीन लौटाने के आदेश देकर उनके हितों की रक्षा की है और उन्हें अब आर्थिक नुकसान नहीं होगा, क्योंकि शासन की दर काफी अधिक है।

...तो पुनर्वास नीति का लाभ नहीं मिलता ?
संदीप कंवर द्वारा जमीन खरीदे जाने की बात सामने आने के बाद चर्चा रही कि ऐसी स्थिति में आदिवासी किसान क्या करते ? एक तो उन्हें आर्थिक नुकसान तो होता, वो अलग है। इसके अलावा पुनर्वास नीति के तहत जमीन के बदले उनके परिवार के एक व्यक्ति को पॉवर प्लांट कंपनी में नौकरी मिलती, वह उनके हाथ से चली जाती। ऐन वक्त पर मीडिया में संदीप कंवर की करतूत उजागर होने के कारण अब आदिवासी किसानों को पुनर्वास नीति का भी लाभ मिल सकेगा।

यह भी है पेंच...
विडियोकॉन कंपनी के लिए संदीप कंवर द्वारा खरीदी की गई जमीन को कलेक्टर ने आदिवासी किसानों को लौटाने का आदेश तो कर दिया है, मगर इसमें एक पेंच कायम रह गया है। विधि के जानकारों का कहना है कि कलेक्टर को ऐसा आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जमीन रजिस्ट्री निरस्त करने का अधिकार सिविल कोर्ट के अलावा किसी को नहीं है। इसलिए कलेक्टर के आदेश पर सवाल खड़े हो गए हैं। भू-राजस्व संहिता की धारा 170 बी के तहत एसडीओ स्तर का अधिकारी, ऐसे प्रकरणों की जांच कर कार्रवाई कर सकता है। इसके बाद कलेक्टर के माध्यम से जांच रिपोर्ट राज्य शासन को भेजी जाती, उसके बाद शासन मामले को सिविल कोर्ट में दायर कर सकता है। दूसरी ओर भू-राजस्व संहिता की धारा 165 ( 6 ) के तहत आदिवासियों की जमीन, आदिवासी ही खरीद सकता है, इसके लिए उसे शासन से अनुमति देने की जरूरत नहीं पड़ती। आदिवासी की जमीन यदि कोई गैर आदिवासी खरीदना चाहता है तो नियम के मुताबिक उसे कलेक्टर से अनुमति लेनी पड़ती है। विडियोकॉन कंपनी प्रबंधन ने संदीप कंवर के नाम पर जमीन खरीदी करा ली और उसका भुगतान कंपनी के चेक से कर दिया गया। ऐसे में यह भी कहा जा रहा है कि कंपनी की मंशा, जमीन को लीज पर लेने की रही होगी, हालांकि उससे पहले गड़बड़झाले का खुलासा हो गया। संहिता की धारा 170 बी के तहत क्रेता व विक्रेता, दोनों को कोर्ट जाने का अधिकार है, मगर अब तक ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है कि संदीप कंवर, कोर्ट जाने का विचार कर रहा हो ? इसका खुलासा नहीं हो पाया है, हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि सरकार से खिलाफत कर शायद ही संदीप कंवर, कोर्ट जाएगा। फिलहाल, कलेक्टर के आदेश के बाद राजनीतिक सरगर्मियां जरूर बढ़ गई हैं और विपक्षी पार्टी पूरे दमखम के साथ इस मुद्दे पर सरकार को बैकफुट पर लाने उर्जा लगा रही है।


नहीं होगी आदिवासी हितों की अनदेखी : कलेक्टर
इस मामले में कलेक्टर ब्रजेश चंद्र मिश्र ने कहा कि आदिवासियों की जमीन, कोई दूसरा आदिवासी खरीद सकता है, मगर संदीप कंवर द्वारा विडियोकॉन कंपनी के लिए जमीन खरीदी किए जाने की बात जांच में सामने आई है। इसके चलते आदिवासी किसानों की जमीन लौटाने के आदेश दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि आदिवासी हितों की अनदेखी नहीं होगी, आगे भी यदि अन्य पॉवर प्लांटांे द्वारा आदिवासियों की जमीन खरीदे जाने की शिकायत मिलती है तो उस पर भी कार्रवाई की जाएगी। कलेक्टर श्री मिश्र ने कहा कि पॉवर प्लांटों में जिनकी जमीन अधिग्रहित की जा रही है, उन्हें यदि पुनर्वास नीति के तहत लाभ नहीं दिया जा रहा है, इसकी भी शिकायत मिलेगी तो कार्रवाई तत्काल की जाएगी।

