रविवार, 28 नवंबर 2010

आवाम, पुलिस और सरकार

छत्तीसगढ़ ने जिस तरह विकास के दस बरस का सफर तय कर देश में एक अग्रणी राज्य के रूप में खुद को स्थापित किया है और सरकार, विकास को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, मगर यह भी चिंता का विषय है कि छत्तीसगढ़िया, सबसे बढ़िया कहे जाने वाले इस प्रदेश में अपराध की गतिविधियों मंे लगातार इजाफा होता जा रहा है। राजधानी रायपुर से लेकर राज्य के बड़े शहरों तथा गांवों में निरंतर जिस तरह से बच्चों समेत लोगों के अपहरण हो रहे हैं तथा सैकड़ों लोग एकाएक लापता हो रहे हैं और पुलिस उनकी खोजबीन करने में नाकामयाब हो रही है, ऐसे में आम जनता के मन में भय बनना स्वाभाविक है। जिनके कंधे पर लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, यदि वही अपराध रोकने में अक्षम साबित हो रहे हैं, तो आम लोग भला किसके पास जाएं। इस नये राज्य में वैसे ही नक्सलवाद के कारण हालात बिगड़े हुए हैं, उपर से आपराधिक घटनाओं में हो रही बढ़ोतरी ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, लेकिन सरकार को शायद कोई चिंता नहीं है। यदि ऐसा होता तो अब तक राज्य में बेहतर पुलिसिंग तथा आपराधिक घटनाओं को रोकने के लिए नीति बना ली गई होती। प्रदेश में एक के बाद एक अपहरण जैसे गंभीर अपराध की घटना घटित हो रही हैं, लेकिन पुलिस के लंबे हाथ अपराधियों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ को बरसों से एक शांत इलाका माना जाता है। राज्य के निर्माण के बाद जिस तरह से विकास की गति तेज हुई है, उसी लिहाज से प्रदेश में दूसरे राज्यों से लोगों का आना शुरू हुआ है। दस बरस पहले के हालात अलग थे और आज अलग है। एक समय रायपुर को अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रमुख शहरों में गिना जाता रहा। छग बनने के बाद राजधानी के तौर पर रायपुर की बसाहट में कई गुना वृद्धि हुई। जाहिर सी बात है कि यहां की आबो-हवा में बदलाव आना ही था तथा छग में आपराधिक गतिविधियों में इजाफा होने से यहां की शांत प्रिय जनता के मन में भय पैदा हो गया है। हाल ही में हुई कुछ घटनाओं से प्रदेश के लोगों का विश्वास पुलिस से उठ रहा है, क्योंकि घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है और प्रदेश की पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
पिछले दिनों राजधानी रायपुर में हुई ब्लास्ट की घटनाओं को लोग भूले नहीं थे कि प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में अपहरण, बलि जैसे गंभीर मामले सामने आने लगे हैं। रायपुर, अंबिकापुर, भिलाई, बिलासपुर समेत जांजगीर-चांपा तथा कई अन्य जिलों में बच्चों, युवतियों एवं लोगों के गायब होने की जानकारी सामने आ रही है। कुछ मामलों में अपहरण के बाद फिरौती की भी मांग की गई। ऐसे कई मामलों में पुलिस की मुस्तैदी नजर नहीं आई। पुलिस केवल खोजबीन करने की बात कहकर अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लेती है, यही कारण है कि पुलिस न तो अपहृत लोगों को बचा पा रही है और न ही, उन अपराधियों को पकड़ पा रही है। जांजगीर-चांपा जिले में भी एक आंकड़े के अनुसार करीब 137 लोगों के लापता होने की जानकारी है। इनका पता पुलिस नहीं लगा सकी है, ऐसे में किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इन लोगों को जमीं निगल गई या फिर आसमां खा गया। पुलिस कहती है कि उसका तंत्र मजबूत है, लेकिन यहां सवाल यही है कि जब तंत्र इतना मजबूत है तो फिर कैसे अपहरण जैसे मामले लगातार सामने आ रहे हैं।
अंबिकापुर के हृदय विदारक घटना ने पूरे प्रदेश के लोगों को हिलाकर रख दिया है। झारखंड से फिरौती मांगने के बाद बच्चे को जान से मारने की घटना से भी न तो पुलिस जाग पाई है और न ही सरकार। यहां लोगों के गुस्से का सामना पुलिस समेत कई अफसरों को करना पड़ा, क्योंकि लोगों का कहना है कि पुलिस ने तत्परता दिखाई होती तो इस घटना को रोका जा सकता था। इसके बाद आए भिलाई में बच्चे की बलि के मामले ने पुलिस की उपस्थिति पर सवालिया निशान लगा दिया है। रायपुर से अपहृत बालक रोशन की लाश मिलने के बाद लोगों में आक्रोश और बढ़ गया है। प्रदेश में अपहरण के दर्जनों मामले दर्ज हैं और राज्य में सैकड़ों लोग लापता हैं, जिनके बारे में पुलिस पता लगाने में कामयाब नहीं हो सकी है। हालात यह हैं कि लापता होने तथा अपहरण के मामले सामने आने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। देखा जाए तो ऐसे हालात, राज्य में हर साल बनते हैं, लेकिन फिर भी सरकार क्यों आपराधिक घटनाओं को रोकने प्रयास नहीं करती ? प्रदेश में गृहमंत्री ननकीराम कंवर अपने बयानों को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहते हैं, लेकिन राज्य में कानून व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं बनाने उनका ध्यान नजर नहीं आता। इसे विडंबना ही कहा जा सकता है, जब किसी का सपूत, अपराधियों की कारस्तानियों से उनसे दूर चला गया हो, उपर से ग्रामीण विकास मंत्री रामविचार नेता का अंबिकापुर में गैरजिम्मेदाराना बयान आना, इसे निंदनीय ही कहा जा सकता है।
प्रदेश में दिनों-दिन बिगड़ रही कानून व्यवस्था को लेकर विपक्ष भी सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। ग्रामीण विकास मंत्री के बयान को कांग्रेस नेताओं ने गलत करार दिया है। अंबिकापुर में हुई घटना के बाद कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष धनेन्द्र साहू तथा नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे, रितिक ( अपहरण के बाद मार दिए गए बालक ) के परिजनों से मिलने गए, यहां उन्होंने प्रदेश के हालात को लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया। जिस तरह छत्तीसगढ़ में आपराधिक गतिविधियां बढ़ रही हैं, उसके बाद अब लोगों की जुबान पर यह बात भी आने लगी है कि छग, अब बिहार बनने लगा है। उनका कहना है कि कुछ बरस पहले बिहार में अपहरण समेत आपराधिक घटनाएं आम थी, उसी तरह स्थिति अभी छत्तीसगढ़ में बनी हुई है।
इन घटनाओं पर गौर करते हुए सरकार को गंभीर होने की जरूरत है, राज्य की सवा करोड़ जनता के मन में जो भरोसा सरकार के प्रति कायम है, वह कहीं टूट न जाएं। आपराधिक घटनाओं को रोकने पुलिस तंत्र को मजबूत किया जाना जरूरी है, क्योंकि कहीं न कहीं पुलिसिंग में कमियां बरकरार नजर आती हैं, जिसका लाभ सीधे तौर पर अपराध करने वाले असामाजिक तत्व उठा रहे हैं और कई घरों के चिराग को खत्म कर अनेक परिवारों को उजाड़ने का कारण भी बन रहे हैं।
हमारा मानना है कि राज्य की कानून व्यवस्था को बनाने तथा आपराधिक गतिविधियों पर लगाम लगाने प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को अपने हाथ में लेना चाहिए, क्यांेकि बीते कुछ बरसों से पुलिस विभाग का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। प्रदेश के गृहमंत्री ननकीराम कंवर, नक्सली मामले में इसे राश्ट्रीय समस्या बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, लेकिन प्रदेश में हो रही अपहरण की घटनाएं तो छत्तीसगढ़ से जुड़ी हैं, ऐसे में अब समय आ गया है कि प्रदेश में बेहतर कानून व्यवस्था कायम करने माकूल प्रयास किए जाएं। समय रहते ऐसा नहीं हुआ तो शांतप्रिय माने जाने वाली जनता को कहीं सड़क पर न उतरना पड़ जाए।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

विदेशी शिक्षा और भारतीय छात्र

भारत के विकास में शिक्षा का अहम योगदान रहा है और आगे भी रहेगा। इस लिहाज से देखें तो देश की सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था को लेकर गहन विचार किए जाने की जरूरत है, मगर अफसोस, भारत में अब तक मजबूत शिक्षा नीति नहीं बनाई जा सकी है। नतीजतन, हालात यह बन रहे हैं कि भारतीय छात्रों को विदेशी जमीन तलाशनी पड़ रही है। स्कूली शिक्षा में भारत की मजबूत स्थिति और गांव-गांव तक शिक्षा का अलख जगाने का दावा जरूर सरकार कर सकती है, लेकिन उच्च शिक्षा में भी उतनी ही बदहाली कायम है। उच्च शिक्षा नीति और व्यवस्था में किसी तरह का बदलाव नहीं होने का परिणाम है कि भारतीय छात्रों का रूझान विदेशों में जाकर शिक्षा ग्रहण करने की तरफ बढ़ता जा रहा है। भले ही उन्हें इसके एवज में कोई भी कीमत चुकानी पड़े। बीते साल आस्ट्रेलिया में एक के बाद एक भारतीय छात्रों पर हमले हुए, उसके बाद भी विदेशी धरती में शिक्षा प्राप्त करने का मोह कम होता नजर नहीं आ रहा है। इस स्थिति के लिए कई पहलू जिम्मेदार हो सकते हैं। साथ ही सरकार की नीति के कारण भी ऐसे हालात भारत में बरसों से बनते आ रहे हैं। शिक्षा के नाम पर भारतीय छात्रों द्वारा विदेशों में अरबों रूपये खर्च किए जा रहे हैं और इस तरह वहां की आर्थिक समृद्धि बढ़ाने में भागीदार बन रहे हैं। जिसे भारतीय हितों की दृष्टि से देखें तो यह कदापि ठीक नहीं है। बीते दिनों भारत आकर अमेरिका के राश्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने इस देश को दुनिया का एक शक्तिशाली राश्ट्र जरूर बताया हो, लेकिन उच्च शिक्षा के लिहाज से आंकलन किया जाए तो भारत की मजबूत स्थिति कहीं नजर नहीं आती। हमेशा से कहा जाता रहा है कि जिस देश में शिक्षा की नींव मजबूत होगी, वह नित नए विकास के आयाम स्थापित करेगा। इस बात को अमेरिका के विकास से जोड़कर देखा जा सकता है। अमेरिका में आज दुनिया भर के छात्रों का उच्च शिक्षा के लिए रेला लगा हुआ है, उसमें भारतीय छात्रों की संख्या कहीं अधिक है। अमेरिका की एक रिपोर्ट बताती हैं कि वहां पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या हर बरस बढ़ रही है। ऐसे में समझा जा सकता है कि भारत में उच्च षिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। रिपोर्ट में दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकी छात्रों का भारतीय शिक्षा से मोह भंग हो रहा है। यही कारण है कि भारत आकर अध्ययन करने अमेरिकी छात्रों की संख्या में बीते साल से करीब 15 फीसदी कमी हुई है। ऐसे में अंदाज लगाया जा सकता है कि भारतीय शिक्षा के क्या हालात हैं ? और भारतीय शिक्षा व्यवस्था तथा नीति में काफी कुछ बदलाव की जरूरत है। आजादी के बाद की स्थिति पर नजर डालें तो देखा जा सकता है कि भारत में केवल जनसंख्या में हर बरस बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन शिक्षा की गुणात्मकता के हिसाब से विचार करें तो ऐसी किसी तरह की बढ़ोतरी नहीं हो सकी है। हर पांच बरस में सरकार बनती है और सरकार नई हो या फिर पुरानी, सभी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त कमियों को दूर करने की बात कहते हैं, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि शिक्षा का बजट बहुत कम होता है। पिछले साल बजट में ऐसा कुछ देखने को मिला। इस तरह शिक्षा की बदहाली भला कैसे सुधर सकती है ? भारत में जनसंख्या के लिहाज से वैसे तो विश्वविद्यालयों की संख्या कम ही नजर आएगी, किन्तु यह भी जरूरी नहीं, कि हर व्यक्ति की पहुंच तक, जिस तरह स्कूल शिक्षा की व्यवस्था की गई है। वैसी कोई व्यवस्था उच्च शिक्षा क्षेत्र में हो पाए, ऐसा सोचना