इन किसानों का क्या होगा ?
विडियोकॉन कंपनी के नाम पर आदिवासियों की जमीन खरीदने के मामले उजागर होने के बाद एक बात भी सामने आ रही है कि विडियोकॉन कंपनी द्वारा कई अन्य किसानों से उनकी जमीन, शासन की नीति के तहत नहीं खरीदी है। इसके चलते कई किसानों को लाखों रूपये का नुकसान हो रहा है। ऐसे प्रभावित किसान भी अफसरों से शिकायत कर उचित पहल करने की मांग कर सकते हैं, हालांकि फिलहाल वे अपने हक के लिए मुखर नहीं हुए हैं, मगर वे कभी भी कंपनी के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। ऐसे प्रकरणों को गंभीरता से लिया जाए तो किसानों की जमीन अनाप-शनाप दर पर खरीदने के और भी मामलों का भंडाफोड़ हो सकता है।

जनसुनवाई के पहले जमीन खरीदी !
जांजगीर-चांपा जिले में ऐसा लगता है, जैसे पॉवर प्लांट प्रबंधन अपनी पूरी मनमानी पर उतर आए हैं। नियम के मुताबिक जब तक किसी पॉवर प्लांट की जनसुनवाई नहीं हुई है, तब तक वे जमीन खरीदी नहीं कर सकते, मगर जब उन्हें सरकार का शह है तो फिर वे कहां मानने वाले हैं। पिछले इसी बात को लेकर अकलतरा के बसपा विधायक सौरभ सिंह ने शिकायत दर्ज कराई थी कि कई पॉवर प्लांट हैं, जो बिना जनसुनवाई के लिए जमीन खरीद रहे हैं। इस पर रोक लगाई जानी चाहिए, मगर अफसोस अब तक इस मामले में न तो जिला प्रशासन ने पहल किया है और न ही राज्य शासन ने । इन हालातों में समझा जा सकता है कि जो किसान अपनी जमीन बेचना नहीं चाहते, उन पर किस तरह दबाव बनाया जाता होगा ?

‘मर जाएंगे, नहीं देंगे पुरखौती जमीन’
राज्य सरकार भले ही पूरे मूड में लग रहे हों कि जांजगीर-चांपा जिले को कृषि प्रधान के बजाय राख व प्रदूषण प्रधान जिले के रूप में पहचाना जाए, मगर यहां के किसान भी कम उग्र नहीं है। सरकार की नीति के खिलाफ कई इलाकों में किसानों की मोर्चाबंदी जारी है। कई पॉवर प्लांट पहले से ही विवादों से घिरे हुए हैं, साथ ही कानून व्यवस्था भी कई बार बिगड़ चुकी है, ऐसे में सरकार का पॉवर प्रबंधन को दिया जा रहा शह, निश्चित ही किसी अनहोनी का सूचक है। इसका प्रमाण बम्हनीडीह विकासखंड अंतर्गत ग्राम सिलादेही व गतवा में लगाए जा रहे ‘मोजर बियर’ पॉवर प्लांट का विरोध है। सिलादेही के किसान राजधानी रायपुर तक का चक्कर लगा चुके हैं और मुख्यमंत्री को अपनी समस्या से अवगत करा चुके हैं। बावजूद, इसके मामले में सरकार का दंभी रूख कायम है। इसके चलते किसानों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है और वे जहां भी अफसरों के पास अपनी समस्या लेकर जाते हैं, वे कहते हैं कि ‘हम मर जाएंगे, मगर अपनी पुरखौती जमीन नहीं देंगे।’ ऐसे में बिगड़ते हालात को देखते हुए सरकार को पहल करनी चाहिए।