हर स्थिति में मुश्किल ही लगता है। यदि उच्च शिक्षा को केवल बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालयों की संख्या को बढ़ाया जाएगा तो उच्च शिक्षा के नाम पर केवल दुकानें ही खुलेंगी। वैसे भी छात्र संगठन का एक वर्ग, शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ सड़क पर लड़ाई लड़ रहा है और इसे देश के लाखों छात्रों का समर्थन भी मिल रहा है। ऐसे समय में सरकार को रोजगारपरक शिक्षा के क्षेत्र में नई नीति बनाने की जरूरत है। उच्च शिक्षा में बरसों से जो कमियां बरकरार है, उसे सरकार को दूर करने की पहल करनी चाहिए, नहीं तो विकासशील भारत को विकास के जो आयाम तय करना है, वह पूरा नहीं हो पाएगा। बीते साल उच्च शिक्षा क्षेत्र में विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता को तय करती एक और रिपोर्ट सामने आई थी, जिसमें दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत के एक भी विश्वविद्यालयों का नाम नहीं था। इसे विडंबना ही तो कहा जा सकता है कि कभी जिस देश की धरती में शिक्षा के लिए विदेशों से पढ़ने वाले छात्र बड़ी संख्या में आते रहे हांे, यदि उसी देश के विश्वविद्यालयों की इस तरह बदहाली होगी तो यहां उच्च शिक्षा में व्याप्त काली छाया का अंदाज लगाया जा सकता है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने देश में उच्च शिक्षा में लगातार हो रही कमी को देखते हुए विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने का हवाला दिया था, लेकिन यह देश की उच्च शिक्षा के हालात सुधारने कोई कारगर कदम नहीं हो सकता। आंकड़े बताते हैं कि स्कूली शिक्षा की दहलीज भारत में करीब 22 करोड़ छात्र पार करते हैं, जिनमें महज 12 से 14 छात्र ही उच्च शिक्षा ले पाते है। सबसे पहले तो इस दूरी को पाटने तथा कम किए जाने पर गहन विचार करना चाहिए। सरकार के साथ शिक्षाविदों को भी इस मसले पर हस्तक्षेप किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि शिक्षा की नींव मजबूत करने, ऐसा किया जाना अहम है। हमारा मानना है कि विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने के बजाय यदि सरकार देश में चल रहे विश्वविद्यालयों की बदहाली दूर करे, तो शायद भारतीय छात्रों को विश्वास हो कि अब भारत में भी विदेशों में मिलने वाली शिक्षा की तरह सुविधा बढ़ गई है। फिलहाल ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है और आलम यह बना हुआ है कि भारतीय छात्रों का विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाने, देश से पलायन बद्स्तूर जारी है। इस बात पर सरकार ने कई अवसरों पर अपनी चिंता जाहिर की है, मगर सवाल यही है कि आखिर अब तक इस समस्या को दूर करने किसी तरह का प्रयास क्यों नहीं किया गया है ? विदेशी धरती पर नस्लभेद जैसे जख्म लेने के बाद भी विदेशी शिक्षा से छात्रों की दिलचस्पी में कमी नहीं आ रही है, इसका कारण यही लगता है कि इन छात्रों को केवल भविष्य की चिंता है, लेकिन बदलते समय के साथ सरकार को उच्च षिक्षा में व्याप्त खामियों को दूर कर पुरानी नीति में बदलाव करना चाहिए, जिससे भारत की प्रतिभा देश में ही रहकर अपना हुनर दिखा सके। यह बात कहीं नहीं छिपी है कि भारतीय प्रतिभा ही है, जो दुनिया में परचम फहरा रही है, लेकिन इन प्रतिभाओं की काबिलियत के हिसाब से शिक्षा व्यवस्था करने में सरकार पंगु बनी हुई है। ऐसे में भला, कैसे भारतीय छात्रों में विदेश जाकर शिक्षा लेने की होड़ न हो, लेकिन हमारा यह भी कहना है कि उस स्थिति में इस देश की सरकार, नेताओं और हमें, ढिंढोरा पीटने का कोई हक नहीं बनता कि किसी भारतीय मूल के प्रवासी नागरिक का विदेशी धरती में उपलब्धि हासिल करने पर सीना चौड़ा करें और गौरव की बातें करें।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

क्यों चुप हैं प्रधानमंत्री ?

भारत में वैसे तो भ्रष्टाचार की जड़ें एक अरसे से गहरी हैं, मगर बीते एक दशक के दौरान इस बीमारी ने हर तबके को अपने चपेट में ले लिया है। भ्रष्टाचार को लेकर यदि सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करना पड़े कि क्यों ना, किसी काम के एवज में रिश्वत की राशि तय कर दी जाए, जिससे यह कार्य अंध कोठरी में न चले। सुप्रीम कोर्ट का सीधा आशय यही था कि देश में भ्रष्टाचार पूरे तंत्र में हावी हो गया है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो देश में मुश्किल हालात उत्पन्न हो जाएंगे। इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले में तीन प्रकरण लोगों के दिमाग के लिए सिरदर्द बना हुआ है। पहला, काॅमनवेल्थ गेम्स में सुरेश कलमाड़ी केकरोड़ों की गड़बड़ी का कमाल। दूसरा, आदर्श सोसायटी में शहीदों के हिस्से के फ्लैट को अपने परिजनों को देने के मामले में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण का नाम आना और फिर उन्हें कुर्सी गंवाना। तीसरा भ्रष्टाचार का मसला रहा, केन्द्र की यूपीए सरकार में दूरसंचार मंत्री रहे ए. राजा का, जिसका 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ के गड़बड़झाले में फंसना। यह तो भ्रष्टाचार के बड़े मामले रहे, लेकिन धरातल के हालात काफी बिगड़ गए हैं। यही कारण है कि देश के अरबों-खरबों रूपये विदेशी बैंकों में जमा है। आखिर यह पैसा कहां से आया, इसे तो सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि यह भ्रष्टाचार कर, जुटाई गई राषि है। इस ब्लैक मनी के कारण ही देश में गरीबी छाई हुई है, लेकिन किसी को इस बात की चिंता नहीं है कि