‘सरकार के लिए शर्म की बात’
प्रभावित गांवों के किसानों से मिलने के बाद जांजगीर में पत्रकारों से चर्चा करते हुए कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार पटेल ने कहा कि गृहमंत्री ननकी राम कंवर के बेटे द्वारा आदिवासियों की जमीन गलत तरीके से खरीदे जाने की बात सही पाई गई और किसानों ने अपना दर्द कांग्रेस नेताओं के दल को बताया। कलेक्टर ने भी आदिवासी किसानों को उनकी जमीन वापस करने के आदेश देकर भी इस बात को सही प्रमाणित किया है कि गृहमंत्री पिता के रसूख का लाभ उठाकर संदीप कंवर ने आदिवासी होकर आदिवासियों से छल किया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने महामहिम राज्यपाल से भंेटकर गृहमंत्री को बर्खास्त करने की मांग की है और आगे भी ध्यान रखा जाएगा कि किसानों का अहित न हो। साथ ही श्री पटेल ने कहा कि गृहमंत्री के बेटे पर एफआईआर किए जाने की मांग कांग्रेस करेगी, ताकि कोई दूसरा, आदिवासियों हितों पर कुठाराघात न कर सके। आवश्यकता पड़ी तो न्यायालय भी जाएंगे। आदिवासियों का अहित होना, सरकार के लिए शर्म की बात है।
नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे ने पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा कि कांग्रेस दल ने तीन गांवों का दौरा किया और यहां आदिवासी किसानों से मुलाकात कर गृहमंत्री के बेटे द्वारा गलत तरीके से जमीन खरीदे जाने की जानकारी ली गई। मौके पर किसानों ने खुद को छले जाने के बाद आर्थिक नुकसान का रोना रोया।
इधर श्री चौबे ने प्रदेश में परीक्षा व्यवस्था में गड़बड़ी व फर्जीवाड़े को लेकर राज्य भाजपा सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि पीएससी जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा में फर्जीवाड़ा तथा बारहवीं-दसवीं की बोर्ड परीक्षा की मेरिट सूची में गफलत के मामले में सरकार पहले से ही कटघरे में खड़ी है। इस कालिख को सरकार धो नहीं पाई है, अब पीएमटी की परीक्षा में उजागर हुए फर्जीवाड़े से सरकार तथा परीक्षा संस्थानों की साख पर सवाल खड़े हो गए हैं। पीएमटी परीक्षा के मामले में परत दर परत गड़बड़ियां उजागर हो रही हैं, इसमें कई रसूखदारों के बेटे-बेटियों के नाम आ रहे हैं। देखना है, सरकार का रूख इस फर्जीवाड़े पर क्या रहता है, हालांकि कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ हर तरह से मोर्चेबंदी में कोई कमी नहीं रखी है। इन्हीं कुछ मुद्दों को लेकर कांग्रेस नेताओं ने राजधानी में पैदल मार्च करते हुए राज्यपाल से मुलाकात की थी और सरकार की विफलता की जानकारी दी गई है। साथ ही भाजपा सरकार को घेरने के लिए घोटालों, गड़बड़ियों तथा फर्जीवाड़े के मामले में आने वाले दिनों में राष्ट्रपति से भी कांग्रेस का प्रतिनिधि मंडल भेंट करेगा।
इस अवसर पर कांग्रेस नेता सत्यनारायण शर्मा, भूपेश बघेल, जैजैपुर विधायक राजेश्री महंत रामसुंदर दास, पूर्व विधायक मोती लाल देवांगन समेत अन्य नेतागण उपस्थित थे।

मीडिया को देते रहे श्रेय
पत्रकार वार्ता में कांग्रेस नेतागण, राज्य में हो रहे फर्जीवाड़े, गड़बड़ियों के उजागर करने का श्रेय मीडिया को देते रहे। कांग्रेस नेताओं ने कहा कि पीएससी से लेकर पीएमटी में हुए फर्जीवाड़े का खुलासा मीडिया ने ही किया है, इससे सरकार की बदहाल नीति की पोल भी खुली है। मीडिया ने ही गृहमंत्री के बेटे द्वारा आदिवासियों की जमीन खरीदे जाने का भंडाफोड़ किया है, इसके बाद सरकार को जवाब देते नहीं बन रहा है। मीडिया का दबाव ही है कि कलेक्टर को, आदिवासियों की जमीन वापस लौटाने के आदेश देने पड़े।

कांग्रेसी आर-पार की लड़ाई के मूड में
आदिवासियों की जमीन खरीदी का मामला केवल जांजगीर-चांपा जिले की ही बात नहीं है। अब तो बस्तर समेत कई जिलों में आदिवासियों की जमीन कौड़ी के दाम खरीदने की बात उजागर हो रही हैं। ऐसे में कांग्रेसी इसे प्रमुख मुद्दा बनाते हुए राज्य की भाजपा सरकार को घेरने कोई कोर-कसर बाकी रखना नहीं चाहते। यही कारण है कि कांग्रेस नेताओं का दल जांजगीर से दौरा करने के बाद, बस्तर के दौरे पर गए और वहां के आदिवासी किसानों से मिले। बताया जाता है कि बस्तर जिले के बड़ी संख्या में आदिवासी, दलालों के चंगुल में फंसकर अपनी जमीन गंवा बैठे हैं। उनकी जमीन को दलाल सस्ते दाम पर खरीदकर मालामाल हो गए है और आदिवासी पूर्वजों की जमीन गंवाकर भी कंगाल नजर आ रहे हैं।