आखिर कैसे काला धन को वापस लाया जाए। एक बात और है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भी कोई मुद्दा उठाता है, तो उसे बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है। एक आरटीआई कार्यकर्ता सतीश शेट्ठी को कुछ भ्रष्टाचारियों का दंश झेलना पड़ा और उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी, फिर भी कहीं से सरकार के नुमाइंदें सबक लेते नजर नहीं आते, यह विचार किसी के मन में नहीं आ रहा है। यहां तक की, जब योग गुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना अभियान चलाने की बात कही तो उन्हें धमकियां मिलने की बात सामने आ रही है, ऐसे में देश में सुशासन की सरकार कहां है, यह समझा जा सकता है। यहां तो केवल यही कहा जा सकता है कि सरकार, भ्रष्टाचारियों के सामने अपंग बनकर रह गई है। भ्रष्टाचार के खुलासे करने, सूचना का अधिकार एक बड़ा अस्त्र है, लेकिन नौकरशाही तथा लालफीताशाही के कारण यह अस्त्र भी अचूक साबित हो रहा है। हालांकि कुछ मामले में यह लोगों को मिले अधिकार के कारण अफसरों और मंत्रियों, या कहें कि सत्ता की ऊंची कुर्सी में बैठे धनपशुओं को यह रास नहीं आता कि कोई उनके किए गए भ्रष्टाचार की पोल खोले। साल भर की स्थिति को देखें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले कई सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी है, किन्तु सरकार ने इस बात की फिक्र कभी नहीं की कि धनपशुओं की ऐसी करतूतों को कैसे रोका जाए और भ्रष्टाचार के खिलाफ एकमत कैसे तैयार किया जाए। यह बात भी सही है कि आज के हालात में भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म करना, उसी तरह से हो जाएगा, जैसे पत्थर से पानी निकालना, क्योंकि भ्रष्टाचार, अधिकांश तबकों की नसों में खून बनकर दौड़ रहा है। भ्रष्टाचार की समस्या, देश की सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन सरकार ने कभी इस मुद्दे के लिए न तो अपने स्तर पर पहल की और ना ही, कभी ऐसी कोई नीति बनाती नजर आई, जिससे कहा जा सके कि भ्रष्टाचार के सुरसा मुंह पर लगाम लग जाएगा। देश में यह बात लगातार मीडिया के माध्यम से सामने आ रही है कि कहीं न कहीं बेनामी संपत्ति मिल रही है। आयकर छापे तथा ईओडब्ल्यू की कार्रवाई में छोटे-छोटे अफसरों के पास करोड़ों की संपत्ति मिल रही है, जबकि वह पूरी जिंदगी नौकरी करे तो भी इतनी संपत्ति नहीं जुटाई जा सकती। यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि कैसे कोई अफसर या कर्मचारी, नौकरी में आने के पहले पूरी तरह कड़का होता है, लेकिन कुछ ही बरसों बाद वह करोड़ों की संपत्ति का मािलक बन जाता है। कुछ इसी तरह के हालात राजनीतिक कर्णधारों के साथ भी देखने को मिलता है। अब तक जितने भी मामले सामने आते जा रहे हैं, उन मामलों में सरकार का रवैया नकारात्मक ही रहा है। सरकार, यदि भ्रष्टाचार को खत्म करने के बारे में कुछ भी निर्णय लेती तो सबसे पहले संसद में किसी सख्त कानून के पक्ष में होती, लेकिन भारत जैसे देश के लिए विडंबना ही है कि अब तक जितनी भी सरकार ने सत्ता की कमान संभाली है, किसी ने ऐसी किसी कानून की हिमायत नहीं की। चुनावों मे जरूर भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाया जाता है और बड़े-बड़े दंभ भरे जाते हैं कि उनकी सत्ता में काबिज होते ही भ्रष्टाचार मुक्त सरकार बनेगी, लेकिन वही ढाक के तीन पात। ऐसे कर्णधारों की सरकार तो बन जाती है, लेकिन उनकी सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त तो नहीं होती, बल्कि वह सरकार, भ्रष्टाचारमय सरकार जरूर बन जाती है। भ्रष्टाचार की एक तस्वीर देश में लगातार बढ़ते करोड़पति सांसदों को लेकर भी देखी जा सकती है, क्योंकि हर नेता सांसद बनने के पहले न तो करोड़पति होता है और न ही, कोई उद्योगपति। यहां स्थिति अलग होती है, कई सांसदों की कुछ बरसों की संपत्ति और आय के बारे जानकारी ली जाए तो दूध का दूध तथा पानी का पानी हो जाएगा। अब बात प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के बाद इस दूसरे कार्यकाल में भी उनकी चुप्पी बनी हुई है। उनकी चुप्पी पर वैसे तो विपक्ष द्वारा आए दिन कटाक्ष किया जाता रहा है और उन पर कई तरह से कमजोर प्रधानमंत्री होने की बातें की जाती रही हैं। निश्चित ही, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है, लेकिन जब उनकी ही पार्टी व सरकार में जमे मंत्रियों पर करोड़ों के भ्रष्टाचार के आरोप लगे और वह रिपोर्टों से स्पश्ट भी हो, उसके बाद भी यदि प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी न तोड़े, तो फिर यह तो इस देश की उस आम जनता के साथ नाइंसाफी है, जिनके नाम का नारा लेकर वे यूपीए सरकार के मुखिया बने बैठे हैं। भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा पीसती है, क्योंकि महंगाई की मार उसे ही झेलनी है, क्योंकि उन्हें कोई महंगाई भत्ता तो नहीं मिलता। काॅमनवेल्थ गेम्स के गड़बड़झाले में सुरेश कलमाड़ी का नाम आयोजन के पहले आ जाने के बाद भी उसे नहीं हटाया गया और ना ही, उससे अधिकार छिने गए। इस भ्रष्टाचार की कालिख को यूपीए सरकार धो भी नहीं पाई थी, या कहंे कि सरकार तटस्थ रहने के मूड में थी, उसी समय महाराष्ट्र में आदर्श सोसायटी के फ्लैट घोटाला का मामला सामने आ गया। शहीदों के नाम के फ्लैट को जब सेना के अफसरों द्वारा भी गलत तरह से लिया गया हो तो फिर इसे भ्रष्टाचार और मनमानी की हद ही कही जा सकती है। इस मामले में मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण की छुट्टी के साथ सुरेश कलमाड़ी भी आंख का तारा ना होकर, सरकार के लिए आंख का कीड़ा बन गए, जिसे सरकार ने अपने से बाहर फेंकने में ही भलाई समझी, क्योंकि विपक्ष, सरकार को संसद में इन मुद्दों पर लगातार घेर रहा था और सरकार की किरकिरी हो रही थी। इसके बाद दूरसंचार मंत्री रहे ए. राजा के मामले ने तो सरकार की बेबसी की पोल खोलकर रख दी। कैग की रिपोर्ट के बाद भी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी बनी रही। हालात यहां तक बन गए कि भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए प्रधानमंत्री की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर दिए। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि जब ए. राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति सरकार से मांगी गई तो उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद तो प्रधानमंत्री ही सवालों के घेरे में आ गए। शायद ऐसा पहली बार हुआ होगा, जब इस तरह किसी प्रधानमंत्री की भूमिका और चुप्पी पर सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह टिप्पणी की हो। सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक ताकीद कर दी है कि कभी सरकार यह ना कहें कि उन्हें हलफनामा के लिए मौका नहीं मिला। कुल-मिलाकर सुप्रीम कोर्ट की भ्रष्टाचार को लेकर जो रूख है, उसे सरकार को भी समझने की जरूरत है, क्योंकि ऐसे में विकसित राष्ट्र, भारत को कभी नहीं बनाया जा सकता। भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण विदेशी बैंकों में भारत के गरीबों के हिस्से का पैसा जमा है। इस मामले में भी केन्द्र की यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री को सुध लेने की जरूरत है, तभी देश की जनता का उन पर विश्वास कायम हो सकेगा। कहीं ऐसा ना हो कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी से यूपीए सरकार को जनता की दरबार में बड़ी कीमत ना चुकानी पड़ जाए। सरकार और प्रधानमंत्री, जरा इन बातों पर विचार करें।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

टीआरपी और पाखंड चेहरा

बात एक साल पुरानी है। सदी के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन फिल्म पा दिसंबर 2009 में रिलीज हुई थी, जिसमें उन्होंने आॅरो के किरदार को निभाया है। इस फिल्म की दर्षकों में खासी चर्चा रही और पहली बार इस फिल्म के माध्यम से ऐसी अजीबो-गरीब बीमारी प्रोजेरिया, लोगों के सामने आया, जिसे जानकर हर कोई सोच में पड़ गया, क्योंकि डाॅक्टरों की मानें तो यह बीमारी, एक करोड़ में एक व्यक्ति को होती है। पा फिल्म में प्रोजेरिया बीमारी को दुनिया के सामने लाया गया है और इस फिल्म मे अभिनेता अभिताभ बच्चन ने 13 वर्षीय एक ऐसे बालक का किरदार निभाया है, जिसे प्रोजेरिया बीमारी रहती है और वह बचपन में ही बूढ़ा दिखाई देता है। पहले इस बीमारी के बारे में बहुत ही कम लोगों को जानकारी थी, लेकिन पा फिल्म की चर्चा के बाद मीडिया भी भला कहां दूर रहने वाला था। अमिताभ बच्चन के पा फिल्म में अभिनय किए जाने से इसे और प्रसिद्धि मिली। तभी तो कल तक जिसे महज एक बीमारी समझ कर, कोई भी मीडिया खबर बनाना नहीं चाहता था, उस फिल्म की चर्चा में आने के बाद इस पर खबर बनाने मीडिया मंे होड़ मची रही। यह केवल टीआरपी बढ़ाने का चक्कर है और ऐसे में एक बार फिर मीडिया का पाखंड चेहरा उजागर हुआ है। पिछले बरस अमिताभ बच्चन अभिनीत पा फिल्म की जैसे ही चर्चा षुरू हुई तो मीडिया की नजर में प्रोजेरिया बीमारी से पीड़ित छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के छोटे से गांव भिलौनी का कुलजीत आ गया। इस बीच डेढ़ दर्जन से अधिक मीडिया के कर्ता-धर्ता पहुंचे और फिर मची टीआरपी की होड़। उस दौरान पखवाड़े भर में ऐसा कोई दिन नहीं गया, जिस दिन कोई चैनल के लोग रिपोर्टिंग के लिए नहीं पहुंचे हांे। यह बात तो सही है कि जब कोई महत्वपूर्ण खबर मीडिया पर आती है तो हर मीडिया उसका हिस्सा बनता चाहता है, लेकिन टीआरपी के चक्कर में मीडिया का पाखंड चेहरा उजागर हो तो उसे क्या कहा जा सकता है। कुलजीत लंबे अरसे से एक अजीबो-गरीब बीमारी से ग्रसित है, इन वर्षों तक उसकी खबर या उस परिवार की बेबषी की खबर किसी चैनल ने दिखाने की सुध नहीं ली, लेकिन जब यह महानायक अमिताभ बच्चन की अभिनीत फिल्म पा से जुड़ा नजर आया तो सभी ने कुलजीत के घर की ओर रूख कर लिया। हद तो तब हो गई, जब अपनी टीआरपी या फिर दर्षकों को उसका एटीट्यूड दिखाने के चक्कर में उससे करतब जैसे कार्य कराया गए। खबर बनाने के लिए मीडिया के लोगों को यह ख्याल नहीं रहा, जिस बालक पर वे खबर बनाना चाह रहे हैं और वह गंभीर बीमारी से ग्रसित है और एकदम कमजोर है। इन सब बातों को दरकिनार कर, प्रोजेरिया से पीड़ित बालक कुलजीत को कभी कोई मीडिया के नुमाइंदे नचा रहा है तो कोई दौड़ा रहा है। उससे ऐसा कराया गया, जो उसका रोज की दिनचर्या में सामिल नहीं था। एक चैनल से पहुंचे लोगों ने केवल खबर बनाने के लिए ही कुलजीत की पसंद का ख्याल रखा और वह जो पसंद करता था, उसे लाने के लिए गांव के एक व्यक्ति को पचास रूपये दिए और खबर बनाने को लेकर उंचे लोगों से सहयोग दिलाने का हवाला दिया। यह कोई एक दिन की बात नहीं है, हर दिन पहुंचने वाले मीडिया के लोग केवल खबर बनाने तक कुलजीत के परिवार की खोज खबर ले रहा है। उसके बाद तो उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। खबर बनाने पहुंचे कई चैनल वालों ने आर्थिक मदद दिलाने की बात कुलजीत