टेढ़ी नजर

1. समारू - एक-एक कर मंत्रियों पर गाज गिर रही है।
पहारू - हां, अब उनके भाग्य में जेल की रोटी लिखी है।


2. समारू - सुप्रीम कोर्ट के सख्त फैसलों से सरकारों की नींदे उड़ गई हैं।
पहारू - अब सरकारें कहां रह गई हैं, वो तो कठपुतली बनकर रह गई है।


3. समारू - राहुल बाबा, किसानों के दर्द को समझने निकले हैं।
पहारू - मगर यूपीए-2 के दर्द का मर्ज भी तो ढूंढना चाहिए।


4. समारू - सरकार, माओवादियों से वार्ता की तैयारी कर रही है।
पहारू - वार्ता के अलाप बरसों से जारी है, मगर धेला भर बात बने तो।


5. समारू - छग सरकार पढ़े-लिखे एसपीओ को काम पर लगाएगी।
पहारू - सरकार को क्या लगता है, अनपढ़ एसपीओ, आलू ही छिल सकते हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

‘बाप भए चयनकर्ता तो जुगाड़ काहे न होए’

यह तो सभी जानते हैं कि आज क्रिकेट, भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक ग्लैमरस खेल है और खेलप्रेमियों में इस खेल का जुनून सिर चढ़कर बोलता है। देश-दुनिया में ऐसे भी खेल प्रेमी मिलते हैं, जिनके लिए क्रिकेट ही सब कुछ है तथा उनके पसंदीदा क्रिकेटर भगवान होते हैं। क्रिकेट के प्रति खेलप्रेमियों में दीवानगी इस कदर देखी जाती है कि वे अपना खाना-पीना को भी दरकिनार कर देते हैं। विश्वकप समेत अन्य कई टूर्नामेंट में एक-एक बॉल पर उनकी नजरें टिकी रहती हैं और यही क्रिकेट का रोमांच उन्हें बांधे भी रखता है। एक-एक बॉल तथा एक-एक रन पर बल्लेबाजों गेंदबाजों के बीच घंटों तक चलने वाली रस्साकसी, क्रिकेट में रोमांच पैदा करती रहती है। यही कारण है कि आज क्रिकेट, सबसे अधिक धनजुटाउ खेल बन गया है और हर कोई इससे जुड़ने की कोशिश करता है। वैसे भी भारत का क्रिकेट में एक नाम है, क्योंकि यहां कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने अपने खेल के दम पर देश को गौरान्वित किया है, मगर इसी खेल में उभरते खेल प्रतिभाओं को रौंदने की कोशिश की जाए तो यहभविष्य के भारतीय क्रिकेटके लिए ठीक नहीं हैं तथा यह शर्म की बात है।
देखा जाए तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अर्थात बीसीसीआई के चयन के तौर-तरीके व चयनकर्ताओं की भूमिका पर कई अवसरों पर उंगली उठती रही हैं, मगर इस बार तो हद ही हो गई है। बीसीसीआई के मुख्य चयनकर्ता श्रीकांत ने जो किया है, उससे तो क्रिकेट के उभरते खिलाड़ियों के भविष्य पर कुठाराघात ही हुआ है। दरअसल, मीडिया में जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक मुख्य चयनकर्ता श्रीकांत ने आस्ट्रेलिया में अगले महीने होने वाले तीन दिवसीय श्रृंखला के लिए अपने ही बेटे ‘अनिरूद्ध श्रीकांत’ का चयन किया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बीसीसीआई द्वारा सीनियर चयन कमेटी के जो पैनल बनाया गया था, उसके प्रमुख श्रीकांत ही थे। ऐसे में तरह-तरह के सवाल उठना भी स्वाभाविक लगता है। ऐसा भी नहीं कि अनिरूद्ध श्रीकांत का क्रिकेट में कोई विशेष परफार्मेंस है, खराब प्रदर्शन के बाद भी अनिरूद्ध के चयन ने बीसीसीआई की चयन समिति की ‘चयन प्रक्रिया’ पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है ? चयनकर्ताओं ने केवल उभरते हुए खिलाड़ी की दुहाई देकर अनिरूद्ध का चयन किया है। जानकारों की मानें तो तमिलनाडु की रणजी टीम में ओपनर के तौर पर खेलने वाले अनिरूद्ध का प्रदर्शन आईपीएल में भी बेहतर नहीं था। चेन्नई सुपर किंग्स इलेवन की ओर से खेलते हुए अनिरूद्ध ने 9 पारियों में महज 251 रन ही बना पाए थे, जिसमें सर्वोच्च स्कोर 64 था। अनिरूद्ध का प्रथम श्रेणी क्रिकेट भी कुछ अच्छा नहीं रहा है, क्योंकि उनके रन बटोरने की औसत महज 29.45 ही है। इसके इतर देखें तो आस्ट्रेलिया जाने के लिए 15 सदस्यीय टीम में जो खिलाड़ी शामिल किए गए हैं, उनमें अधिकांश का प्रदर्शन बेहतर है, सिवाय, अनिरूद्ध श्रीकांत के। जिन खिलाड़ियों को चयनकर्ताओं ने नकारा माना है, उन खिलाड़ियों ने आईपीएल के मैचों में अपनी खेल प्रतिभा का लोहा मनवाया है और यहां उनके चयन का कारण सिर्फ व सिर्फ उनका प्रदर्शन रहा है, बल्कि अनिरूद्ध श्रीकांत के चयन में केवल यह बात महत्वपूर्ण नजर आती है कि वे मुख्य चयनकर्ता श्रीकांत के बेटे हैं ? अब ऐसे में भारतीय क्रिकेट किस गर्त में जा रहा है ? और खेलप्रेमियों की आशाओं को कैसे चक्नाचूर किया जा रहा है ? यह तो सहज ही समझ में आता है। इन स्थितियों में यही कहा जा सकता है कि ‘बाप भए चयनकर्ता तो जुगाड़ काहे न होए।’