के परिवार को कही, लेकिन जैसे लौटे, अब इस बारे में सोचने वाला कोई नहीं है। यहां सवाल यही है कि क्या किसी मीडिया वाले की इतनी ही भूमिका है कि वे खबर बनाने के लिए एक गरीब परिवार को सब्जबाग दिखाए और वहां से खबर बनाने के बाद इस बात को भूल जाए। ऐसा ही कुछ हुआ, भिलौनी के कुलजीत के परिवार वालों के साथ। अमिताभ बच्चन की फिल्म पा की चर्चा होने के बाद कुलजीत के परिवार वाले भी मीडिया के सुर्खियां बने रहे, लेकिन मीडिया वाले जिस तरह उनकी खोज खबर लेने पहुंचे थे, वह उनके जाने के बाद से ही गांव के रास्तों पर कहीं ठहर गया है। मीडिया में काम करने वाले लोगों का काम खबर बनाना है, लेकिन किसी को खबर बनाने के नाम पर झूठी सब्जबाग दिखाए जाने को किसी भी सूरत में मीडिया जगत के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। एक परिवार वैसे ही गरीबी के बाद अपने चहेते का इलाज कराने में हर वो जुगत बनाने की कोषिष कर रहा है, जो उसके बस में है, लेकिन मीडिया द्वारा केवल टीआरपी और खबर के नाम पर जो पाखंड चेहरा दिखाया गया, उसे स्वच्छ पत्रकारिता की नींव मजबूत नहीं हो सकती। एक मीडिया के लोगों द्वारा यहां तक कहा गया कि कुलजीत को वे महानायक अभिताभ बच्चन से मिलाएंगे, अंतिम स्थिति में उन लोगों की बात फोन से जरूर करा दी जाएगी, लेकिन आज कुलजीत और उसके परिवार के लोगों के हालात तो वैसे ही हैं और कुलजीत तथा उसका परिवार बीमारी की लड़ाई में लगे हैं, लेकिन उन मीडिया के लोगों का वादा अब तक पूरा नहीं हो सका है। कुलजीत और उसके परिवार वालों के मन में अब भी अमिताभ बच्चन से मिलने की चाहत बाकी है, लेकिन सवाल यही है कि आखिर पहल करे तो करे कौन ? अभी हाल ही में कुलजीत के परिवार वालों ने 10 नवंबर को उसका जन्मदिन मनाया, इस दौरान भी उनकी आंखों में अमिताभ बच्चन से मिल पाने का सपना दिखाई दिया। उनकी आंखों की पलकें उन्हें आज भी निहार रही हैं। कुलजीत के भाई सुजीत का कहना है कि खबर के नाम पर डेढ़ दर्जन से अधिक मीडिया वाले उनके घर पहुंचे और कईयों ने उन्हें प्रषासन र्से आिर्थक मदद दिलाने में सहयोग दिलाने की बात कही, लेकिन एक-दो को छोड़कर किसी ने दोबारा संपर्क करने की कोषिष नहीं की। यहां बताना लाजिमी है कि पाॅ फिल्म मंे जिस प्रोजेरिया बीमारी को रेखांकित किया गया है, इसी बीमारी से छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के ग्राम भिलौनी (पामगढ़) के कुलजीत भी पीड़ित है। श्री दिलीप बंजारे का 12 साल का पुत्र कुलजीत बचपन से बीमारी से पीड़ित है, लेकिन डाॅक्टरों ने 2005 में प्रोजेरिया बीमारी होने की पुष्टि की। गरीबी होने के बाद भी कुलजीत का इलाज उसके परिजन कराते आ रहे हैं। डाॅक्टरों ने प्रोजेरिया से पीड़ित की अधिकतम उम्र 20 साल बताया है। बावजूद परिजन उसके इलाज के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से भी गुहार लगाई है। तीसरी में पढ़ने वाला कुलजीत का जुड़वा बहन भी है, उसका नाम बिंदिया है और वह छठवीं में पढ़ रही है। कुलजीत बीमारी से ग्रस्त है, जबकि ंिबंदिया स्वस्थ है। कुलजीत का प्रोजेरिया बीमारी के चलते सारीरिक विकास रूक गया है और वह महज 7 किलो का है और उसकी उंचाई ढाई फीट है। उसके दांत टूट गए हैं तो सिर व सरीर पर बाल नहीं है। कान बड़े हैं तो नाक लंबी है। गाल पिचके हुए हैं और चेहरे पर झुर्रियां छाई हैं। नसें तनी हुई हैं, जैसे वह बूढ़ा हो गया हो। प्रोजेरिया बीमारी से व्यक्ति बचपन में ही बूढ़ा हो जाता है। कुलजीत का वजन में कमी होती जा रही है। इस परिवार को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन फिलहाल कोई हाथ का सहारा इन्हें नहीं मिल सका है।

रविवार, 14 नवंबर 2010

भारत के बेरोजगारों का क्या होगा ?

भारत, दुनिया का एक विशाल देश है और आबादी के लिहाज से देखें तो पूरे संसार में चीन के बाद इसका दूसरा स्थान है। इस तरह भारत में आज की स्थिति में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है, जिसे सत्ता पर काबिज होने के पहले हर पार्टी के नेता खत्म करने की दुहाई देते हैं, मगर हालात में किसी तरह का बदलाव नहीं होता। देश में केवल साल-दर-साल आबादी बढ़ती चली जा रही है और रोजगार का सृजन नहीं हो पा रहा है। ऐसे में देश के करोड़ों युवा, बेरोजगार हो गए हैं और इसका सीधा असर देश के विकास पर पड़ रहा है। यह भी माना जाता है कि पूरी दुनिया में युवाओं की जो संख्या है, उसमें भारत आगे है, लेकिन युवाओं को रोजगार देने का जो कार्य होने चाहिए, वह कमी अब भी बरकरार है। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने तीन दिवसीय दौरे पर पहली बार भारत आए। बराक के भारत आने के पहले और आने के बाद राजनीतिक हलकों के साथ कूटनीतिक तौर पर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अमेरिकी नीति जरूर भारत के हित में होगा। बराक के भाषणों में अधिकतर यही बात रही कि भारत में सांस्कृतिक विरासत है, जो दुनिया के किसी अन्य देशों में देखने को नहीं मिलता और उन्होंने महात्मा गांधी का गुणगान कर लोगों का मन मोह लेने की कोशिश की और वे इसमें सफल भी हुए। ओबामा जब भारत आए तो उन्होंने शुरूआत में ही कहा कि वे अमेरिका में बढ़ते बेरोजगारी को लेकर भारतीय कंपनियों के साथ करार करने आए हैं। इस नीति में भी बराक हुसैन, होशियार साबित हुए और करीब 20 कंपनियों ने अपनी हामी भरते हुए करोड़ों रूपये का निवेश करने की बात कही। इससे निश्चित ही अमेरिकी राश्ट्रपति गदगद हो गए हैं, किन्तु यहां भारत में इस बात की इन कंपनियों को चिंता नहीं है कि जो वे, देश में ही अपनी कंपनी का काम फैलाएं और भारत में बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने में सहयोग दें। केन्द्र में बैठी सरकार भी बराक ओबामा की इस नीति को नहीं समझ पाई कि वह केवल भारत को सशक्त राश्ट्र होने का हवाला देते हुए अपना काम साधने आए हैे। यही कारण है कि सरकार ने भी इस बात की चिंता नहीं की कि भारत में बेकार बैठे युवा बेरोजगारों का क्या होगा ? आखिर सरकार क्यों उनकी चिंता नहीं करती नजर आई। जब भारत में ही बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया है और यहां की सरकार उस गंभीर समस्या से निपटने कामयाब नहीं हो पा रही है, इस स्थिति में भी भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशों में निवेश की बात तो बेमानी लगती है। भारतीय कंपनियों के निवेश के बाद अमेरिका में करीब 50 हजार बेरोजगारों को रोजगार मिल जाएगा, इस प्रयास से तो अमेरिकियों की बांछें निश्चित ही खिल जाएंगी, लेकिन भारत में स्थिति किस तरह बिगड़ रही है, इस बात की फिक्र ऐसे हालात में कौन करेगा, यह कह पाना मुश्किल लगता है। यह तो वही हो गया, दिया तले अंधेरा या यूं कहें कि खुद के घर में अंधेरा छाया हुआ हो और हम दूसरों के घर का अंधेरा दूर करने निकल पड़ें। यह बातें भारत के किसी राज्य द्वारा किसी अन्य राज्यों के सहयोग की बात होती तो अलग थी, लेकिन यह मुद्दा एक देश से दूसरे देश का है। यहां पर भारत सरकार के नेतृत्वकर्ताओं को कूटनीतिक तौर पर लाभ-हानि क्या हो सकते हैं, यह भी विचार करने की जरूरत थी। सवाल यही है कि भारत में बीते कुछ दशकों में बेरोजगारी के हालात बद्तर हुए हैं और जिस तरह से आबादी भारत की बढ़ रही है, वह तो बेरोजगारी जैसी समस्या के तौर पर किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। आज भारत की आबादी केवल चीन से कम है और देश की जनसंख्या सवा अरब से ऊपर पहुंच गई है। यह भी माना जा रहा है कि भारत की आबादी आने वाले दस बरसों में करीब 2 अरब होने जाएगी। इस बात की कल्पना करने भर से जानकार सोच में पड़ जा रहे हैं, मगर सत्ता के मद में मशगूल नेताओं को इस समस्या की चिंता भला कैसे हो सकती है, उन्हें फिक्र जो अपनी कुर्सी की बनी रहती है। आंकड़ों के तौर पर भारत में आने वाले कुछ सालों में बेरोजगारी की समस्या किस रूप में निर्मित हो जाएगी, यह तो समझा ही जा सकता है, लेकिन देश की ऊंची कुर्सी में बैठे नीति-निर्धारकों की समझ में आए, तब ना। देश में तीन प्रमुख समस्या ज्यादा गंभीर बन गई है, एक भ्रष्ट्राचार, दूसरी महंगाई और तीसरी बेरोजगारी। आबादी की दृष्टि से विचार करें तो बेरोजगारी की समस्या ज्यादा भयावह नजर आती है। बेरोजगारी को लेकर सरकार भी समय-समय पर चिंता जताती है, लेकिन इसके बाद, वही ढाक के तीन पात। बेरोजगारी जैसे मुद्दे में तल्खी आते ही सरकार में सत्ता की चाशनी के रस में डूबे राजनेता, यह भूल ही जाते हैं कि देश में कोई बेरोजगारी जैसी समस्या भी है। हर चुनाव के समय यह बात दोहराई जाती है कि भारत में बेरोजगारी खत्म कर दी जाएगी और ऐसी नीति बनाई जाएगी और स्वरोजगार को बढ़ाने का दंभ भरा जाता है, लेकिन जब चुनाव हो जाता है और सरकार बन जाती है, उसके बाद फिर तो इस दावे की ही हवा निकल जाती है। बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्या के बारे में भूलकर भी कोई राजनेता बात करना नहीं चाहता, क्योंकि अब तक तो केवल नेताओं द्वारा दावे किए जाते रहे हैं, इस बीमारी की कोई दवा ही ढूंढने की कोशिश नहीं की गई है। इसी का परिणाम है कि देश में आबादी जिस गति से बढ़ रही है, उसी गति से बेरोजगारी भी बढ़ रही है। बेरोजगारी के कारण देश के युवा गलत दिशा में मुड़ रहे हैं, आखिर इसका जिम्मेदार कौन है ? देश की कुर्सी के कर्णधारों को यदि इस समस्या से निजात दिलाने की मंशा होती तो निश्चित ही इस बात का खुले तौर पर विरोध होता कि क्यों भारतीय कंपनियां, अमेरिका में निवेश करे। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अमेरिका, भले ही शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपनी छवि बना लिया हो, लेकिन यह भी बात सही है कि 2008 में आई मंदी का असर अमेरिका के आर्थिक ढांचा को तहस-नहस कर दिया है। दो बरस पहले जब पूरी दुनिया में मंदी का दौर चला तो केवल दो ही देश ही गंभीर आर्थिक आफत से दूर रहे, वो थे, भारत और चीन। आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका में लाखों युवा रातों-रात सड़क पर आ गए और बेरोजगार हो गए, क्योंकि अमेरिका जैसे देश में काम के लाले पड़ गए। मंदी का थोड़ा भी असर भारत पर नहीं पड़ा, लेकिन भारतीय आर्थिक हालात में जैसा सुधार होना चाहिए, वैसा नहीं हुआ। नतीजा के रूप में देखा जा ही सकता है कि मंदी के बावजूद अमेरिका ने खुद को किस तरह संभाल लिया है और नए रोजगार के अवसर तलासने में जुट गया है, लेकिन भारत में इन परिस्थितियों के नहीं होने के बाद भी कभी किसी को यह सोचने की फुर्सत नहीं रही कि भारत में बढ़ती बेरोजगारी को कैसे रोका जाए ? ना ही उस समय सरकार कोशिश करती नजर आई और न ही अब कोई नीति बनाने के बारे में चिंतन करती दिख रही है। ऊपर से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सुर के सुर मिलाते हुए अमेरिका में भारतीय कंपनियों द्वारा करोड़ों रूपये का निवेश की जाती है तो यह तो भारत के बेरोजगारों के लिए सरकार की छलावा नीति ही कही जा सकती है। यहां सवाल यही है कि ऐसे हालात में भारत के बेरोजगारों का क्या होगा ?