मजेदार बात यह है कि आस्ट्रेलिया में होने वाले तीन दिवसीय मैच के लिए ऐसे बहुत काबिल व उभरते खिलाड़ियों की प्रतिभाओं को नजर अंदाज किया गया है, जिनके पीछे केवल उनकी काबिलियत है, न कि किसी की छत्रछाया। ऐसे खिलाड़ियों के कोई गॉड फादर नहीं है, यही कारण हैं कि लाख काबिलियत होने के बाद भी उनके नाम को सूची में शामिल करना तो दूर, विचार तक नहीं किया गया। जानकार बताते हैं कि अनिरूद्ध श्रीकांत के मुकाबले झारखंड के इशांक जग्गी, कर्नाटक के अमित वर्मा, बड़ौदा के केदार देवधर तथा पंजाब के मनदीप सिंह का नाम उभर के सामने आए हैं, जिन्होंने अभी हाल ही में बेहतर क्रिकेट का मुजायरा पेश किए हैं। इन खिलाड़ियों ने रणजी के वनडे फार्मेट में भी अनिरूद्ध की अपेक्षा बढ़िया प्रदर्शन किए हैं, मगर जब जुगाड़ के अंतिम शिखर में कोई गिद्ध दृष्टि जमी हो तो फिर ऐसी खेल प्रतिभाएं दम ही तोड़ेगी और फिर चरमराता है, देश का हर जुनूनी खेल। ऐसी घिनौनी हरकत से खेलप्रेमियों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचती है, लेकिन इन बातों सेे चयनकर्ताओं को क्यों परवाह हो सकती है? जब चयन करने के लिए उनके मन में हिटलरशाही कायम हो गया है, तो फिर जुगाड़ू चाबुक चलाने से वे कैसे चूक सकते हैं ? क्या यह, मुख्यचयनकर्ता श्रीकांत की मनमानी नहीं है ? क्या यह, उन खिलाड़ियों की प्रतिभाओं को दम तोड़ने की कोशिश नहीं है, जो केवल अपनी काबिलियत पर भरोसा करते हैं ? यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय क्रिकेट में खिलाड़ियों के चयन में भेदभाव का ऐसा खेल पहले से चलते आ रहा है। कभी क्षेत्रवाद तो कभी भाई-भतीजावाद, क्रिकेट खिलाड़ियों के चयन में हावी नजर आता है। ऐसे में प्रतिभावान खिलाड़ी कैसे दम नहीं तोड़ेंगे तथा ऐसे ही निर्णय उनकी राह के रोड़े साबित होते हैं? रसूख के दम पर जब कोई इस तरह कार्य करता है और रेवड़ी बांटे, घर-घर की तर्ज पर काम करता है तो निश्चित ही उस संस्था या फिर संगठन का बंटाधार होना तय है, जहां ऐसी करतूत को अंजाम दिया जाता है ?
जब जरा इतिहास खंगालें तो पाते हैं कि चयन के नाम पर गोलमाल आज की बात नहीं है। खिलाड़ियों के पिछले दरवाजे से भारतीय टीम में शामिल होने का पहले भी मामला सामने आ चुका है। लिटिल मास्टर के नाम से प्रसिद्ध व भारतीय क्रिकेट को बुलंदी तक पहुंचाने वाले सुनील गावस्कर के बेटे रोहन गावस्कर की भी भारतीय टीम में एंट्री, केवल इसी दमखम के आधार पर हुई थी कि वे, सुनील गावस्कर के बेटे हैं ? भले ही दबाव में उस समय चयनकर्ताओं ने रोहन गावस्कर को खेलने का मौका तो दे दिया था, किन्तु उस स्वर्णकाल के अवसर को वे भुना न सके और क्रिकेट की बाजीगरी में फेल साबित हुए। बिना बेहतर प्रदर्शन के सुनील गावस्कर के बेटे के नाते रोहन गावस्कर को खेलने का मौका कब तक मिलते रहता ? अंततः भारतीय टीम से उनका पत्ता साफ हो गया। कहने का मतलब यही है कि पंदोली देकर किसी को कहीं बिठाया जा सकता है, रसूख व पहुंच के आधार पर प्रतिभा दिखाने का अवसर तो दिया जा सकता है, मगर इतना तो तय है कि बुलंदी, वही छू सकता है, जिनमें दमखम होता है। चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, खुद में बिना काबिलियत के कोई भी इस स्पर्धा के युग में ठहर नहीं सकता। इस बात को बीसीसीआई के मुख्य चयनकर्ता श्रीकांत जी को भी समझना चाहिए और उन्हें बिना विवाद में आए, अपने बेटे को पिछले दरवाजे से एंट्री देने की बात को दिमाग से निकाल देना चाहिए। उनकी कोशिश यह होनी चाहिए कि जिस तरह अन्य खिलाड़ी, देश के करोड़ों खेलप्रेमियों को क्रिकेट में अपना जौहर दिखाकर टीम में जगह बनाते हैं, कुछ ऐसी राह वे भी अपनाएं तो बेहतर होगा। खेलप्रेमियों के सब्र का बांध फूटने का इंतजार उन्हें नहीं करना चाहिए।

टेढ़ी नजर

1. समारू - भारतीय क्रिकेट टीम में श्रीकांत ने अपने बेटे का चयन किया है।
पहारू - बाप भए चयनकर्ता तो जुगाड़ कैसे न जमे।

2. समारू - मध्यप्रदेश में चिटफंड कंपनियों पर गाज गिरी।
पहारू - छग में भी ऐसा हो, तब तो।


3. समारू - केरल के मंदिर में एक लाख करोड़ का खजाना मिला है।
पहारू - यहां तो चवन्नी भी नसीब नहीं है।


4. समारू - छग में पीएमटी की परीक्षा तीसरी बार होने वाली है।
पहारू - देखना होगा, इस बार पेपर लीक कहां से होता है ?


5. समारू - लोकपाल बिल मानसून सत्र में लाने जाने की कवायद।
पहारू - 40 साल से यही अलाप तो जारी है।

रविवार, 3 जुलाई 2011

टेढ़ी नजर

1. समारू - चवन्नी का अस्तित्व खत्म हो गया है।
पहारू - मगर, चवन्नी छाप लोगों की संख्या तो बढ़ रही है।


2. समारू - ऐश्वर्या राय की जल्द ही मां बनने की खबर है।
पहारू - लगता है, ‘मीडिया’ को ‘ऐश्वर्या’ से अधिक जल्दी है।


3. समारू - छग के पीएमटी परीक्षा फर्जीवाड़े में ओहदेदारों की संलिप्तता की चर्चा है।
पहारू - बड़े लोग हैं, बड़े कारनामे करने में कैसे गुरेज करेंगे।


4. समारू - छग में डीएड का पेपर लीक हो गया।
पहारू - यहां की परीक्षा संस्थानों की बदहाली की यह छोटी कहानी है।


5. समारू - रतन राजपूत ने अभिनव को वर चुन लिया है।
पहारू - अब देखना होगा, वरण कितना करते हैं ?