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सुदर्शन का बयान और कांग्रेस का संग्राम

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अर्थात आरएसएस की अपनी एक ऐसी पृष्ठभूमि है, जिसके तहत देश ही नहीं, दुनिया में यह एक अनुशासित संगठन के रूप में जाना जाता है। आरएसएस से जुड़े कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को संयमी माना जाता है और उन्हें संयमित शब्दावली के लिए जाना जाता है, लेकिन आरएसएस द्वारा पूरे देश में भगवा आतंकवाद के खिलाफ मोर्चाबंदी के दौरान मध्यप्रदेश के भोपाल में संघ के पूर्व सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन ने जो कुछ यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ तीखी टिप्पणी की, उससे देश का राजनीतिक माहौल ही गरमा गया है। शुक्रवार को देश भर में आरएसएस ने धरना प्रदर्शन कर विरोध जताया और केन्द्र की यूपीए सरकार तथा भगवा आतंकवाद संबंधी बयान देने वाले गृहमंत्री पी. चिदंबरम को खरी-खोटी सुनाई गई। इतिहास में ऐसा पहली मर्तबा हुआ, जब आरएसएस ने किसी मुद्दे के विरोध में धरना-प्रदर्शन जैसे सड़क की लड़ाई अख्तियार किया, नहीं तो आरएसएस की अपनी काम करने की अलग ही शैली है। आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार का नाम अजमेर बम विष्फोट में आने के बाद केन्द्र सरकार के खिलाफ संघ ने मुखर होने के लिए इस तरह विरोध दर्ज कराने का मन बनाया। देश के सभी बड़े शहरों में आरएसएस के बड़े नेता कमान संभाल हुए थे। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने लखनउ में सभा को संबोधित किया तो पूर्व सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन, भोपाल में कार्यकर्ताओं का साथ देने पहुंचे, लेकिन यहां के.एस. सुदर्शन ने जिस तरह बयानबाजी की, उससे तो विपक्षी पार्टी के नेता तो हक्के-बक्के रह ही गए, साथ ही संघ के पदाधिकारियों को भी यह बयान समझ में नही आया। भोपाल में भगवा आतंकवाद जैसी शब्दावली का विरोध करने जुटे आरएसएस कार्यकर्ताओं को के.एस. सुदर्शन ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी पर निशाना साधते हुए सीधे शब्दों में कथित तौर पर आरोप लगाया कि सोनिया गांधी सीआईए का एजेंट है और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी तथा स्व. राजीव गांधी की हत्या का षड़यंत्र रचा। हालांकि इस बयान पर आरएसएस के पदाधिकारी अपना पल्ला झाड़ते नजर आए और संघ के
अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य का मीडिया में यह बयान आया है कि संघ का ऐसा कोई मत नहीं है और इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई है। पूरे देश भर में आरएसएस का भगवा आतंकवाद के विरोध में धरना-प्रदर्शन तो हो गया, मगर जब संघ के पूर्व सरसंघचालक की टिप्पणी, कांग्रेसियों के कानों तक पहुंची, उसके बाद तो विरोध प्रदर्शन तो होना तय हो गया। सवाल जो, पार्टी की मुखिया के मान का रहा।
शुक्रवार को आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने धरना देकर विरोध दर्ज कराया तो शनिवार को कांग्रेस ने आरएसएस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा करते के.एस. सुदर्शन के बयान के विरोध में पूरे देश भर में धरना देकर प्रदर्शन किया। कांग्रेस पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं का कहना है कि सुदर्शन अपने बयान को लेकर देश की जनता और श्रीमती सोनिया गांधी से माफी मांगे। शुक्रवार को आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने पुतला फंूका तो दूसरे दिन कांग्रेस के नेताओं को मौका मिला और वे भी कहां पीछे रहने वाले थे, सो सुदर्शन के पुतले जलाए गए। कहा जा सकता है कि सुदर्शन के बयान के बाद कांग्रेस का संग्राम शुरू हो गया है।
अब यहां सवाल उठता है, जब आरएसएस के धरना-प्रदर्शन के लिए मुद्दा केवल भगवा आतंकवाद का था और इस तरह बयान देने के खिलाफ आरएसएस, सड़क की लड़ाई लड़ रही थी तो आखिर कौन ऐसी रणनीति पूर्व सरसंघचालक को समझ में आई, जो अपने बयान से देश में एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया। कांग्रेसियों का कहना है कि अब तक कभी ऐसी बातें सामने नहीं आई तो फिर क्यों यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी पर ऐसी अभद्र टिप्पणी की गई। इस बात का जवाब फिलहाल सामने नहीं आया है।
अब तक बने हालात पर गौर करें तो लगता है कि आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के बयान की बयार अभी थमने वाला नहीं
है, क्योंकि भगवा आतंकवाद के बयान के खिलाफ आरएसएस सड़क पर उतर आया था। ऐसे में अभद्र टिप्पणी किए जाने का मुद्दा कांग्रेस को मिल गया है। इस तरह आरएसएस, जिस तरह केन्द्र की यूपीए सरकार को घेरने के मूड में लगा रहा, उस पर पलीता लगता नजर आ रहा है, क्योंकि संघ, जब कभी भगवा आतंकवाद के बयान पर मोर्चाबंदी करने सोचेगा तो कांग्रेस भी सोनिया गांधी पर की गई कथित टिप्पणी पर जवाब-तलब करने लगेगी।
कुछ भी हो, इन बयानांे के बाद हुए प्रदर्शनों से देश के राजनीतिक हालात में गरमाहट जरूर आ गई है, क्योंकि हमेशा संयमित रूप से काम करने वाला आरएसएस जैसा संगठन पहली बार सड़क पर लड़ाई लड़ने उतरा है और भगवा आतंकवाद के खिलाफ संघ नेताओं ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा है, लेकिन पूर्व सरसंघचालक के एक बयान ने संघ की मंशा पर जरूर पानी फेर दिया है।
इन बातों के इतर देखें तो संविधान में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन आज राजनीतिक दांव-पेंच के चक्कर में जैसी बयान-बाजी की जा रही है, वह किसी भी सूरत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं आता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल यह है कि उससे किसी के मान को आघात ना लगे, किन्तु बीते कुछ बरसों में राजनीतिक रूप से एक-दूसरे को नीचा दिखाने जिस तरह ओछी बातें कही जा रही हैं, वह संविधान की गरिमा के अनुकूल नहीं है। आए दिन किसी न किसी नेता द्वारा किसी दूसरे नेता पर ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है, जिसे केवल ओछी राजनीति का परिचायक ही माना जा सकता है। भद्दी टिप्पणी करने से परहेज करने के बजाय लगता है कि कुछ एक नेताओं का ऐसा शगल बन गया है। फिसलती जुबान के बाजार में नेता सबसे आगे नजर आ रहे हैं, क्योंकि चुनावी सभाओं में तो यह चरम पर होता है। हमारा मानना है कि राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के नेताओं की विचारधारा भले ही अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन देश की जनता के बीच ओछी बातें कर राजनीति करने का भला क्या मतलब हो सकता है।
दुनिया में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक अलग ही छाप है, मगर इसी देश के कुछेक नेताओं के अनर्गल बयानबाजी से भला, भारतीय लोकतंत्र कैसे सशक्त हो सकता है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के उन नेताओं को सबक सीखने की जरूरत है, जो केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तथा स्वार्थ के कारण ऐेसी बातें कर जाते हैं, जिससे पूरे देश में उन्माद फैलने जैसा माहौल बन जाता है। जब कहीं विरोघ-प्रदर्शन होता है तो देश को किस तरह क्षति होती है, क्या ऐसी किसी बात की चिंता इन नेताओं को नहीं करनी चाहिए ? अब तक की स्थिति को देखें तो नेताओं को अपनी फिसलती जुबान पर काबू किए जाने की जरूरत है, कहीं ऐसा न हो कि उन्हें देश की जनता, अपनी वोट की जुबान से सबक सीखाने को मजबूर हो जाए।